वाकया 1948 की गरमियों का है। मद्रास (अब चेन्नई) में निर्माता और वितरक एसएस वासन के सामने एक समस्या खड़ी थी और वह चाहते थे कि उनके वितरक मित्र ताराचंद बड़जात्या इसका कोई समाधान बताएं। बड़जात्या मोतीमहल कंपनी के मुलाजिम थे और दक्षिण में कंपनी का घाटे में जा रहा कारोबार मुनाफे में बदलने के लिए मद्रास भेजे गए थे। वासन और बड़जात्या एक ही पेशे में थे और उनके बीच घनिष्ठ रिश्ते बन गए थे। वासन की 30 लाख लागत से बनी भव्य तमिल फिल्म ‘चंद्रलेखा’ 9 अप्रैल, 1948 को रिलीज हुई थी, पर लागत नहीं निकाल पा रही थी क्योंकि तमिल फिल्मों का बाजार बहुत छोटा था।
वासन ने 1943 में ‘चंद्रलेखा’ शुरू की थी, जो दरअसल दक्षिण की एक अभिनेत्री का नाम था। कहानी के नाम पर वासन के पास बस यही नाम भर था। उनके निर्देश पर लेखक कहानी लिख कर लाए। इसके मुताबिक चंद्रलेखा राज कुमारी है और वह एक दुर्दांत डकैत को काबू में करती है। उसकी नाक काट लेती है और कटी हुई नाक पर लाल मिर्ची का पावडर डालती है। वासन के नापसंदगी जाहिर करने पर कहानी बदली और फिर बार-बार बदली गई। अंत में उसे दो अच्छे और बुरे राजकुमारों की कहानी बनाया। इस बीच कलाकार बदलते रहे। शूटिंग आधी से ज्यादा हुई थी कि डाइरेक्टर ने फिल्म छोड़ दी। तब निर्देशन की जिम्मेदारी खुद वासन ने संभाली। फिल्म ओवर बजट हो गई और बनने में पांच साल लगे। फिल्म रिलीज हुई तो लागत भी नहीं निकाल पाई। वासन इसी बात को लेकर चिंतित थे, कि यह घाटा कैसे पूरा किया जाए।
अपने मित्र को चिंतित देख बड़जात्या ने उन्हें धीरज बंधाया। फिर सुझाया कि तमिल छोटा बाजार है। बड़ा बाजार चाहते हो तो इसे हिंदी में डब कर लो। वासन ने कहा कि उन्हें तो यह भाषा समझ नहीं आती। बड़जात्या ने कहा कि इसकी फिक्र छोड़ दें, वह सब संभाल लेंगे। हालांकि उन दिनों एक भाषा की फिल्म दूसरी भाषा में रिलीज करना नई बात नहीं थी। पुणे का प्रभात मराठी फिल्म ‘अयोध्येचा राजा’ (1932) को हिंदी में ‘अयोध्या का राजा’, ‘कुंकु’ (1937) को ‘दुनिया न माने’ और बंगाल का न्यू थियेटर बांग्ला चंडीदास (1932) को इसी नाम से हिंदी में रिलीज कर चुका था।
साढ़े सात महीने में आगा जानी कश्मीरी से हिंदी संवाद लिखवाए गए। कुछेक सीन काटे गए, कुछ नए सीन जोड़े गए ‘चंद्रलेखा’ हिंदी में रिलीज (24 दिसंबर, 1948) की गई, तो बॉक्स ऑफिस पर हंगामा मच गया। हिंदी में इसके छह में से पांच गाने अभिनेत्री टुनटुन (उमा देवी) ने गाए थे। विशालकाय ड्रम पर होने वाले डांस को देखकर दर्शक मुग्ध थे।
‘चंद्रलेखा’ हिंदी में टकसाल साबित हुई, तो दक्षिण के कई निर्माताओं ने अपनी फिल्मों को उत्तर भारत में रिलीज करना शुरू किया। यह कारोबारी तरीका आज तक चला आ रहा है। आज दक्षिण की फिल्में सिनेमाघरों से होती हुई घरों में घुस चुकी हैं। ज्यादातर टीवी चैनल दक्षिण की डब फिल्मों को खूब दिखा रहे हैं और हिंदी फिल्में कहीं पीछे छूटती नजर आ रही हैं। ताराचंद बड़जात्या ने अपने मित्र की मदद करते हुए अनजाने में ही तमिल फिल्म कारोबार की दशा और दिशा बदल दी थी।

