यह हैरान-परेशान करने वाली बात है कि चुनावों को कैसे सिर्फ किसी व्यक्ति के प्रति जनमतसंग्रह में बदला जा रहा है। लगता है कि लोगों को विधानसभा या संसद के सदस्यों को नहीं बल्कि किसी महानायक के व्यक्तित्व पर मुहर लगा कर उसके दल के हर तरह के प्रत्याशी को महज परोक्ष रूप से चुनने को कहा जा रहा है। गनीमत है कि अभी घोषित रूप से हमारी राजनीतिक व्यवस्था संसदीय लोकतंत्र की है। मगर इस प्रणाली के परिपक्व उसूलों के अनुसार आचरण करना न मुख्यधारा के राजनीतिक दलों ने सीखा है और न ही हमारी शिक्षा व्यवस्था ने देशवासियों में इसकी समझ को व्यापकता और गहराई दी है।
पिछले कुछ चुनावों के प्रचार से यह सिद्ध करने की कोशिश की जा रही है कि हमें लोकतंत्र की साझा जिम्मेदारियों और ताकत की नहीं बल्कि किसी महानायक के दैवी नेतृत्व की आवश्यकता है। इस तर्क पर तो विधानसभा के चुनाव करवाने की बजाय एक शासक को चुन कर सारा प्रशासन उसके जिम्मे छोड़ देना चाहिए। यहां ब्रेख्त का यह कथन मौजूं है कि वो कौमें बदनसीब हैं जिन्हें नायकों की जरूरत होती है! मनोविश्लेषण के धरातल पर कहा जा सकता है कि अवतारों, महानायकों की उम्मीद रखने वाले और उन्हें रच कर चुनने वाले असल में लोकतंत्र की पहली शर्त, वयस्कता, ही पूरी नहीं करते हैं। चुनावी प्रचार और बहस से नीतियां लगभग गायब हैं।
सुनते थे कि सभी प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति आदि का ब्योरा आयोग को प्रस्तुत करना होता है। बेहतर होता कि चुनाव आयोग इस जानकारी को इश्तिहारों के सहारे लोगों के बीच ले जाता, केवल वेबसाइट पर टंगा न छोड़ देता। आखिर हमें पता तो चले कि दसियों बैंकों में लाखों-करोड़ों के खाते रखने वाले, कई-कई मकानों-बंगलों के मालिक कैसे स्वयं को मेहनतकश लोगों के नुमाइंदे सिद्ध करते हैं!
अतीत में आधुनिकता के प्रमाण का गौरव ढूंढ़ने वालों को इससे संतुष्टि हो सकती है कि जैसे स्वयंवर में एक खास पृष्ठभूमि से ही वर को चुनना होता था उसी तरह आज के प्रमुख राजनीतिक दल भी मतदाताओं के सामने विशिष्ट आर्थिक सेहत के प्रत्याशियों को ही उतार कर उनका मान रखते हैं! अगर चुनाव आयोग यह जिम्मेदारी नहीं निभा सकता तो मीडिया तो है। लेकिन यहां भी बड़े स्तर पर लोकतंत्र के प्रतिनिधित्व के आदर्श की हत्या पर चुप्पी-सी पसरी है।
महज नियमित चुनावों को लोकतंत्र की गहरी जड़ों का परिचायक मानना भूल होगी। सच्चाई तो यह है कि अगर निजी पूंजी, धनबल, व्यावसायिक प्रचार और व्यक्ति महिमामंडन के ऐसे ही माहौल में चुनाव होते रहे तो हमारा लोकतंत्र खोखला होता जाएगा। यह और खतरनाक इसलिए भी होगा कि इसके नाम के ठप्पे को तमाम तरह के अन्य जुल्मों और नाइंसाफियों पर पर्दा डालने, उन्हें जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहेगा।
फिरोज अहमद, संतनगर, दिल्ली
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