हमें हमारी संस्कृति पर नाज है। परिवार व्यवस्था पर नाज है। पूरे समाज को एक परिवार मानते हैं। हमारे समृद्ध मूल्यों ने ही हमें ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ सिखाया। मगर एक विषाणु के कारण हमारी मित्रता, अपनापन सब तार-तार होता दिख रहा है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले से खौफनाक सच्चाई सामने आ रही है। एक पेट्रोलियम इंजीनियर कोरोना को पराजित करके घर तो वापस आ गए, लेकिन अपने पड़ोसियों से पराजित हो गए। उन्होंने इतना प्रताड़ित किया कि उन्हे मजबूर होकर अपने घर के सामने ‘मकान बिकाऊ है’ का बैनर टांगना पड़ा। इतना ही नहीं, वाराणसी की अशोक की कथा तो और भी ददर्नाक है। वह मुंबई से सोलह सौ किलोमीटर पैदल चल कर घर तो पंहुचा, मगर घरवालों ने दरवाजा नहीं खोला। यही हाल रहा तो विषाणु से नहीं हम अपने लोगों की प्रताड़ना से ज्यादा मरेंगे। -’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर

लापरवाही न करें
देश पर कोई भी आपदा, संकट आए तो देशवासियों का फर्ज बनता है कि उस आपदा और संकट का एकजुट होकर मुकाबला करें और सरकार के इसके लिए किए जा रहे प्रयासों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करें। इस समय दुनिया के साथ हमारे देश को भी कोरोना ने भारी संकट में डाला है। कोरोना को हराने के लिए हमारे प्रधानमंत्री ने बंदी की अवधि बढ़ा कर तीन मई तक करने का एलान किया। लेकिन यह बंदी भी तभी कामयाब होगी जब आम लोग और ज्यादा सख्ती से इसके प्रति गंभीर होंगे, नहीं तो सरकारों को आगे और बंदी बढ़ाने पर मजबूर होना पड़ेगा, जो देश के बहुत से क्षेत्रों और विकास के कामों के लिए बहुत नुकसानदेह होगा। किसी की भी लापरवाही और गलती कोरोना को बढ़ा सकती है। खासतौर पर कोरोना के कारण जो क्षेत्र रेड जोन में हैं, वहां के लोगों के लिए तो यह खतरे की घंटी है। उनके लिए ही नहीं, बल्कि पूरे देश के लिए यह भारी मुसीबत लाने की आहट है। यहां के लोगों की एक छोटी-सी गलती कोरोना को लेकर हालात बद से बदतर कर सकते हैं। जिन क्षेत्रों में अभी तक कोरोना ने दस्तक नहीं दी है, वहां के लोगों को भी कोरोना के प्रति लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए, बल्कि उन्हें भी बंदी और सरकार, प्रशासन के नियमों का गंभीरता से पालन करना चाहिए। कोरोना को हराना है, देश को इस महामारी के चंगुल से छुड़ाना है, तो सावधानी बरतनी ही होगी।
-राजेश कुमार चौहान, जालंधर

सख्ती के संकेत
कोरोना महामारी के समय इस्तेमाल हो रहे शब्दों की वजह से अपनी भाषा न समझ पाने वाले भी अंग्रेजी के बहुत सारे शब्द समझने और बोलने लगे हैं। ‘लॉकडाउन’ उन खास जुमलों में हैं, जो इस दौरान सबसे ज्यादा बोला और समझा गया। जिस मर्ज की दवाई दुनिया में नहीं है, उसके लिए लॉकडाउन सबसे कारगर इलाज माना गया। 24 मार्च की शाम जब प्रधानमंत्री ने हमसे तीन हफ्ते मांगे तो उम्मीद थी कि कोरोना छू-मंतर हो जाएगा। इक्कीस दिनों तक देश कितना ‘लॉक’ रहा और मर्ज कितना ‘डाउन’ हुआ, बताने के लिए सरकारी आंकड़े काफी हैं। जहां तक बीमारी की बात है, नतीजे निश्चित रूप से अच्छे माने जा सकते हैं। वहीं हमारी लापरवाहियां भी उजागर हुई हैं। प्रधानमंत्री के ताजा संबोधन से जाहिर है कि बंदी में अपेक्षित सख्ती की कमी ने आंकड़ों को डरावना बना दिया है। लिहाजा तालाबंदी की अवधि को बढ़ाया जाना सरकार की मजबूरी बन गई। देश को नरमी से दिया गया संदेश उन सख्त निर्देशों का इशारा है, जहां कोई चूक अंजाम को भयावह बना सकता है।
-एमके मिश्रा, रातू, रांची

सहयोग की जरूरत
कोरोना संकट ने निश्चय ही पूर्व स्थापित मानवीय और प्राकृतिक सिद्धांतों पर नए सिरे से सोचने-समझने को विवश कर दिया दिया है। जल, मृदा, वायु और अन्य प्रदूषणों में आशातीत कमी आई है। मानव जनित प्रदूषक तत्त्वों और विषाणुओं को रोकने में कुछ सफलता मिली है। इस समय केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा प्रदत्त सुविधाओं और शासकीय प्रयासों में भी पारदर्शिता परिलक्षित हो रही है। इसमें सबसे अहम कर्तव्य यह बनता है कि प्रत्येक मानव इस महाविभीषिका का समूल नाश करने हेतु कंधे से कंधा मिला कर चलें। लोग भूख-प्यास से परेशान न होने पाएं। राजनीतिक दलों को भी चाहिए कि वे अपने वैचारिक मतभेदों को छोड़ कर परस्पर सहयोग करें और देश को सजा-संवा कर अक्षुण्ण और दीर्घायु बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाएं।
-वीपी विश्वकर्मा, पटेलनगर, देहरादून