जनसत्ता 26 सितंबर, 2014: यह कोई नई बात नहीं है, इससे पहले भी तरह-तरह के बेतुके तर्क दे-देकर विज्ञान को खारिज करने की तमाम कोशिशें होती रही हैं। विज्ञान को धर्म और पौराणिक स्थापनाओं के सहारे ‘बौना’ बनाया जाता रहा है। हर वैज्ञानिक खोज या उपलब्धि को किसी न किसी बेढ़ंगे तर्क के आधार पर ज्योतिष या देवी-देवता से जोड़ दिया जाता रहा है जबकि विज्ञान इन सब यथास्थितिवादी स्थापनाओं और तर्कों से बिल्कुल परे है। विज्ञान के अपने तर्क हैं, जिनका सिर्फ वैज्ञानिक आधार है, धार्मिक नहीं।
इधर, लगातार देखने-पढ़ने में आ रहा है कि मंगल अभियान की सफलता के बहाने तमाम प्रकार के धार्मिक और देवी-देवता संबंधी तर्क प्रस्तुत किए जा रहे हैं। ऐसा मनवाने के प्रयास हो रहे हैं कि मंगल अभियान की सफलता का आधार वैज्ञानिक कम धार्मिक या पौराणिक ज्यादा है। ज्योतिषियों के अपने तर्क हैं और कथित धर्म-रक्षकों के अपने। हर कोई (सरकार और नेता सहित) इस फिराक में हैं कि मंगल की सफलता का श्रेय खुद ले ले। ताज्जुब है कि इस नितांत वैज्ञानिक सफलता पर भी हमारे यहां राजनीति हावी है।
लेकिन यह मंगल-जीत किसी धर्म, देवी-देवता, ज्योतिष-पुराण आदि की नहीं, सिर्फ और सिर्फ इसरो के वैज्ञानिकों की मेहनत का सफल नतीजा है। इस कामयाबी का पूरा श्रेय इसरो के तमाम वैज्ञानिकों को ही जाता है। इतने कम बजट में इतनी बड़ी जीत, सोच कर भी अकल्पनीय लगता है। लेकिन यह संभव हुआ है। और हमारे होनहार वैज्ञानिकों ने इसे कर दिखाया है। साफ शब्दों में कहें, विज्ञान एक बार फिर से सफल रहा है अपने अस्तित्व को पूरी दुनिया के समक्ष बनाए रखने में।
मंगल पर जीवन, खनिज आदि की खोज बहुत सारे रहस्यों और संभावनाओं को हमारे सामने ला पाएगी और यह केवल वैज्ञानिक आधार पर संभव हो सकता है। किसी धार्मिक आयोजन करने या देवी-देवता के यान को मंगल पर भेजकर न वहां जीवन का पता चल सकता है न ग्रह से संबंधित रहस्यों का। हां, ज्योतिषीय आधार पर (मंगल-शनि-बृहस्पति आदि) जो भी तर्क या बातें हमारे सामने आ रही हैं, उनका आस्थागत या धार्मिक आधार चाहे जो हो,विज्ञान के तर्कों से यह कोसों दूर है। आस्था आप किसी भी चीज में जता सकते हैं मगर उसके पक्ष में ठोस वैज्ञानिक तर्क नहीं प्रस्तुत कर सकते। क्योंकि होते ही नहीं हैं।
इक्कीसवीं सदी में हमारे समाज का और भी अधिक धार्मिक होते जाना साफ बताता है कि हम कहीं न कहीं अपने आप को असुरक्षित-सा महसूस करते हैं। इसीलिए अ-वैज्ञानिक किस्म के पाखंडों पर निरंतर विश्वास करते रहते हैं। पढ़े-लिखे समाज को जब भी धर्म या ईश्वर की शरण में नतमस्तक होते देखता हूं, मानने का मन ही नहीं करता कि ये सब पढ़े-लिखे हैं। यही वजह है कि हमारे यहां बाबाओं और अंधविश्वास का बाजार लगातार फल-फूल रहा है।
बहरहाल, इसरो, मंगलयान और वैज्ञानिकों की सफलता का अवश्य स्वागत कीजिए मगर इसे धार्मिक तर्क-वितर्क से न जोड़िए। विज्ञान को विज्ञान की बने रहने दीजिए। धार्मिक आस्थाओं का घालमेल विज्ञान-सम्मत खोजों में न कीजिए।
अंशुमाली रस्तोगी, बरेली
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