ऐसी सक्रियता

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के बस्तर आगमन पर प्रशासनिक सक्रियता के दृश्य देखने योग्य हैं। महीनों पहले पूर्ण परियोजनाओं के उद्घाटन का समय है, चंद दिनों में ही नए भवन बन कर तैयार हो गए हैं, सड़कें बन गई हैं, रात भर में स्थान-स्थान पर पेड़-पौधे उगा दिए गए हैं। राजनेता व अफसर दफ्तरों से निकल कर लोगों के बीच में हैं, आवागमन बाधित कर दिया गया है। अफसोस की बात है कि प्रशासनिक सक्रियता ऐसे वीआईपी आगमन के समय ही दिखती है, बाकी समय आम जनता की अनदेखी ही होती है।

कुछ ही दिन पहले प्रधानमंत्री के बीजापुर आगमन पर भी कई उद्घाटन हुए थे, लेकिन आज उन परियोजनाओं की सुध लेने वाला कोई नहीं है। नौकरशाह अपने प्रमुखों को खुश करने में ही लगे हुए हैं। राजनेताओं को भी इन सभी परिस्थितियों का ज्ञान है लेकिन वे भी औपचारिकताओं से बंधे हुए हैं। पूरी राजनीति को ‘इवेंट मैनेजमैंट’ का खेल बना दिया गया है। ये दृश्य नक्सल हिंसा से प्रभावित लोगों के जख्मों पर नमक के समान हैं। अभावग्रस्त बस्तर के लोगों की स्थिति में इससे कोई क्राांतिकारी बदलाव नहीं आएगा।

सूर्य प्रताप यादव, दंतेवाड़ा, छत्तीसगढ़

न्याय की खातिर

भारत में दस लाख की आबादी पर जजों की संख्या मुश्किल से पंद्रह है। संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जनता को जल्द न्याय मिलना चाहिए लेकिन जजों पर मुकदमों का इतना बोझ है कि कई मामलों में फैसला आते-आते बीसों साल लग जाते हैं। अकसर दोहराया जाता है कि ‘इंसाफ में देरी नाइंसाफी के समान है’ लेकिन न्यायपालिका के मौजूदा हालात में इसका कोई मतलब नहीं रह गया है।

हर मुकदमे में यदि दो पक्षकार हों और हर पक्षकार के परिवार में औसतन चार सदस्य हों तो 2.86 करोड़ लंबित मुकदमों में देश के 25 करोड़ लोग मुकदमेबाजी से त्रस्त होंगे। अपने देश में एक सर्वोच्च न्यायालय, 24 उच्च न्यायलय और लगभग 20,400 निचली अदालतें हैं। लेकिन मुकदमों की भारी बाढ़ से निपटने के लिए जजों की संख्या महज 21 हजार है। कानून मंत्री को जजों पर पड़ते मुकदमों के बोझ को कम करने के लिए जजों की संख्या बढ़ाने की दिशा में काम करना चाहिए।

महेश कुमार यादव, दिल्ली</strong>