जनसत्ता 22 सितंबर, 2014: पिछले साल जून में आई प्राकृतिक आपदा के दौरान जो, जैसा और जितना कुछ उत्तराखंड के आपदाग्रस्त इलाकों के लोगों ने झेला, करीब-करीब वैसा ही इन दिनों जम्मू-कश्मीर के लोग भी झेल रहे हैं। जम्मू-कश्मीर में अनेक आपदा पीड़ितों ने राहत और बचाव के कामों के प्रति असंतोष प्रकट किया। मुझे अच्छी तरह याद है कि गत वर्ष उत्तराखंड की आपदा के दौरान भी ऐसे ही असंतोष और आरोप सुनाई पड़ रहे थे। प्रभावित इलाके के लोग बार-बार कह रहे थे कि जो कुछ भी बचाव और राहत का काम हो रहा है वह सेना कर रही है, राज्य सरकार और जिला प्रशासन कुछ नहीं कर रहे हैं। दूसरा बड़ा आरोप यह था कि इस बचाव और राहत अभियान में प्राथमिकता तीर्थयात्रियों और सैलानियों को दी जा रही है। यहां तक कहा जा रहा था कि अगर बाहरी राज्यों के इतने सारे तीर्थयात्री-सैलानी मरे या फंसे नहीं होते तो सरकार इतनी चिंता कभी नहीं करती।
जहां तक सेना ही काम कर रही है- वाले आरोप की बात है, यह सही है कि सेना के पास जितनी बेहतर तकनीकें और संसाधन हैं उतने प्रदेश की पुलिस के पास नहीं हो सकतीं। आपदा प्रबंधन को लेकर पिछले कम से कम दस सालों से भारत के राज्यों में बातें तो जरूर हुई हैं और करोड़ों रुपए भी खर्च हुए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर उतना खास नहीं हुआ जितना वातानुकूलित कक्षों के सेमिनारों में। सेना सहित विभिन्न एजेंसियों के बीच उचित तालमेल की दिशा में धरातल पर पूर्व तैयारी और अभ्यास होने चाहिए थे। मीडिया को भी संयत होकर रिपोर्टिंग करनी चाहिए जिससे लोगों का धैर्य बना रहे।
दूसरे आरोप के बारे में इतना तो सच है कि स्थानीय लोग, दुर्गम पहाड़ी इलाके में रहने वाले निर्धन और ग्रामीण, अपने को उपेक्षित महसूस करते हैं। सरकारें तीर्थाटन और पर्यटन को इसलिए महत्त्व नहीं दे रहीं कि इससे नागरिक शिक्षित होते हैं, एक-दूसरे प्रदेशों के बारे में जान पाते हैं या उनको पुण्य या आध्यात्मिक लाभ मिलता है। बजाय इन बातों के सरकारें इससे मिलने वाली आमदनी पर नजरें टिकाए दिखती हैं। जब यही लक्ष्य रहता हो तो जितना संपन्न यात्री होगा उतना ही महत्त्व और वरीयता उसे मिलेगी। मेरे विचार से यह सोच ही गलत है जिस पर सरकारों को पुनर्विचार करना चाहिए!
कमल कुमार जोशी, उत्तराखंड
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