Lok Sabha Elections 2019: लालकृष्ण आडवाणी आज बीजेपी के वरिष्ठतम नेताओं में से एक है। शायद सबसे वरिष्ठ। पर उनकी वरिष्ठता केवल उम्र और पार्टी से जुड़ाव के वर्षों तक सीमित रह गई लगती है। कभी उप प्रधानमंत्री रहे और प्रधानमंत्री के दावेदार के रूप में देखे जाने वाले आडवाणी आज पार्टी की निगाह में सांसद के लायक भी नहीं रह गए हैं। 2019 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने उनकी सीट गांधीनगर से अमित शाह को लड़ाने का ऐलान किया है। वह सीट जहां से आडवाणी छह बार सांसद रहे। वैसे तो 2014 में नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से ही आडवाणी हाशिए पर धकेले जाने लगे थे, लेकिन अब लगता है उन्हें संपूर्ण राजनीतिक संन्यास दिए जाने का फैसला कर लिया गया है। आखिर क्यों नरेंद्र मोदी के उभार के साथ आडवाणी का कद नीचे गिरता गया?
आडवाणी ने ही 1984 में दो सीटों पर सिमट गई भारतीय जनता पार्टी को नया जीवन दिया। पहले भारतीय राजनीति के केंद्र में पहुंचाया और फिर 1998 में पहली बार दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाया। बीजेपी को जीरो से हीरो बनाने में आडवाणी की भूमिका कोई नकार नहीं सकता। खुद नरेंद्र मोदी भी नहीं। वह कभी आडवाणी के काफ़ी क़रीबी हुआ करते थे, लेकिन 2014 में जब प्रधानमंत्री उम्मीदवार बने तभी से दोनों के रिश्तों में कड़वाहट आने लगी। प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने आडवाणी को मार्गदर्शक मंडल में भेजा। राष्ट्रपति पद के चुनाव के दौरान आडवाणी के नाम पर विचार तक नहीं हुआ। इससे पहले उपराष्ट्रपति पद के चुनाव का वक्त आया तो उस समय भी वेंकैया नायडू को चुना गया। नौ मार्च, 2018 को त्रिपुरा में मुख्यमंत्री बिप्लब देब के शपथ समारोह में मंच पर आडवाणी ने हाथ जोड़कर नरेंद्र मोदी का अभिवादन किया, लेकिन मोदी उन्हें नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ गए। बाकी सबका उन्होंने अभिवादन किया।
#WATCH Agartala: Former Tripura CM Manik Sarkar and PM Narendra Modi meet at swearing ceremony of Biplab Deb and others pic.twitter.com/89QtBYkeVm
— ANI (@ANI) March 9, 2018
बताया जाता है कि आडवाणी बीजेपी के उन तीन बड़े नेताओं में से एक थे जो 2014 में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाए जाने के पक्ष में नहीं थे। लेकिन, आरएसएस का मोदी को कड़ा समर्थन था। गोवा में अप्रैल, 2002 में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में भी मोदी को आडवाणी का अपेक्षित साथ नहीं मिला था। आडवाणी से मोदी की नाराजगी का एक और संभावित कारण यह हो सकता है कि एलके समर्थक जिन नेताओं ने मोदी के खिलाफ खुला मोर्चा खोला, उन्हें काबू करने की आडवाणी की ओर से कोई कोशिश नहीं हुई। शत्रुघ्न सिन्हा, यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी आदि नेता इस श्रेेेेणी में आते हैं।
2012 तक नरेंद्र मोदी, आडवाणी के सहयोगी हुआ करते थे। लेकिन 2014 में मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना उन्हें नागवार गुजरा। लेकिन, उनका विरोध पार्टी के कार्यकर्ताओं के दबाव और संघ के समर्थन की वजह से कमजोर पड़ा और वह खुद साइडलाइन हो गए। जाहिर है, पीएम बनने के बाद मोदी यह सब भूले नहीं होंगे।