सामाजिक डर और ‘लोग क्या कहेंगे’ पर आधारित सोच की चुप्पी इस तरह के अपराधों को बढ़ावा देती हैं। घरेलू हिंसा के साथ महिलाओं पर भी होने वाले अनेक प्रकार के अत्याचार आज समाज मे चिंता का विषय बने हुए हैं। घरेलू हिंसा और इस तरह के अपराधों की रोकथाम के लिए बिना शिक्षित हुए अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूकता आ नहीं आ सकती है।

इसके लिए माता-पिता के साथ घर के सभी सदस्यों को जागरूक होना पड़ेगा। समाज में सभी लोगों को शिक्षा के महत्त्व को समझना होगा, जो अंधकार को प्रकाश में बदलता है। शिक्षा के महत्त्व के प्रचार-प्रसार से संकीर्ण सोच में बदलाव लाया जा सकता है।

वर्तमान में घरेलू हिंसा के लिए बने कानून पीड़ित को संरक्षण की बात करते हैं, अपराधी को दंड दिलाने की नहीं। इन कानून में संशोधन किए जाने की जरूरत महसूस की जा रही है, जिनमें अपराधी को कड़े से कड़े दंड का प्रावधान हो। कानून का डर और सजा का भय घरेलू हिंसा की रोकथाम मे सार्थक हो सकता है।

घरेलू हिंसा को रोकने के लिए जो कानून हैं, उनकी जानकारी समाज के सभी तबकों को पर्याप्त नहीं है। अपराधों की रोकथाम के लिए प्रशासन और पुलिस के साथ-साथ परिवार और समाज की भी बड़ी जिम्मेदारी होती है। समाज में बड़े पैमाने पर जनचेतना और जन-जागरूकता के अभियान चला कर अपराधों की रोकथाम के लिए अपनाई जाने वाली नई जानकारियां, नए कानून आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जा सकता है।
’नरेश कानूनगो, गुंजुर, बंगलुरु, कर्नाटक

समाधान की राह

सर्वश्रेष्ठ समाधान चर्चा में ही निहित है। एक माह से ज्यादा से जारी किसानों के आंदोलन के दौरान कड़ाके की ठंड में उपवास तथा भूख हड़ताल आदि से आंदोलन कमजोर नहीं हो रहा, बल्कि उसमें नए पहलू जुड़ रहे हैं। इसलिए इसे किसी सियासत का शिकार होने से बचना चाहिए।

अच्छी बात यह है कि अभी तक आंदोलन अहिंसक है और शासन भी वार्ता के पक्ष में है। सियासत के सहारे मांग दबाना और मांग मनवाना कठिन डगर है। इसलिए दोनों पक्ष अपनी सियासत को दरकिनार करते हुए केवल चर्चा पर ही जोर दें, ताकि आंदोलन समाप्ति के साथ सर्वश्रेष्ठ समाधान भी हो सके।
’बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, उज्जैन, मप्र