भारत-पाकिस्तान सीमा पर भले ही सेना तैनात हो, मगर राजस्थान की पुलिस अभी तक हथियार चलाने की ट्रेनिंग ही ले रही है। जैसलमेर में पुलिस कर्मचारियों को ट्रेनिंग दी जा रही है कि ताकि वे बॉर्डर और करीबी क्षेत्रों में इमरजेंसी होने पर मोर्चा संभाल सकें। इससे सवाल खड़ा होता है- देश भर में पुलिस को मॉडर्न हथियार चलाने जैसी बेसिक ट्रेनिंग तक क्याें नहीं दी गई? यहां तक कि पुलिस थानों को भी मेकेनाइज्ड बंदूकें और स्मोक ग्रेनेड्स इस्तेमाल करने की इजाजत नहीं है। आम पुलिस यूनिफॉर्म में कहीं भी बुलेटप्रूफ जैकेटों का जिक्र नहीं है। ज्यादातर पुलिसकर्मियों के पास पुराने हथियार हैं, जो कि कभी मिसफायर करते हैं, तो कभी फायर ही नहीं करते। कांस्टेबल्स के पास दोनाली बंदूक होती है जो कभी भी धोखा दे सकती है। अधिकारियों को एक सर्विस पिस्टल मुहैया कराई जाती है। लेकिन पुलिस की सामान्य वर्दी में आत्मरक्षा के लिए कोई उपाय नहीं किया गया है। अगर किसी पुलिसकर्मी के पास ये जरूरी चीजें नहीं होगी तो हम उससे अपनी जान पर खेलने की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?
अगर पुलिस कर्मचारियों को सेमी ऑटोमेटिक या ऑटोमेटिक मशीन गन मुहैया कराई भी गई हैं तो उन्हें चलाने की ट्रेनिंग नहीं दी गई। जबकि बचाव के लिए उन्हें यह सब जानकारी दी ही जानी चाहिए। जब आतंकवादी पुलिस पर एके-47 साधते हैं तो यह बताने की जरूरत नहीं कि गोलियां किसकी तरफ से ज्यादा चलेंगी। आतंकवादी हमले अब सिर्फ कश्मीर या सीमा से सटे इलाकों तक ही सीमित नहीं है। पूरे देश में आतंक का खतरा है, ऐसे हालात में हर पुलिस थाने को आधुनिक हथियारों से लैस किया जाना चाहिए। साथ ही पुलिसकर्मियों को उन्हें चलाने की ट्रेनिंग मिले, ताकि वे समय आने पर उसका उपयोग कर कई जिंदगियां बचा सकें।
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यह चिंता नई नहीं है। जब 2008 में मुंबई पर हमला हुआ था तो आतंकियों का सामना कर रहे कई पुलिसकर्मी अपनी रायफलें नहीं चला पा रहे थे। उस हमले में कम से कम 187 लोग मारे गए और कई घायल हुए। आठ साल के बाद भी हालात में कोई खास बदलाव नहीं आया। ऊपर से देश में पुलिसकर्मियों की संख्या बेहद कम है। संयुक्त राष्ट्र के मानक के अनुसार प्रति लाख नागरिकों पर 270-280 पुलिसकर्मी होने चाहिए। भारत में यह आंकड़ा करीब 150 पुलिसकर्मी प्रति लाख व्यक्ति है।