हमारे समाज की संवेदना इस कदर मर चुकी है कि कभी गोरक्षा के नाम पर तो कभी बच्चा चोर के नाम पर निर्दोष व्यक्ति की हत्या कर दे रहा है। आजकल शायद ही कोई ऐसा दिन आता होगा जब अफवाह के नाम पर निर्दोष व्यक्ति की हत्या का जिक्र न हो। गोरक्षा के नाम पर एक निर्दोष व्यक्ति की हत्या, बच्चा चोर के शक में महिला की पीट-पीट कर हत्या, आखिर कब तक ऐसे शीर्षकों और विचलित कर देने वाली खबरों से हमारा सामना होता रहेगा? कभी मध्यप्रदेश, कभी राजस्थान, कभी महाराष्ट्र तो कभी छत्तीसगढ़, भारत का शायद ही कोई ऐसा राज्य होगा जो मॉब लिंचिंग (भीड़ की हिंसा) से मुक्त हो। स्थिति यहां तक खराब हो चुकी है कि भारत की न्यायपालिका को कार्यपालिका के कार्यों में हस्तक्षेप करते हुए कहना पड़ रहा है कि ‘लोकतंत्र में कोई भी व्यक्ति कानून नहीं बना सकता।’
सरकार का कर्तव्य है कि वह आम जनता को सुरक्षा मुहैया कराए ताकि समाज में मत्स्य न्याय की अवधारणा प्रस्तुत न हो और सबको समान न्याय और समान अवसर उपलब्ध हो सकें। यह लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था की एक अति महत्त्वपूर्ण कसौटी है। मॉब लिंचिंग जैसे गंभीर मुद्दे पर सरकार कितनी गंभीर है, इसका पता तब चला जब गृहमंत्री ने कहा कि सबसे बड़ी मॉब लिंचिंग 1984 में हुई थी। यह बयान साबित करता है कि मॉब लिंचिंग पर सरकार अब भी सख्त नहीं हुई है।
आरोप-प्रत्यारोप के दौर से बचते हुए सरकार को चाहिए कि वह जनता के प्रति अपने कर्तव्यों को पूरा करे और समाज में शांति एवं भाईचारे की स्थापना करें ताकि सबको विकास के समान अवसर उपलब्ध हो सकें। भीड़तंत्र के नृशंस एवं वीभत्स रूप पर अंकुश नहीं लगाया गया तो यह लोकतंत्र पर हावी हो जाएगा और जब लोकतंत्र पर भीड़तंत्र हावी हो जाएगा तो फिर समाज में अराजकता का माहौल कायम हो जाएगा। अराजकता का माहौल कायम होने के बाद कानून का शासन निष्प्रभावी हो जाएगा। जब कानून का शासन निष्प्रभावी हो जाएगा तो फिर लोकतांत्रिक संस्थाएं और लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। इसलिए सरकार को चाहिए कि भीड़तंत्र पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित कर अपने राजधर्म का पालन करे।
कुंदन कुमार क्रांति, बीएचयू, वाराणसी</strong>
नशे पर नकेल
नशा देश और परिवार का दुश्मन है। यह कई परिवारों के नाश का कारण बन चुका है और रिश्तों को तार-तार भी कर चुका है। अगर नशे के खिलाफ लोग जागरूक नहीं हुए तो भविष्य में भी यह लोगों-परिवारों को निगलता जाएगा। नशा और नाश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। हमारे देश में नशे को लेकर घटिया राजनीति भी खूब होती है। सत्ता पक्ष और विपक्ष एक-दूसरे पर नशे को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगाते हैं। नशे के दलदल में फंस कर अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मारना कहां की समझदारी है? दूसरों के कहने से अपने घर में खुद आग लगाना बेवकूफी नहीं तो क्या है!
माना कि सरकार का नशे के प्रति ढुलमुल रवैया उस पर नकेल कसने में बाधक है लेकिन लोग खुद तो समझदारी से काम लेकर इसके मकड़जाल में न फंसें और अपने बच्चों पर भी कड़ी नजर रखें। अगर बच्चों को बचपन से ही नशे से दूर रहने और उसके दुष्परिणामों के प्रति अवगत कराया जाए तो जिंदगी के किसी भी मोड़ पर वे नशे के आदी नहीं होंगे।
राजेश कुमार चौहान, जालंधर