जनसत्ता 23 सितंबर, 2014: हमारे देश में अदालतों भर में कुल लंबित मामलों की तादाद सवा तीन करोड़ तक पहुंच चुकी है। मुकदमे बरसों-बरस खिंचते रहते हैं और यह हमारी न्यायिक व्यवस्था की सबसे बड़ी पहचान बन चुका है। पर इससे भी बड़ी त्रासदी वे लोग भुगतते हैं जो अपने खिलाफ चल रहे मुकदमे में फैसले का इंतजार करते हुए कैदी का जीवन जीने को अभिशप्त होते हैं। बहुतों के लिए यह इंतजार अंतहीन साबित होता है।
अगर किसी ने कोई जुर्म किया है तो उसकी सजा उसे भुगतनी ही होगी। पर विडंबना यह है कि बहुत-से लोग बिना दोष साबित हुए जेल में सड़ते रहते हैं। कुल कैदियों में इन्हीं की तादाद ज्यादा है। सजायाफ्ता कैदी एक तिहाई हैं, बाकी ऐसे हैं जिनके मामले में अदालत ने कोई फैसला नहीं सुनाया है। फिर, विचाराधीन कैदियों में ऐसे लोग भी हैं जो अपने ऊपर लगे आरोप की संभावित अधिकतम सजा का अधिकांश समय जेल में बिता चुके हैं, कुछ तो संभावित सजा की अवधि बीत जाने के बाद भी बंद रहते हैं।
मानवाधिकारों की इससे ज्यादा दुर्दशा और क्या होगी! विचाराधीन कैदियों का मसला कई बार उठा है, पर उसे सुलझाने के लिए कुछ खास नहीं हो पाया। अब एक बार फिर इस दिशा में पहल की उम्मीद जगी है। विचाराधीन कैदियों की बाबत प्रधान न्यायाधीश आरएम लोढ़ा के चिंता जताने के बाद केंद्र सरकार ने संकेत दिए हैं कि वैसे कैदियों को निजी मुचलके पर रिहा किया जा सकता है जिनकी संभावित सजा पूरी हो चुकी है या जो उसका आधा समय जेल में बिता चुके हैं। इससे जहां हजारों विचाराधीन कैदियों और साथ ही उनके परिजनों को बेजा यंत्रणा से मुक्ति मिलेगी वहीं जेलों की व्यवस्था भी सुधारी जा सकेगी। लंबित मामलों की तादाद भी घटाई जा सकेगी।
रमेश सांगवान, रोहतक
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