करीब पांच साल पहले सर्वोच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से हटा दिया था। उसके बाद समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग उठनी शुरू हो गई थी। देश की अलग-अलग अदालतों में बीस से ज्यादा याचिकाएं दायर हुईं। पिछले साल हैदराबाद के एक जोड़े ने एक याचिका दायर कर अपनी पसंद के समलिंगी व्यक्ति से शादी के अधिकार की गुहार लगाई। इस पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार का पक्ष जानना चाहा, तो उसने कहा कि समलैंगिक जोड़ों के वैवाहिक संबंध बनाने की तुलना भारतीय पारिवारिक इकाई से नहीं की जा सकती। इसमें न्यायिक हस्तक्षेप व्यक्तिगत कानूनों के नाजुक संतुलन को बर्बाद कर देगा।

मगर अदालत के इस रुख से समलैंगिकों को लगता है कि उनके मन की मुराद पूरी होने वाली है। अगर फैसला समलैंगिकों के हक में आता है, तो वे कानूनन आम आदमी की तरह, बगैर अपराधबोध के अपने समलिंगी साथी के साथ रह सकेंगे। यह बात दीगर है कि समाज में वे एक सम्मानित नागरिक की तरह रह सकेंगे या नहीं, यह आने वाला वक्त बताएगा। मगर वे यह भूल जाते हैं कि यौनकर्मियों को कानूनी संरक्षण मिलने के बाद महज पुलिस प्रताड़ना से उनका बचाव हुआ है, समाज में उनकी इज्जत में कोई इजाफा नहीं हुआ है।

समलैंगिक विवाह सृष्टि को आगे बढ़ाने में नहीं दे सकेंगे योगदान

समलैंगिक विवाह का मतलब है कि सृष्टि को आगे बढ़ाने में ऐसे जोड़ों का योगदान हमेशा शून्य ही रहेगा। गौरतलब है कि विपरीत लिंगी विवाहों से नए मानव की उत्पत्ति होना प्राकृतिक नियम है। यानी यह प्रकृति के नियमों के विपरीत कृत्य है। भारतीय परंपरा लोक और वेद के मुताबिक आगे बढ़ती है। इसमें प्रकृति, समाज, संस्कृति और स्वधर्म भी शामिल हैं।

खुला यौन संबंध, यौनाचार और अप्राकृतिक वासनापूर्ति के रिश्ते कभी किसी भी परंपरा का हिस्सा नहीं बन सकते। इसलिए समलैंगिकता और समलैंगिक शादियां स्वीकार नहीं हो सकतीं। हां, समाज के हर व्यक्ति को जीने का अधिकार बराबर मिलना चाहिए, लेकिन इस अधिकार का मतलब यह नहीं कि अप्राकृतिक, असामाजिक और अनैतिक कृत्य के लिए भी अधिकार मिलना चाहिए।

विवाह संस्कार सदियों से समाज का सबसे बेहतर कृत्य है

विवाह को (हिंदुओं की सभी जातियों में) संस्कार कह कर इसकी अहमियत बताई गई है। सदियों से विवाह संस्कार को समाज का सबसे बेहतर कृत्य माना गया है। यह नियम बना दिया गया कि बगैर विवाह के विपरीत लिंग के युवा स्त्री-पुरुष का एक साथ रहना सामाजिक और धार्मिक नियमों के खिलाफ है। इसलिए हमारे यहां समान लिंग में विवाह की कोई कल्पना ही नहीं है।

समाज में उस वक्त लोगों को हैरानी हुई, जब देश की सबसे बड़ी अदालत ने समलैंगिकता को पांच साल पहले मान्यता दे दी। जिन कारणों, कारकों, शारीरिक बनावटों या वैज्ञानिक नियमों का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध मुक्त कर दिया, उनके कई दर्जन कारण हो सकते हैं, समलैंगिकता को अप्राकृतिक, असामाजिक और अवैज्ञानिक साबित करने के। मगर समाज के जिम्मेदार संगठन या लोग इसे जायज ठहराने लगें, तो बहस-मुबाहिसे की गुंजाइश दिखने लगती है।

जिस देश में आज भी करोड़ों बच्चे भूख से तड़पते हों, सबके लिए बेहतर स्वास्थ्य की गारंटी अब भी एक सपना हो, जहां करोड़ों बेरोजगार रोजगार के लिए सड़कों पर धक्के खाने को मजबूर हों और उनके सपने किसी अंधेरी गुफा में गुम हो रहे हों, बंधुआ मजदूरी की वजह से लाखों जिंदगियां तबाह हो रही हों, जिस देश में महिला वर्ग अब भी खुद को तमाम वर्जनाओं में जकड़ा हुआ महसूस करता हो, लाखों बच्चों का बचपन कूड़ा बीनने में खप रहा हो, विचित्र है कि उस देश में तय किया जा रहा है कि स्वछंद यौनाचार, कामवासना की तृप्ति के लिए समलैंगिकों को विवाह का अधिकार मिलना चाहिए कि नहीं!

सवाल है कि बेहतर दुनिया बनाने की चाह रखने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि उनका इस तरह की विकृत स्थिति को जायज ठहराने का मतलब, कुप्रवृत्ति, कुकर्म, स्वछंद यौनाचार और विकृत काम वासना को ही जिंदगी का मकसद मानना है। वरना क्या वजह है कि देश के तमाम तथाकथित पहुरुए और संगठन इसके पक्ष और हक में अपनी आवाज बुलंद करते दिखाई दे रहे हैं।

बेहतर समाज निर्माण की बात करते-करते वे समाज को विकृति और स्वछंद असीमित यौनाचार को संविधान सम्मत साबित करने के लिए एड़ी-चोटी एक करने में लगे हैं। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि संविधान सम्मत प्रत्येक कार्य-व्यवहार और विचार अगर सभ्य समाज और इंसानियत के अनुरूप नहीं है, तो समाज में उसे कभी मान्यता नहीं मिल सकती। समाज में समलिंगी जोड़ों की हालत आने वाले वक्त में यौनकर्मियों से भी बदतर हो जाए, तो आश्चर्य नहीं।

पिछले कुछ सालों से समलैंगिकता के झंडाबरदार कहे जाने वाले, देश के तमाम नामचीन इतिहासकार, समाजकर्मी, फिल्म से जुड़ी हस्तियां और कुछ पत्रकार समलैंगिकता जिंदाबाद का नारा बुलंद करते हुए इसे संवैधानिक मान्यता देने की मांग करते नजर आए। कहा गया कि यह वैज्ञानिक नियम के ही अनुरूप नहीं है, बल्कि विकसित मानव सभ्यता का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। आमतौर पर समलैंगिकता को वैज्ञानिक और प्राकृतिक ठहराने के लिए पश्चिमी दुनिया के वैज्ञानिक रफगार्डन, पाल वाज, बूस, बागेमील और जोआन जैसे तमाम वैज्ञानिकों का हवाला दिया जाता है।

इन वैज्ञानिकों के अध्ययन का निष्कर्ष है कि मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों का नर-मादा का प्रेम स्वाभाविक नहीं है। इतना ही नहीं, जिर्राफ, तोते, बोनोबिटल जैसे जीवों में समलिंगी व्यवहार देखे गए हैं। प्रकृति में डेढ़ हजार प्रजातियों में समान लिंगियों में ‘होमोसेक्सुअलिटी’ पाई जाती है। गजब बात है। लाखों जीव-जंतुओं की प्रजातियों में महज डेढ़ हजार ‘होमोसेक्सुअल’ हैं, बाकी लाखों प्रजातियों में नर-मादा में ही यौन-व्यवहार होता है, उसे क्यों नजरंदाज कर दिया गया? ऐसी बातें जो आम आदमी के गले न उतरें, उन्हें विकृत वासना के समर्थक तथाकथित वैज्ञानिकता की चाश्नी में लपेट कर अपनी सहमति क्यों दे रहे हैं?
उन्होंने इतना भी गौर करना मुनासिब नहीं समझा कि उनका दांपत्य जीवन महज संतान पैदा करने के लिए है या उससे एक अद्भुत सुख भी उन्हें मिलता है? क्या वे अप्राकृतिक कृत्य के जरिए अपनी वासनाएं पूरी करते हैं? ऐसे लोग क्या बताएंगे कि अगर नर-नारी में स्वाभाविक आकर्षण नहीं है, तो दुनिया में बलात्कार की निन्यानवे फीसद घटनाएं नारी-वर्ग से ही ताल्लुक क्यों रखती हैं?

पश्चिमी वैज्ञानिकों का अध्ययन कितना सही है, यह गौर करने वाली बात है। क्योंकि वहां विकास के नाम पर सभी तरह की मानवीय संवेदनाओं को तहस-नहस करने का बहुत पुराना इतिहास है। अगर आकर्षण समान लिंगी में खोजा गया है, तो यह प्राकृतिक यथार्थ के खिलाफ एक चुनौती है, जिसे भारत में समलैंगिक विवाह को वैधता दिलाने के लिए बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पूरे दमखम के साथ लगा है।

विकास और विज्ञान दोनों जब विकृति को स्वाभाविक कृति के रूप में इस्तेमाल करने लगें तो, समलैंगिकता जैसी विकृत मनोदशा को प्राकृतिक साबित करने के लिए समलिंगी समाज के लोग सामान्य समाज की मान्यताओं को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने लगते हैं। समान लिंगी भोग से पैदा हुए एड्स के खतरनाक असर और इसके इतिहास को जो जानते हैं, वे समलैंगिकता का कभी समर्थन नहीं कर सकते। दूसरी बात, अगर इसे समाज में सहज स्वीकृति मिल जाए तो कल्पना करिए, मानव सृष्टि का नाश होने में बहुत वक्त नहीं लगेगा। हां, इतना जरूर होना चाहिए कि समलैंगिक जोड़ों को समाज की मुख्यधारा में स्थान भले न मिले, लेकिन जीवन जीने के प्राकृतिक और संवैधानिक अधिकारों से इन्हें वंचित भी नहीं किया जाना चाहिए।