जनसत्ता 2 अक्तूबर, 2014: हमारे राजनीतिक दलों की दलील है कि वे कोई सरकारी विभाग नहीं हैं, इसलिए सूचनाधिकार अधिनियम उन पर लागू नहीं होता। उनका यह भी कहना रहा है कि उन्हें आरटीआइ के तहत लाने से उनकी निर्णय-प्रक्रिया की स्वतंत्रता बाधित होगी। फिर ऐसी भी सूचनाएं मांगी जा सकती हैं, जिनका उनके राजनीतिक विरोधी दुरुपयोग कर सकते हैं। दूसरी ओर, केंद्रीय सूचना आयोग ने तर्क दिया है कि राजनीतिक दलों का गठन निर्वाचन आयोग में पंजीकरण के जरिए होता है, इसलिए वे सार्वजनिक प्राधिकार हैं। फिर, मान्यता-प्राप्त पार्टियों को आय कर में छूट, कार्यालय के लिए बंगले या भूखंड के आबंटन, चुनाव के समय दूरदर्शन, आकाशवाणी से मुफ्त प्रसारण आदि के रूप में सरकार से कई सुविधाएं मिलती हैं।
न तो आयोग के इन तर्कों को निराधार ठहराया जा सकता है न पार्टियों की यह आशंका गलत कही जा सकती है कि कहीं आरटीआइ का रास्ता खुल जाने से उनके रणनीतिक फैसलों या उम्मीदवारों के चयन की वजहों के बारे में भी जानकारी न मांगी जाए! पर क्या पार्टियों को अपने वित्तीय स्रोत का खुलासा करने से बचने की छूट होनी चाहिए?

राजनीतिक दल अपने आय-व्यय की बाबत गोपनीयता के आवरण में काम करते रहे हैं। उन्हें यह डर सताता होगा कि सूचनाधिकार का हथियार उनसे यह सहूलियत छीन लेगा। लेकिन अगर पार्टियों को अपने वित्तीय स्रोत न बताने की आजादी हो, तो भ्रष्टाचार के खात्मे की उम्मीद भला कैसे की जा सकेगी! लिहाजा, उन्हें अपने एतराज को पार्टी की निर्णय-प्रक्रिया, रणनीतिक फैसलों और आंतरिक विचार-विमर्श तक सीमित रख कर, आरटीआइ के लिए राजी होना चाहिए। यों पार्टियों को अपने आय-व्यय का ब्योरा देना होता है, पर वह एक मोटा हिसाब रहता है, जिससे बस यही पता चलता है कि किस साल उन्हें कितनी आय हुई और उन्होंने कितना खर्च किया। पर यह बात कही जाती रही है कि बड़ी रकम के चंदों के पीछे अक्सर निहित स्वार्थ होता है, जिसका नतीजा पक्षपातपूर्ण सरकारी फैसलों के रूप में आता है। इसलिए पार्टियों को और जवाबदेह बनाने और उनके वित्तीय व्यवहार में पारदर्शिता लाने के कदम जरूर उठाए जाने चाहिए।
विनय रंजन, मुकर्जी नगर, दिल्ली

 

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