वैश्वीकरण के इस माहौल में हमने संसाधनों और भौतिक विकास की दौड़ में तो अग्रणी स्थान बनाने की कोशिश की है, लेकिन उसके अनुरूप मानव संसाधन का विकास नहीं हो पाया है। मानवीय व्यवहार और कर्मयोग में अभी उतनी ऊर्जा और चुस्ती-फुर्ती हम विदेशियों से नहीं सीख पाए हैं, जो सीखनी चाहिए थी।
इसके लिए भारतीय जनमानस में राष्ट्रीय चरित्र और स्वदेशाभिमान के संस्कारों के लिए विशेष प्रयत्नों की आवश्यकता है। जब तक हर व्यक्ति में यह भावना नहीं होगी, तब तक हमारी प्रगति के लिए जरूरी लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता। तेज विकास के साथ हमारी मानसिकता में भी बदलाव की जरूरत है।
’दीपक दत्त, बांसवाड़ा, राजस्थान</p>