केंद्रीय बैंक के भंडार पर आज सरकार डाका डालते दिख रही है, मगर 25 साल पहले जब शायद अपने इतिहास में पहली बार रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) घाटे के कगार पर था, तब सरकार अपने बजट से पैसा देने को तैयार हो गई थी। ‘संयुक्त परिवार’ के दृष्टिकोण की यह कहानी RBI सेंट्रल बोर्ड के पिछले निदेशकों के छोटे समूह में साझा होती रही है। आज जब रिजर्व बैंक भंडार के अधिकतम स्तर पर चर्चा हो रही है, तब इसकी प्रासंगिकता बढ़ जाती है। जून 1994 में, अपनी बैलेंस शीट तैयार करते वक्त RBI को एहसास हुआ कि वह 1975 से बैंकों द्वारा दी जा रही विदेशी मुद्रा जमा योजना पर विनिमय हानि देयता दे पाने में अक्षम है। एक सूत्र ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ”RBI की बैलेंस शीट लाल होने वाली थी। यह एक शर्मनाक स्थिति हो सकती थी।”
इस योजना को विदेशी मुद्रा गैर-प्रत्यावर्तन जमा योजना या FCNR-A कहा जाता था। इसे पूंजी प्रवाह आकर्षित करने और चालू खाते में वित्त घाटा कम करने हेतु लाया गया था। सरकार द्वारा प्रोत्साहित किए जाने पर, बैंकों ने स्थानीय जमा के मुकाबले ज्यादा ब्याज देना शुरू कर दिया। 1980 के दशक में इस योजना में पैसा बढ़ता गया। यहां जमा राशि पर एक्सचेंज गारंटी देने को केंद्रीय बैंक तैयार हो गया था। तब RBI ने भविष्य के बारे में ज्यादा नहीं सोचा था। सीधा सा तर्क था: विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर्स बढ़ रहे थे, जब रुपया गिरा तो पुनर्मूल्यांकन हुआ। पुनर्मूल्यांकन से हुए फायदा मूल रकम की वापसी के दौरान हुए घाटे को पूरा करने के लिए उपलब्ध था। FCNR-A जमा पर ब्याज की रकम विदेशों में निवेश किए गए डॉलर्स से होने वाली आय से जुटाई जानी थी।
असल में, जब तक डॉलर RBI के साथ रहता, यह ‘नो लॉस, नो गेन’ वाली योजना थी। लेकिन अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में भारत भुगतान संकट के संतुलन से गुजरा। तब की हलचलों से वाकिफ सूत्रों के अनुसार, विदेशी मुद्रा संपत्तियां तेजी से घटने लगीं। यहां तक कि स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के साथ एक अलग विनिमय व्यवस्था के तहत 1991 में 1.1 बिलियन डॉलर की संपत्तियां बेच दी गईं। 1991 से 1994 तक हुए नुकसान को विदेशी मुद्रा समकरण खाता और RBI के आकस्मिक भंडार से पूरा किया गया। 1994 तक, यह दोनों भंडार पूरी तरह खाली हो चुके थे और FCNR-A योजना के तहत 10 बिलियन डॉलर्स की डॉलर देयता के विनियम घाटे को पूरा करने का कोई रास्ता नहीं बचा था।
FCNR-A की देयता में 5 बिलियन डॉलर की मूल रकम और 5 बिलियन डॉलर का ब्याज शामिल था। यह डॉलर 16 रुपये प्रति डॉलर की दर में खरीदे गए थे। 1994 में एक्सचेंज रेट लगभग दोगुना (31.37 रुपये) था, यानी RBI को हर डॉलर पर 15 रुपये का नुकसान उठाना था। कुल नुकसान 1,500 करोड़ रुपये तक पहुंच गया।
जब द इंडियन एक्सप्रेस ने तब वित्त सचिव रहे मोंटेक सिंह अहलूवालिया से संपर्क किया तो उन्होंने कहा कि उन्हें यह हालात याद हैं मगर ‘संयुक्त परिवार’ जैसे दृष्टिकोण की डिटेल्स याद नहीं। उस समय, मनमोहन सिंह वित्त मंत्रालय का जिम्मा देख रहे थे। सी. रंगराजन तब RBI गवर्नर थे और शंकर आचार्य मुख्य आर्थिक सलाहकार हुआ करते थे।
RBI बोर्ड के एक पूर्व सदस्य ने कहा, “मुझे लगता है कि बैंगलोर में एक बोर्ड मीटिंग हुई थी जिसमें शीर्ष अधिकारियों ने कोई हल निकालने पर मंथन किया था। वित्त मंत्रालय के बजट डिविजन के जानकी कठपालिया और RBI के डिप्टी गवर्नर के बीच बातचीत से एक सरल उपाय सामने आया था। RBI के खातों को वास्तविक आधार पर रखा गया था, जबकि सरकारी खातों को नकद आधार पर।”
बोर्ड सदस्य ने कहा, “यह तय हुआ कि 1994 से, FCNR-A योजना से होने वाले सभी नुकसान की भरपाई सरकार नकदी से करेगी। यानी योजना के तहत उसी साल बेचे गए असल डॉलर का पैसा सरकार देगी तजाकि बैंक अपने डॉलर ऑउटफ्लो से पार पा सकें। इससे RBI की लेखांकन नीति में जरूरी संचय आधार पर विनिमय हानि के प्रावधान की जरूरत नहीं होगी। RBI हर साल इस देयता की पूर्ति के लिए सरकार को अतिरिक्त मुनाफा ट्रांसफर करने में सहमत हो गया।”
1994-95 के बजट में सरकार ने FCNR-A से हुए नुकसान की भरपाई के लिए 365 करोड़ रुपये का प्रावधान किया था। अहलूवालिया ने कहा कि उसके बाद से, सरकार ने तय किया कि विनिमय जोखिम RBI की बजाय बैंकों द्वारा वहन किया जाना चाहिए। 1994 में लॉन्च की गई FCNR-B योजना के तहत बैंकों ने विनिमय जोखिम उठाया।