केंद्र सरकार ने जब पिछले महीने नए लेबर कोड लागू किए। तो प्राइवेट सेक्टर के कई कर्मचारियों को लगा कि वर्कप्लेस बेनिफिट्स में आखिरकार एक बड़ा बदलाव होने वाला है। एक घोषणा (फिक्स्ड-टर्म कर्मचारी अब सिर्फ एक साल की सर्विस के बाद ग्रेच्युटी के लिए एलिजिबल हैं) ने सभी का ध्यान अपनी ओर खींचा। पहले ग्रेच्युटी के लिए एलिजिबल होने के लिए 5 वर्ष की सर्विस की जरूरत होती थी।
लेकिन नए लेबर कोड लागू होने के हफ्तों बाद, कन्फ्यूजन और गहरा हो गया है। केंद्र के लेबर कोड को नोटिफाई करने के बावजूद, अधिकतर प्रोविजन अभी भी जमीन पर लागू नहीं हो पा रहे हैं। इसकी वजह यह है कि लेबर एक कॉन्करेंट सब्जेक्ट है यानी कंपनियों द्वारा उन पर एक्शन लेने से पहले राज्यों को अलग से नियमों को नोटिफाई और लागू करना होगा। जब तक राज्य ऐसा नहीं करते, कंपनियां कोई ठोस कदम उठाने से बचती हैं और कर्मचारी सिर्फ इंतजार करते रह जाते हैं।
EPFO News: छूटे कर्मचारियों को PF लाभ देने की तैयारी, ईपीएफओ ने शुरू की नई योजना
ग्रेच्युटी रिफॉर्म
नए लेबर कोड के तहत, केंद्र ने ग्रेच्युटी फ्रेमवर्क में एक बड़े रिफॉर्म का प्रस्ताव रखा। पहली बार, फिक्स्ड-टर्म कर्मचारियों को एक वर्ष की सर्विस पूरी करने के बाद ग्रेच्युटी बेनिफिट देने का वादा किया गया।
NPS के नियमों में बदलाव: अब अकाउंट से निकाल सकते हैं पूरा पैसा; ये हैं नियम और शर्तें
जनसत्ता की सहयोगी फाइनेंशियल एक्सप्रेस के अनुसार, लेबर मिनिस्ट्री ने कहा, ‘कोड के सेक्शन 53 के तहत, सरकार ने फिक्स्ड टर्म कर्मचारियों (FTEs) के लिए ग्रेच्युटी की एलिजिबिलिटी की जरूरत को 5 वर्ष से घटाकर एक वर्ष कर दिया है। अगर कर्मचारी लगातार एक साल की सर्विस पूरी करता है, तो ग्रेच्युटी उसी हिसाब से लागू होगी।’
मौजूदा नियमों के तहत, ग्रेच्युटी एलिजिबिलिटी लगातार 5 साल की सर्विस के बाद ही शुरू होती है, यह एक ऐसी लिमिट है जिसे कई कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारी कभी पार नहीं करते।
हालांकि, केंद्र ने कोड को नोटिफाई कर दिया है, लेकिन राज्यों ने अभी तक अपने नियम जारी नहीं किए हैं, जिससे कंपनियों के लिए नए नियम को लागू करना मुश्किल हो गया है। नतीजतन, ज्यादातर एम्प्लॉयर कानूनी उलझन और कम्प्लायंस रिस्क के डर से पुराने पांच साल के नियम को जारी रखे हुए हैं। कर्मचारियों के लिए, इससे अनाउंसमेंट और असलियत के बीच एक गैप पैदा हो गया है।
क्यों पीछे हट रही हैं कंपनियां?
प्राइवेट सेक्टर की कंपनियों में HR और कंप्लायंस टीमें इंतजार करो और देखो का तरीका अपना रही हैं। राज्य के नोटिफिकेशन के बिना, कंपनियों को डर है कि जल्दी लागू करने से उन्हें विवाद, ऑडिट या पिछली देनदारियों का सामना करना पड़ सकता है। आसान शब्दों में कहें तो, सिर्फ एक सेंट्रल घोषणा काफी नहीं है। राज्यों को एलिजिबिलिटी की शर्तें, कैलकुलेशन के तरीके, मौजूदा कॉन्ट्रैक्ट पर लागू होना, और कंप्लायंस ये साफ करने की जरूरत है।
जब तक यह फ्रेमवर्क साफ़ नहीं हो जाता है, अधिकतर ऑर्गनाइजेशन इंटरनल गाइडलाइन जारी करने या एम्प्लॉयमेंट कॉन्ट्रैक्ट में बदलाव करने से हिचकिचा रहे हैं।
राज्य नोटिफिकेशन में क्यों कर रहे हैं देरी?
जनसत्ता की सहयोगी फाइनेंशियल एक्सप्रेस के अनुसार, यह देरी पूरी तरह से अनएक्सपेक्टेड नहीं है। लेबर रिफॉर्म पॉलिटिकली सेंसिटिव हैं और राज्य लोकल इंडस्ट्री और MSMEs पर असर, एडमिनिस्ट्रेटिव तैयारी और ट्रेड यूनियन के विरोध जैसे कई फैक्टर्स पर विचार कर रहे हैं।
मौजूदा राज्य लेबर फ्रेमवर्क के साथ अलाइनमेंट
कुछ राज्यों ने ड्राफ्ट नियम जारी कर दिए हैं, जबकि दूसरे अभी भी कंसल्टेशन मोड में हैं। जब तक फाइनल नोटिफिकेशन जारी नहीं हो जाते, लेबर कोड एक्शन से ज्यादा इंटेंट के तौर पर मौजूद हैं।
क्या है प्राइवेट सेक्टर के कर्मचारियों के लिए इसका मतलब?
कर्मचारियों के लिए पॉलिसी की घोषणा और उसे लागू करने के बीच का अंतर निराशाजनक है। एक साल के ग्रेच्युटी नियम के वादे ने उम्मीदें बढ़ा दी हैं, लेकिन अभी तक कोई कानूनी अधिकार नहीं बनाया गया है। जब तक राज्य नियम नोटिफाई नहीं करते, कंपनियों को एक साल बाद ग्रेच्युटी देने की ज़रूरत नहीं है और मौजूदा नौकरी की शर्तें लागू रहती हैं। कानूनी तौर पर लागू करना अभी भी साफ नहीं है और असल में, पुराना सिस्टम डिफॉल्ट रूप से जारी है।
