नौ मार्च के अंक में उर्मिलेश का लेख ‘आप’, वे और हम’ और श्रद्धा उपाध्याय का ‘एक खुला पत्र’ (समांतर) कहीं न कहीं आम आदमी पार्टी के प्रति सद्भाव ही प्रकट करता है। 14 फरवरी 2015 को जब रामलीला मैदान में केजरीवाल के मंत्रिमंडल का स्वरूप देखा तो बहुत से लोगों, खासकर उनके समर्थकों को भी थोड़ा आश्चर्य हुआ। हालांकि केजरीवाल के अलावा मनीष सिसौदिया और सतेंद्र जैन पहले मंत्रिमंडल में भी थे और उनके कार्य को सराहा गया था। यह कहना भी उचित नहीं होगा कि बाकी चार जो मंत्री बनाए गए हैं, वे योग्य नहीं हैं या वे जनता की कसौटी पर खरे नहीं उतरेंगे। हो सकता है कि वे बहुत कुछ अच्छा कर जाएं। लेकिन आश्चर्य इस बात पर हुआ कि मंत्रिमंडल चयन में उसी परंपरावादी राजनीतिक नजरिए को अपनाया गया जो अब तक अन्य राजनीतिक पार्टियां अपनाती रहीं हैं।
विधानसभा अध्यक्ष से लेकर अन्य सदस्यों के चयन तक में जाति-बिरादरी समीकरण का पूरा खयाल रखा गया है। हालांकि आदर्श शास्त्री, जिन्हें आधुनिक तकनीक में दक्ष माना जाता है, का न चुना जाना सभी को अखरा। इसी तरह टिकट वितरण की बात है तो भले ही अरविंद केजरीवाल की लहर में सभी तिर गए हों, पर वहां भी जीतने वाले या धन वाले का भी ध्यान रखा गया।
इसी टिकट वितरण प्रक्रिया पर योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने आपत्ति उठाई थी। श्रद्धाजी का यह कहना कि दिल्ली जीतने के उपरांत तो दुनिया रोशन हो गई थी, हमने अपनी जिंदगी का खाका चुनावी तौर पर तैयार कर लिया था, एक टीस को प्रकट करता है। यह स्वीकार कर लिया गया था कि शायद राजनीति में इतना लचीलापन जरूरी होता होगा। पर योगेंद्र यादव प्रकरण ने तो सिद्ध कर दिया कि आज की आम आदमी पार्टी की कार्यशैली अन्य राजनीतिक दलों के अनुरूप ही है।
राजस्थान के विधायक ने राहुल गांधी की कार्यशैली पर सवाल उठाए तो दूसरे दिन ही उन्हें पार्टी से बाहर कर दिया गया। शशि थरूर को मोदीजी की प्रशंसा के फलस्वरूप कांग्रेस प्रवक्ता पद छोड़ना पड़ा था। क्या वही संस्कृति आज आम आदमी पार्टी में काम नहीं कर रही है?
चार मार्च को जब से योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण को आम आदमी पार्टी की राजनीतिक मामलों की समिति (पीएसी) से बाहर निकाला गया है उसी दिन से व्यक्तिवाद और चापलूसी की वीणा बज रही है। ‘आप’ का हर छोटा-बड़ा नेता खुद को केजरीवाल के नजदीक दिखाने की कोशिश कर रहा है।
व्यक्तिगत निष्ठा के पैरवीकार और भी आगे चले गए हैं। उन्हें लगता है कि अब योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण की पार्टी को कोई जरूरत नहीं है। अपने, अपनों पर ही कीचड़ उछाल रहे हैं। ये अतिज्ञानी यह नहीं सोच रहे कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण तो बड़े नाम हैं, वे फिर भी अपने नाम के बल पर खा-कमाएंगे। लेकिन उनका क्या होगा जो दूसरों को कोस कर पार्टी में अपनी जगह बनाना चाहते हैं?
इस हाइकमान संस्कृति ने ही दिल्ली में भाजपा का भट्ठा बिठाया। दिल्ली में दिल्ली के नेतृत्व को दरकिनार करने का ही नतीजा है कि भाजपा इतनी बुरी तरह हारी। यही संस्कृति यदि आम आदमी पार्टी में भी पनपेगी तो फिर ‘राजनीति को पवित्र करने’ या ‘राजनीति को बदलने’ जैसे उसके संकल्प महज लोगों को भरमाने या वोट कबाड़ने के की खातिर गढ़े गए जुमले ही लगते हैं।
राजनीति ‘एकला चलो रे’ से नहीं चलती, उसमें सबके सहयोग की जरूरत होती है।
उर्मिलेशजी कहना एकदम उचित है कि ईमानदारी के साथ समझदारी और वैचारिक सहिष्णुता भी चाहिए। लोकतांत्रिक संगठन और समावेशी विकास का सोच भी होना चाहिए। राजनीति में जहां एक ओर आधुनिक तकनीक की जरूरत है वहीं दूसरी ओर अनुभव का भी अपना महत्त्व है। इसके अलावा राजनीति में विरोधी सुर को सुनने की भी आदत डालनी पड़ेगी। यहां बात योगेंद्र यादव या किसी और की नहीं है बल्कि नीति और सिद्धांत की है। आप यदि सबसे अलग होने का दावा करते हैं तो आपको अलग दिखना भी पड़ेगा।
यतेंद्र चौधरी, नई दिल्ली
फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta
ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta