एमडीएच मसालों के चेयरमैन धर्मपाल गुलाटी को गणतंत्र दिवस के मौके पर पद्मभूषण से सम्मानित किया गया है। सिर्फ 10 साल की उम्र से काम करने वाले धर्मपाल गुलाटी को आज उनके मसालों की वजह से भारत के अलावा विदेशों में भी जाना जाता है। अब भारत सरकार उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित करेगी। इस सम्मान की घोषणा होने के बाद उन्होंने कहा कि, ‘मैंने बड़ी मेहनत की है। हालांकि मुझे पता नहीं था कि ये ( पद्मभूषण सम्मान) मुझे मिलना है’। एनडीटीवी से खास बातचीत में उन्होंने अपने सफल बिजनैस और उम्र के बारे में कई बातें कहीं। उन्होंने कहा कि, ‘आदमी मेहनती बने और मीठा बोले, प्यार से सब मिल जाता है। जब तक आदमी ईमानदार नहीं बनेगा, मेहनती नहीं होगा, मीठा नहीं बोलेगा, परमात्मा का आशीर्वाद नहीं होगा। मैंने परमपिता परमात्मा और माता-पिता का आशीर्वाद लिया। मैं सुबह 4 बजे उठता हूं और दो गिलास पानी पीता हूं, घूमने जाता हूं और घर आकर योगा करता हूं।’
धर्मपाल का महाशियां दी हट्टी से एमडीएच बनने तक की एक दिलचस्प कहानी है। यह भी सच है कि अगर देश का बंटवारा नहीं हुआ होता तो शायद ये मसाले की कंपनी न होती। करीब 100 देशों में अपने मसालों से लोगों के मुंह का जायका बनाने वाले धर्मपाल गुलाटी पर विदेशी मीडिया में भी खूब लिखा गया है। धर्मपाल गुलाटी के पिता चुन्नी लाल गुलाटी ने सियालकोट के बाजार पंसारियां में (जोकि अब पाकिस्तान में है) 8 मार्च 1919 को महाशियां दी हट्टी के नाम से मसालों की दुकान खोली थी। धर्मपाल गुलाटी ने बहुत ही कम उम्र में काम करना शुरू कर दिया था। उन्होंने 10 वर्ष की उम्र में पांचवी परीक्षा देने से पहले ही स्कूल छोड़ दिया था।
वॉल स्ट्रीट जरनल को दिए गुलाटी के एक पुराने इंटरव्यू के मुताबिक, ”1947 में देश का बंटवारा हुआ, लोग पलायन करने लगे और धार्मिक हिंसा की खबरें फैलने लगीं तो असुरक्षा का डर सताने लगा। हमें पता था कि अब अपना घर छोड़ने का वक्त आ गया है। 7 सितंबर 1947 को परिवार समेत अमृतसर के शरणार्थी शिविर में आया। मैं तब 23 साल का था। काम की तलाश में दिल्ली आया। हमें लगा कि दंगा पीड़ित इलाकों से अमृतसर काफी पास था। दिल्ली पंजाब से सस्ता भी लगा। करोलबाग स्थित भांजे के बिना पानी, बिजली और शौचालय वाले फ्लैट में रहे। दिल्ली आते वक्त पिता ने 1500 रुपये दिए थे, उनमें से 650 रुपये का तांगा खरीदा। कनॉट प्लेस से करोल बाग तक एक बार का 2 आना किराया लेता था।
कम आय के कारण परिवार का भरण-पोषण कठिन हो गया। ऐसे भी दिन आते थे जब सवारी नहीं मिलती थी। पूरे दिन चिल्लाते थे और लोगों का अपमान झेलते थे। तांगा बेचकर परिवार का व्यवसाय अपना लिया। अजमल खान रोड पर मसालों की एक छोटी सी दुकान खोल ली। दिन बहुरे, दुकान चल निकली और दाल-रोटी की समस्या नहीं रही। सियालकोट के मसाले वाले के नाम से मशहूर होने लगे। दिल्ली में एमडीएच साम्राज्य की नींव रखी। 1953 में चांदनी चौक में एक और दुकान किराये पर ली और 1959 में कीर्ति नगर में एक प्लाट खरीदकर अपनी फैक्ट्री शुरू की। जैसे-जैसे कारोबार बढ़ रहा था वैसे-वैसे दिल्ली भी बढ़ रही थी। तांगा वाले दिन और पाकिस्तान का बचपन वाला घर यादा आता है लेकिन दिल्ली अब हमारा घर है।”