कई लोगों का सपना होता है कि वह अपना खुद का रेस्टोरेंट शुरू करें और एक बेहतर तरीके से चलाएं, लेकिन Bengaluru के एक 22 वर्षीय युवक के लिए यह सिर्फ एक महीने की कहानी बन कर रह गया। शुरुआती जोश और उम्मीदों के बावजूद, उसे सही लोकेशन, इन्वेंट्री और ग्राहक व्यवहार की जटिलताओं का सामना करना पड़ा। ज्यादा मेहनत, कम कमाई और थकान ने उसे यह सिखाया कि खाना बेचने से पहले यह समझना जरूरी है कि आपका ग्राहक कौन है…
सपना VS रियालिटी
बेंगलुरु के एक 22 वर्षीय व्यक्ति ने रेडिट पर लिखा, ‘मैं लगभग 6 महीने तक एक दुकान ढूंढ़ने के लिए भटकता रहा और दिन-रात भटकने के बाद आखिरकार मुझे वह दुकान मिल ही गई जहां से लोगों को अच्छी तरह दिखाई देता था, जैसा कि मैं चाहता था, लेकिन दुकान उसके किराए (जो 30,000 प्रति माह था) के मुकाबले बहुत छोटी थी।’
उन्होंने ट्रेवल टाइम को कम करने के लिए पास में ही एक घर किराए पर लिया और दो महीने खाना पकाने के बर्तन खरीदने और दुकान के होर्डिंग छपवाने में बिताए। दुकान मई 2025 में खुली और शुरुआती बिक्री लगभग ₹2,000-₹2,500 प्रति दिन थी।
उन्होंने कहा, ‘यह एक अच्छा एहसास था कि इतने महीनों के बाद, हम जो करना चाहते थे, वह आखिरकार शुरू हो गया।’ हालांकि, जगह चुनना चुनौतीपूर्ण साबित हुआ। उनकी दुकान के सामने एक लोकप्रिय स्थानीय भोजनालय में भारी भीड़ उमड़ती थी, लेकिन छात्रों से भरी भीड़ ने क्वालिटी भोजन की बजाय सस्ते और भरपेट भोजन को प्राथमिकता दी।
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बंद करना पड़ा दुकान
उन्होंने सुबह 4:00 बजे से शुरू होकर रात 11:00 बजे के बाद समाप्त होने वाले थकाऊ शेड्यूल और इससे उनके स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव का वर्णन किया। उन्होंने लिखा, ‘मुझे रोज़ाना सुबह 4:00 बजे उठना पड़ता है और रात 9:00 बजे तक यही कार्यक्रम दोहराना पड़ता है। मुझे दुकान में बैठना पड़ता है, जहां बिक्री मुश्किल से होती है।’ उन्होंने बताया कि 20 दिनों में उनका वजन 4 किलो कम हो गया।
ऐसे में उन्होंने और उनके भाई ने 5 जून, 2025 को रेस्टोरेंट बंद करने का फैसला किया। बचे हुए सामान को दोबारा बेचने के लिए 15 किमी दूर एक अलग किराए की दुकान में ले जाना पड़ा। उन्होंने लिखा, ‘हम भीड़ के पीछे भागे, यह जानने के बजाय कि यह किस तरह की भीड़ है और हम किसे खाना खिलाना चाहते हैं।’
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उन्होंने आगे कहा, ‘अगर कभी आपका मन पैसे बर्बाद करने का करे, तो बस एक रेस्टोरेंट खोल लीजिए। पैसे गंवाने का सबसे आसान तरीका है मेजों पर – या तो जुआ खेलना या रेस्टोरेंट चलाना।’
(यह कहानी एक सोशल मीडिया यूजर द्वारा शेयर की गई पोस्ट पर आधारित है। यहां डिटेल, राय और कथन पूरी तरह से मूल पोस्टकर्ता के हैं और जनसत्ता के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं। हमने स्वतंत्र रूप से दावों की पुष्टि नहीं की है।)