हर समय चुनावी मुद्रा में रहने की वजह से देश का बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं, कई राजनीतिक दल भी ‘एक देश एक चुनाव’ की चर्चा कर रहे हैं। पहले आम चुनाव से 1967 तक लोकसभा और विधान सभाओं के चुनाव साथ-साथ होते रहे। लेकिन इसके बाद विभिन्न कारणों से लोकसभा तथा विधान सभाओं के चुनाव का समय अलग-अलग हो गया।
पिछले कुछ वर्षों से एक देश एक चुनाव का मुद्दा बहुत उठाया जा रहा है। हो सकता है कि आर्थिक मोर्चे पर इसके कुछ फायदे हों, लेकिन उसके दूरगामी परिणाम क्या होंगे, यह सामने आना अभी बाकी है। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हम एक लोकतांत्रिक देश हैं। हमारा संविधान ऐसे प्रावधान करता है कि सरकार आम जनता चुने और वह भी निश्चित समय मेंं। फिर ‘एक देश एक चुनाव’ से पहले हमें राजनीतिक दलों में सुधार करना पड़ेगा। दल-बदल कानून को और समयानुकूल बनाना पड़ेगा कि जनता जिसे चुने वह चुनाव बाद अगर अपना दल बदले या बेमेल पार्टी से समझौता कर सरकार बनाए तो उसकी सदस्यता रद्द हो।
इसके अलावा, हर राजनीतिक दल को अपने घोषणा पत्र पर जवाबदेह बनाया जाए। पांच साल बाद सत्ताधारी दल अपने घोषणा पत्र की प्रगति की रिपोर्ट देश को बताए। हर राजनीतिक दल अपने चंदे का पूरा हिसाब संसद में पेश करे। ये सब सुधार अगर हो जाएं, चुनाव बाद के बेमेल गठबंधनों पर रोक लग जाए तभी देश का भला हो सकता है। रही बात एक देश एक चुनाव की, ऐसी व्यवस्था कतई नहीं होनी चाहिए जिससे जनता के प्रतिनिधि चुनने और दूसरे लोकतांत्रिक हक छिन जाए। लोकतंत्र ही देश की शान है।
एक यही अधिकार है जो हर दल को जनता के प्रति जवाबदेह बनाता है। अगर किसी भी सत्ता को हटाने का नियम नहीं रहा तो वह निरंकुश हो जाएगी। इसलिए ‘जनता की, जनता द्वारा, जनता के लिए’ पर आधारित लोकतंत्र कायम रहना चाहिए।
’मुनीश कुमार, भिवानी, हरियाणा
