मोदी सरकार और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) के बीच पिछले कुछ महीनों में विभिन्न मसलों पर गंभीर मतभेद उभर कर सामने आए हैं। अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के लिए सरकार और आरबीआई के नजरिये में भी साफ अंतर दिखा है। नोटबंदी के बाद जीएसटी लागू होने से आर्थिक स्थितियां और जटिल हो गई हैं। दूसरी तरफ, बैंकों पर जोखिम वाले कर्ज (एनपीए) के बढ़ते बोझ को लेकर भी सरकार और आरबीआई के बीच मतभेद हैं। इसके अलावा केंद्रीय बैंक की ओर से केंद्र को दिए जाने वाले डिविडेंड को लेकर भी अभी तक असमंजस की स्थिति बनी हुई है। वित्तीय गड़बड़ियों को लेकर न्यूज एजेंसी ‘ब्लूमबर्ग’ में लिखे एक लेख में फायनेंस मामलों के विशेषज्ञ एंडी मुखर्जी ने पांच ऐसी वजहें बताई हैं, जिनके लिए सरकार आरबीआई को जवाबदेह नहीं ठहरा सकती है।
जीएसटी का क्रियान्वयन: वस्तु एवं सेवा कर (GST) को 1 जुलाई, 2017 में लागू किया गया था। इसमें 75 लाख रुपए या उससे ज्यादा की टर्नओवर वाली कंपनियों के लिए महीने में तीन बार रिटर्न भरने की व्यवस्था की गई थी। नई कर व्यवस्था के लागू होने के तकरीबन 1 महीने बाद 7 फीसद करदाता इस प्रावधान को पूरा करने में विफल रहे थे। इसके लिए तकनीकी दिक्कतों को जिम्मेदार ठहराया गया था। मौजूदा समय में तकनीकी समस्याओं को भी काफी हद तक दूर कर लिया गया है और टर्नओवर की सीमा को भी 33 फीसद तक बढ़ा दिया गया है। साथ ही रिटर्न दाखिल करने की प्रक्रिया को भी तुलनात्मक रूप से सरल बनाया गया है। इसके बावजूद रिटर्न दाखिल न करने वाले करदाताओं की तादाद तकरीबन 29 फीसद तक पहुंच गई है। हाल में ही मोदी सरकार के एक फैसले से कई छोटे उद्योग रिटर्न दाखिल करने के दायरे से ही बाहर हो गए हैं।
पावर सेक्टर की खस्ता हालत: पावर सेक्टर की वित्तीय स्थिति खतरानाक स्तर तक पहुंच चुकी है। विभिन्न राज्यों की सरकारी बिजली वितरण कंपनियों पर कुल 4.3 लाख करोड़ रुपए का लोन बकाया है। ऐसे में हालात बेहद खतरनाक हो चुके हैं। मुफ्त बिजली देने की घोषणाओं से हालात और बदतर हुए हैं। मौजूदा स्थिति को देखते हुए सरकार को बिजली कंपनियों का लोन बुक जल्द से जल्द दुरुस्त करना होगा, नहीं तो आने वाले समय में बिजली वितरण कंपनियों की स्थिति और खस्ता हो जाएगी।
अंधाधुंध सरकारी खर्च: सरकार के स्तर पर अंधाधुंध खर्च किए जाने से माली हालत ज्यादा बिगड़ गई है। विभिन्न राज्य सरकारें अनेक मदों में सब्सिडी दे रही हैं। इससे उनका वित्तीय घाटा लगातार बढ़ रहा है। हालांकि, पिछले कुछ दिनों में तेल और गैस की कीमतों की गिरावट से मामूली राहत जरूर मिली है, बावजूद इसके राज्यों का वित्तीय घाटा केंद्र द्वारा तय सीमा से ज्यादा है। बता दें कि इंफ्रास्ट्रक्चर को दुरुस्त करने के बजाय इन दिनों राज्यों के बीच हजारों करोड़ रुपए का किसानों का कर्जा माफ करने की होड़ लगी हुई है। अब प्रति एकड़ राष्ट्रव्यापी सब्सिडी देने की बात चलने लगी है। एक आकलन के अनुसार, ऐसा होने से जीडीपी पर 1.3 फीसद तक का बोझ पड़ सकता है।
‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का स्लोगन भी फेल: नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 के चुनाव प्रचार के दौरान ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ का नारा दिया था। मतलब सरकारी हस्तक्षेप को कम करने का वादा किया गया था। लेकिन, मोदी सरकार के साढ़े चार साल से ज्यादा का वक्त बीतने के बावजूद निजीकरण के क्षेत्र में कोई खास प्रगति नहीं हुई है। सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र की एक कंपनी की हिस्सेदारी दूसरी सरकारी कंपनियों को बेचा गया।
नीतियां बनाने में भी लचर: नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद देश में उद्योग-धंधों को लेकर अनुकूल माहौल बनने की उम्मीद जताई गई थी। नीतिगत स्तर पर भी बिजनेस के हित में कदम उठाए जाने का भरोसा था। मोदी सरकार इस मोर्चे पर भी ज्यादा सफल नहीं रही। यही वजह है कि विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो सकी। ‘टैक्स टेरर’ को खत्म करने की बात कही गई थी, लेकिन स्टार्टअप्स को अभी भी गंभीर दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।