मूल्य स्थिरता को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक में बहुमत है। हालांकि, सतत विकास के लिए यह बहुमत उसने अन्य केंद्रीय बैंकों के साथ जुड़ कर हासिल किया है। इसलिए यह तभी मददगार हो पाता है, जब आरबीआइ अर्थव्यवस्था के विकास के लिए अपना एक रास्ता तैयार करता है- यह ऐसा कर्तव्य है जो राजनीतिक लक्ष्यों पर केंद्रित मौजूदा सरकार द्वारा अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है।
अब तक उपलब्ध तमाम जानकारियां विश्व अर्थव्यवस्था और भारत में धीमी वृद्धि के दौर की ओर इशारा करती हैं। आरबीआइ के बुलेटिन (जुलाई 2023) में अर्थव्यवस्था की स्थिति पर प्रकाशित निबंध में विश्व अर्थव्यवस्था का जिक्र करते हुए स्वीकार किया गया है कि- ‘‘वैश्विक विकास की गति रुकी प्रतीत होती है, विशेष रूप से विनिर्माण और निवेश। अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर भी इसका असर दिख रहा है। मजबूत औद्योगिक और व्यापार नीतियों के जरिए आपूर्ति शृंखलाओं की पुन: स्थापना की जरूरत महसूस की जा रही है। एक बार फिर, दुनिया के घटक अलग-अलग राह पर चल पड़े हैं…’’
भारतीय अर्थव्यवस्था को लेकर, बुलेटिन में प्रगति और उपलब्धियों को सूचीबद्ध किया गया है: उन्नत बुनियादी ढांचा, डिजिटलीकरण, सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता, सेवाओं का निर्यात, अनुकूल जनसांख्यिकी, उत्साहजनक इक्विटी बाजार, आदि। हालांकि हर शीर्षक के तहत कुछ दावे सही हैं। बुलेटिन में आर्थिक गतिविधियों में क्रमिक नरमी, उच्च बेरोजगारी दर, मनरेगा के तहत काम की मांग में बढ़ोतरी, विनिर्माण निर्यात में संकुचन, राजस्व व्यय में संकुचन, शुद्ध कर संग्रह में गिरावट, सीपीआइ (और खाद्य) मुद्रास्फीति में वृद्धि, घरेलू और कार्पोरेट बांड के मामले में मुश्किलें और मुद्रास्फीति के खिलाफ अंतहीन लड़ाई को भी नोट किया गया है।
हालांकि उतार-चढ़ाव हमेशा होते हैं। बावजूद इसके, मिश्रित तस्वीर उभरती है। भारत की जीडीपी (स्थिर मूल्यों पर) ने हर साल- 2004-2009 की पांच साल की अवधि के दौरान 8.5 फीसद और 2004-2014 की दस साल की अवधि के दौरान 7.5 फीसद की- औसत वृद्धि दर हासिल की। इसके विपरीत, नौ साल की अवधि- 2014-2023 में प्रति वर्ष औसत विकास दर 5.7 फीसद रही है।
औसत विकास दर में गिरावट क्यों आई? उदारीकरण और बाजारोन्मुख नीतियों के शुरुआती वर्षों में विकास दर को बढ़ावा मिलता है। स्टेरायड- प्रोत्साहन पैकेज- विकास दर को बढ़ावा देने में मदद करते हैं। वैश्विक वित्तीय संकट और महामारी से निपटने के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में अपनाई गई अपरंपरागत मौद्रिक नीतियों का लाभ भारत जैसे विकासशील देशों को मिल रहा है। हालांकि, सामान्य दिनों में, संरचनात्मक कमियों को दूर करने के उपायों पर ध्यान देकर ही उच्च आर्थिक विकास को सुनिश्चित किया जा सकेगा।
मेरे विचार से, वर्तमान सरकार ने अर्थव्यवस्था की कुछ बुनियादी कमजोरियों को नजरअंदाज कर दिया है। उनमें से चार यहां उल्लेखनीय हैं :
कम श्रम भागीदारी दर और उच्च बेरोजगारी : भारत की कामकाजी उम्र की आबादी (15 वर्ष और अधिक) कुल आबादी का लगभग 61 फीसद होने का अनुमान है- यानी 84 करोड़। 2036 के बाद इसमें गिरावट आएगी। जिस ‘जनसांख्यिकीय लाभांश’ का जश्न मनाया गया, उसका जीवनकाल छोटा है।
सबसे बड़ी समस्या श्रम भागीदारी दर (LPR) है
सबसे बड़ी समस्या श्रम भागीदारी दर (LPR) है। जून 2023 में, यह 40 फीसद से नीचे गिर गई (चीन की एलपीआर 67 फीसद के मुकाबले)। महिला एलपीआर 32.8 फीसद पर बदतर स्थिति में है। कामकाजी उम्र की 60 फीसद आबादी (पुरुष और महिलाएं) और 67.2 फीसद महिलाएं काम क्यों नहीं कर रही हैं या रोजगार की तलाश में क्यों नहीं हैं? अब, एलपीआर पर 8.5 फीसद की बेरोजगारी दर लागू करें। (15 से 24 वर्ष आयुवर्ग की बेरोजगारी दर 24 फीसद है)।
फिर आपको अप्रयुक्त मानव संसाधनों की विशालता का अंदाजा हो जाएगा। अगर 60 फीसद लोग काम करने में सक्षम या इच्छुक नहीं हैं, तो जीवन प्रत्याशा में वृद्धि और शिक्षा के प्रसार का कोई मतलब नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था चार में से दो पहियों पर चल रही है।
शिक्षा की गुणवत्ता : शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) एक राष्ट्रव्यापी घरेलू सर्वेक्षण है, जो अन्य बातों के अलावा, ग्रामीण भारत में बच्चों के सीखने के नतीजों को भी शामिल करता है। एएसईआर 2022 लगभग सभी ग्रामीण जिलों तक पहुंचा। यहां पढ़ने, अंकगणित और अंग्रेजी में सीखने के स्तर पर निष्कर्षों का सारांश निम्नवत है
राज्यों के बीच भी भारी भिन्नताएं हैं। भारत में स्कूली शिक्षा की औसत अवधि 7-8 वर्ष है। अगर संख्यात्मकता और साक्षरता में हमारे बच्चों के सीखने के ये परिणाम हैं, तो हम अपने बच्चों को कैसे पढ़ाएं और उन्हें ऐसी नौकरियों/ जिम्मेदारियों को लेने के लिए कौशल प्रदान करें, जिनके लिए उच्च स्तर की शिक्षा और प्रौद्योगिकी की आवश्यकता होती है?
कृषि में कम उत्पादकता : आर्थिक सर्वेक्षण 2022-23 के अनुसार, भारत में चावल का उत्पादन 2718-3521 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर था, जबकि गेहूं की उपज 3507 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर थी। चीन की प्रति हेक्टेयर उपज (2022) कथित तौर पर 6500 किलोग्राम चावल और 5800 किलोग्राम गेहूं थी। भारत चावल और गेहूं का निर्यातक बन गया है, इससे आत्मसंतुष्टि हो सकती है। मगर आगे चलकर, जलवायु परिवर्तन, शहरों की ओर पलायन, शहरीकरण, पानी की उपलब्धता और बढ़ती इनपुट लागत का मतलब यह होगा कि, अगर खेती एक सार्थक और लाभदायक गतिविधि बनी रहनी चाहिए, तो प्रति हेक्टेयर उत्पादकता बढ़नी चाहिए।
मुद्रास्फीति और ब्याज दरें : भारतीय उद्योग उच्च मुद्रास्फीति, उच्च ब्याज दरों (उधार देने के कथित उच्च जोखिम के कारण) और उच्च शुल्कों के बीच जीवित रहने के लिए प्रतिस्पर्धा कर रहा है। इन सभी से सख्ती से निपटा जाना और इन्हें कम किया जाना चाहिए।
आपने माननीय प्रधानमंत्री या संबंधित मंत्रियों को इन संरचनात्मक कमियों पर बोलते हुए कब सुना? कभी नहीं?
क्या हम चाहते हैं कि भारत की अर्थव्यवस्था 7.5 फीसद से अधिक की दर से बढ़े ताकि हम एक मध्यम आय वाला देश बन सकें या क्या हम 5-6 फीसद की दर से आगे बढ़ना चाहते हैं और दावा करना चाहते हैं कि भारत दुनिया में सबसे तेजी से बढ़ती बड़ी अर्थव्यवस्था है? अंतिम बात ‘अंधों में काना राजा’ होने जैसी है।