जनसत्ता 29 सितंबर, 2014: भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा का कहना है कि ‘सफल नहीं होंगे न्यायपालिका की स्वतंत्रता छीनने के प्रयास’ (14 सितंबर) ऐसा लगता है कि कोलेजियम प्रणाली में परिवर्तन की कवायद से न्यायपालिका विचलित हो गई है। यह कोई नहीं चाहता कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अंशमात्र भी हनन हो, लेकिन यह भी उतना ही जरूरी है कि मुकदमों के निपटारे में तेजी आए, मुकदमे तीन पीढ़ियों तक नहीं चलते रहें, किसी मुकदमे का संज्ञान लेने और आरोप गठित होने तक में दसेक बरसों का समय नहीं लग जाए।
अक्सर देखा जाता है कि जब भी न्यायालयों में लंबित पड़े मुकदमों की चर्चा होती है तब जजों की कमी का रोना रोया जाता है। लेकिन कर्मियों की कमी तो बैंकों में भी है, रेलवे में भी, सरकारी दफ्तरों में भी और अन्य जगहों पर भी, लेकिन काम तो कहीं नहीं रुकता। तब जजों की कमी का रोना क्यों? दरअसल यह एक बहाना है मुकदमों को लटकाए रखने का; कभी वकील नदारद तो कभी जज लंबे अवकाश पर आदि। निचली अदालतों में तारीख जज, मजिस्ट्रेट नहीं, पेशकार दिया करते हैं, जहां भ्रष्टाचार पनपता है। हाल ही में पटना में आयोजित अपने सम्मेलन में वकील संघों ने न्यायपालिका में भ्रष्टाचार की बात कबूली और सार्वजनिक की थी। फिर गरीब को न्याय मिले तो कैसे; क्या न्याय में देरी अन्याय के बराबर नहीं है?
ई. माधवेंद्र तिवारी, छपरा
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