पूरी दुनिया में कुछ साल में जलवायु में तेजी से बदलाव हो रहा है। गर्मियां लंबी हो रही हैं, और सर्दियां छोटी। तापमान और मौसम चक्र में आ रहे बदलाव के कारण फसलें उगाने में मुश्किलें आ रही हैं, जिससे खाद्यान्न सुरक्षा का खतरा बढ़ रहा है। एक ताजा अध्ययन में पता चला है कि मोटे अनाज जलवायु परिवर्तन के प्रति कम संवेदनशील होते हैं। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के कारण खाद्य आपूर्ति की समस्या से निपटने में मोटे अनाज अच्छे विकल्प साबित हो सकते हैं। चावल जैसी खाद्यान्न फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति अधिक संवेदनशील होती हैं। जलवायु परिवर्तन के कारण चावल और चावल जातीय अन्य अनाजों की उपज में कमी हो रही है।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी, इंडियन बिजनेस स्कूल और आइआइटी-मुंबई ने भारत में 1966 से लेकर 2011 तक फसलों की पैदावार के आंकड़ों का अध्ययन किया। विभिन्न इलाकों में पैदावार के बारे में जानने की कोशिश की गई कि जलवायु परिवर्तन का उपज पर क्या असर पड़ा है। पाया गया कि मानसूनी बरसात में कमी आई है। दैनिक बारिश भी कम हुई है। सूखे की आवृत्ति बढ़ी है। भारत में अध्ययन के लिए जिला स्तरीय फसल उत्पादन और जलवायु संबंधी आंकड़े इक्रीसैट और मौसम विभाग से प्राप्त किए गए। प्रत्येक जिले की पांच फसलों की जलवायु के प्रति संवेदनशीलता का मूल्यांकन किया गया है।
अध्ययन में पता चला कि धान की तुलना में मोटे अनाज जैसे रागी, मक्का, बाजरा और ज्वार की फसलें जलवायु परिवर्तन के प्रति कम संवेदनशील होती हैं। मोटे अनाजों की तुलना में धान की पैदावार बारिश के कम-ज्यादा होने से अधिक प्रभावित होती है। ऐसे में मोटे अनाजों को अधिक उगाने से खाद्य आपूर्ति शृंखला बनाए रखने में मदद मिल सकती है। वर्तमान में कुल वार्षिक अनाज उत्पादन में चावल का हिस्सा 44 फीसद है और खरीफ के मौसम में कुल खाद्यान्न पैदावार में 73 फीसद चावल शामिल है। खरीफ के दौरान शेष 27 फीसद अनाज पैदावार में मक्का (15 फीसद), बाजरा (आठ फीसद), ज्वार (2.5 फीसद) और रागी (1.5 फीसद) शामिल हैं।
कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रमुख अध्ययनकर्ता काइल फ्रैंकेल डेविस के मुताबिक, ‘बाजरा, ज्वार और मक्का जैसे मोटे अनाज चरम जलवायु परिस्थितियों के साथ अनुकूलन स्थापित कर सकते हैं। इसी कारण अन्य अनाजों की तुलना में उनकी पैदावार में गिरावट बहुत कम दर्ज की गई है। जबकि, चावल जैसी प्रमुख खाद्यान्न फसल पर जलवायु परिवर्तन का गहरा असर पड़ने से पैदावार में भारी गिरावट देखी गई है। इससे भारत में चावल पर निर्भर खाद्य आपूर्ति प्रभावित हो सकती है।’
अध्ययनकर्ताओं में शामिल इंडियन बिजनेस स्कूल, हैदराबाद के अश्विनी छत्रे ने कहा, ‘खाद्य उत्पादन को जलवायु परिवर्तन से पूरी तरह सुरक्षित रखना मुश्किल है। किसानों को जलवायु के अनुकूल अनाज उत्पादन की ओर स्थानांतरित करने के लिए प्रोत्साहित करना इस दिशा में एक आसान पहल हो सकती है। जिस तरह चावल का उत्पादन बढ़ाने के लिए सार्वजनिक नीति और सार्वजनिक खरीद पर अमल किया गया, उसी तरह हम इसका उपयोग अनाज उत्पादन में विविधता लाने के लिए भी कर सकते हैं।’
आईआईटी, मुंबई में पृथ्वी प्रणाली विज्ञान के प्रोफेसर रघु मुतुर्गुडे का मानना है कि हमारे यहां लोगों की अनाज को लेकर पसंद बहुत मायने रखती है। इसी कारण कृषि का सामाजिक-आर्थिक कारकों और बाजार के साथ गहरा संबंध है। केवल चावल उगाने वाले समृद्ध किसानों की तुलना में यदि गरीब और निर्धन किसान मोटे अनाजों को वैकल्पिक फसलों के तौर पर चुनते हैं तो राष्ट्रीय स्तर पर इन अनाजों की पसंद और उपज स्थायित्व कैसे बढ़ेगा? इसीलिए वर्षा की बदलती परिस्थितियों में मोटे अनाज की मिश्रित फसलें बेहतर विकल्प हो सकती हैं।’
