कांग्रेस के प्रति जनअसंतोष के बुखार का थर्मामीटर रहे हैं पिछले लोकसभा और कुछ राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस से विपक्ष का दर्जा छिन जाने की भी नौबत आ गई तो विधानसभा चुनावों में जनता ने राहुल गांधी के नेतृत्व को नकारा। कांग्रेस ने नेहरु-गांधी परिवार के बाहर दूसरी पांत के नेताओं को पनपने ही नहीं दिया। जब भी नेतृत्व की बात आती है परिवार से बाहर किसी चेहरे का अक्स नहीं उभरता। और जब भाजपा ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ अभियान की ओर तेजी से बढ़ रही है तो पार्टी के वजूद पर खतरा मंडरा रहा है। वंशवाद की बेल को आगे बढ़ा रही कांग्रेस की उखड़ती जड़ पर पढ़ें इस बार का बेबाक बोल।

1757 की पलासी की लड़ाई गुलाम हिंदुस्तान में तारीखें बदलने वाली साबित हुई। इसी के साथ छिड़ा था ब्रितानी हुकूमत के खिलाफ संग्राम। 1857 की क्रांति के बाद औपनिवेशिक शासन के खिलाफ उठती आवाजें एक मंच पर आ गर्इं। तब तक भारत के शासन में मध्य वर्ग की भूमिका स्पष्ट नहीं थी। लेकिन 1885 में अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ भारतीय राजनीति और समाज में मध्य वर्ग की ऐहिासिक भूमिका शुरू होती है। कांग्रेस पर बात शुरू करने के पहले उसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में जाना जरूरी लगा, क्योंकि पार्टी आज भी जंग-ए-आजादी और महात्मा गांधी से अपना इतिहास लिखती है। 1857 की क्रांति ने अंग्रेजों की आंखें खोल दी थीं। इतिहासकारों के एक वर्ग का मानना रहा है कि जनअसंतोष के बुखार का थर्मामीटर खोजने के लिए ही अंग्रेजों ने कांग्रेस की स्थापना का मार्ग दिखाया, जिसने बाद में पूर्ण आजादी की मांग करते हुए ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ की जंग छेड़ी।

अपनी स्थापना के आरंभिक दिनों में कांग्रेस ने राजनीतिक मसलों के साथ-साथ सामाजिक सुधार की बातों पर भी ध्यान केंद्रित किया। आजादी मिलने के बाद यह भारत की एक प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई और सामाजिक सुधार की बातें नेपथ्य में चली गर्इं। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने राजनीतिक और सामाजिक जरूरत से ज्यादा अपने ‘खून’ का ध्यान रखा और इंदिरा को उनके होते हुए ही भारतीय राष्टÑीय कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। नेहरू और इंदिरा की राजनीतिक काबिलियत चाहे जो हो, इन्होंने कांग्रेस की सत्ता की चाबी परिवार के हाथ में ही रखने की ठानी। संजय गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण मौत से इंदिरा गांधी को धक्का लगा था, क्योंकि इंदिरा उन्हें ही अपना राजनीतिक वारिस मानती थीं। नेहरू और इंदिरा के शासनकाल में ही कांग्रेस पार्टी की अंदरूनी मानसिकता इस तरह की बन गई थी कि इस परिवार के बाहर से नेतृत्व के बारे में सोचना भी गुनाह माना जाने लगा था। और बाद में ऐसा सोचने वाले को पार्टी गुनहगार साबित करती ही रही है। फिर चाहे वे वरिष्ठ सीताराम केसरी ही क्यों न रहे हों।

इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी और उनकी हत्या के बाद सोनिया गांधी। सोनिया गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी संभालने वाली ही थीं कि विदेशी मूल पर उभरे राजनीतिक ज्वार ने उन्हें ‘महात्याग’ के लिए मजबूर किया और मनमोहन सिंह को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया। उस वक्त राजीव गांधी के बच्चे राहुल गांधी और प्रियंका गांधी राजनीतिक बागडोर संभालने के लिए सक्षम नहीं थे। मनमोहन सिंह का चुनाव कितना सही था, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे देर-सबेर बोलते रहे कि राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनने के योग्य हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भाजपा के ‘कांग्रेसमुक्त भारत’ के हल्ला बोल के बाद से कांग्रेस अपने रसातल पर है। फिर भी विरासत की यह हठधर्मिता जारी है कि राहुल गांधी ही प्रधानमंत्री बनने योग्य हैं।

सोनिया गांधी ने केंद्र में दो कार्यकाल मनमोहन सिंह के नाम किए। ऐसा लगा जो शायद सच भी था कि वे राहुल गांधी को राजनीतिक तौर पर परिपक्व करना चाहती हैं और मौका देख कर उन्हें आगे लाया जाएगा। यह मौका 2014 के लोकसभा चुनाव को समझा गया और राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी के बरक्स प्रधानमंत्री पद का दावेदार बना कर पेश किया गया। देश के लोगों ने अपना फरमान सुनाया और राहुल को विकल्प के तौर पर नकार दिया। कांग्रेस आजादी के बाद की अपनी सबसे कमतर संख्या में लोकसभा में दाखिल हुई और पिछले दो सालों में ऐसा नहीं लगता कि राहुल गांधी खुद की पुनर्स्थापना के लिए ज्यादा कुछ कर पाए। लिहाजा वे आज भी विकल्प के रूप में पेश नहीं हो पाए हैं। आने वाले समय में राहुल की छवि एक जननायक की बन पाएगी इसमें संदेह है।

अहम सवाल यह है कि जब पार्टी अपने वरिष्ठतम नेताओं का बलिदान करने में भी संकोच नहीं करती तो फिर राहुल के बारे में यह जिद क्यों? क्या सिर्फ इसलिए कि वे गांधी परिवार की विरासत हैं? कांग्रेस अध्यक्ष के पुत्र हैं? मुहर चाहे सोनिया की हो, पार्टी की अगली कमान उनके ही हाथ में है। और यह कि अभी राहुल गांधी को और कितना समय दिया जाएगा कि वे अपनी पैठ बनाएं या फिर पार्टी को रसातल में जाने दिया जाएगा।

यह तय है कि दो वर्ष के शासन के बाद मोदी की लोकप्रियता गिरी है। लेकिन उसका लाभ उठाने में कांग्रेस फिलहाल नाकाम है। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल और बिहार में नीतीश कुमार को ही इसका लाभ मिला। असम में भाजपा ने लोकसभा में जो प्रदर्शन किया था, उसे कायम रखा। लेकिन लोकप्रियता घटी, इसका सबूत यह है कि पार्टी ने 2014 में 69 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त हासिल की थी जो कम होकर 60 रह गई। इसी तरह वोट फीसद 37 से कम होकर 30 रह गया।

अब कांग्रेस के अंदर और बाहर राहुल गांधी को पीछे करके फिर से मोदी की टक्कर के किसी चेहरे को लाने की बात है। और इससे पहले कि पार्टीजनों के अंदर ही कोई भ्रम पैदा हो, यह चेहरा प्रियंका गांधी का हो ही नहीं सकता। शायद ही कोई आम आदमी प्रियंका गांधी को उनके पति रॉबर्ट वाड्रा से जुड़े विवादास्पद जमीन सौदों से अलग करके देख पाए। वाड्रा को राजनीति में लाने की दुहाई उनका कोई गोल्फ का साथी कितनी ही दे, कांग्रेस से ऐसे फैसले की उम्मीद कम ही है। इस समय पार्टी में आगे आना उनका सूली पर लटकने जैसा ही होगा। इसके बावजूद यह उतना भी मुश्किल नहीं। ऐसा क्यों है कि पार्टी अध्यक्ष को यह नहीं लगता कि शायद राहुल गांधी को अभी और परिपक्व होने की जरूरत है।

पिछले दिनों वाराणसी में चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह से सोनिया गांधी की सेहत बिगड़ी वह पार्टी के लिए चिंताजनक स्थिति है। उनकी सेहत पिछले कुछ समय से खराब रही है और इससे कार्यकर्ताओं के हौसले पस्त हैं। आज के दौर में पार्टी की इस हालत के लिए भी गांधी परिवार ही जिम्मेदार है कि उन्होंने एक भी ऐसा बड़ा और विश्वसनीय चेहरा नहीं बनने दिया जो संकट के समय पार्टी को संभाल सके।
अगले लोकसभा चुनाव से पहले सात राज्यों में चुनाव होने हैं। पंजाब और उत्तर प्रदेश में तो अगले ही वर्ष चुनाव हैं। अगर उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित करिश्मा नहीं कर पार्इं तो कांग्रेस का 2019 में क्या हश्र होगा, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। आज तक की राजनीतिक स्थिति में कम से कम 2017 में कांग्रेस के पक्ष में कोई सकारात्मक स्थिति दिखाई देती नहीं। पंजाब में लोग नशे के कलंक के कारण सत्ता पर काबिज बादल परिवार से तो खफा हैं, लेकिन उसके विकल्प के तौर पर कांग्रेस की राह में आम आदमी पार्टी का बड़ा अवरोधक है। पंजाब वह प्रांत है, जहां 2014 में जब आम आदमी पार्टी देश भर में और अपने गढ़ दिल्ली में अपने ज्यादातर उम्मीदवारों की जमानतें जब्त करवा बैठी तब पंजाब ने अपने 13 में से 4 सांसद लोकसभा में भेज दिए। केजरीवाल ने खुद अपने हाथ में चुनाव प्रचार की कमान रखी है। तो यहां भी कांग्रेस की वापसी की उम्मीद पर ‘आप’ पानी फेर सकती है।

उत्तर प्रदेश में माना जा रहा है कि लोगों ने मुलायम सिंह यादव परिवार से पिंड छुड़ाने का फैसला कर लिया है। लेकिन अफसोस यह है कि कांग्रेस यहां भी विकल्प नहीं। शीला दीक्षित एक ब्राह्मण और यूपी की बहु का चेहरा लिए यहां पहुंच तो गई हैं, लेकिन आशंका है कि ऐन चुनावों के वक्त उनके पूर्वांचल विरोधी वे बयान गूंजने लग जाएं जो उन्होंने दिल्ली की मुख्यमंत्री के तौर पर दिए थे। कई बार उन्होंने दिल्ली की ज्यादातर समस्याओं के लिए उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रवासियों को जिम्मेदार ठहराया था। वैसे इन दिनों उत्तर प्रदेश के अवाम में बहुजन समाज पार्टी की मायावती ने फिर से अपनी पैठ बनाई है। गुजरात और देश में अन्य जगहों पर दलित उत्पीड़न ने समीकरण बदल दिए हैं। और कांग्रेस इस मामले में भी अगुआई नहीं कर पाई है। थक-हार कर उसने अपनी किश्ती रणनीतिकार प्रशांत किशोर को ही थमा दी है। लेकिन किशोर के अब तक के ‘हार-विहीन’ करियर पर शायद इन दोनों प्रदेशों में आंच आ जाए। ऐसा ही होगा अगर करिश्माई तरीके से कांग्रेस ने अपना कोई नया पत्ता नहीं खेला तो।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह ने हालिया चुनावों के बाद पार्टी की सर्जरी की मांग उठाई है। अपनी मांग को संशोधित भी किया कि पार्टी की कमान युवा हाथों में हो। ऐसा नहीं लगता कि अब सोनिया खुद उम्रदराज पुकारे जाने से नाराज होंगी, वरना सिंह ऐसा जोखिम कभी न लेते। यह एक रणनीति हो सकती है। यह भारतीय जनता पार्टी में खुद नरेंद्र मोदी ने अपनाई और सभी वृद्धजनों लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और यशवंत सिन्हा जैसे ‘वरिष्ठों’ को विश्रामगृह का रास्ता दिखाया। यह तय है कि 2019 में इस सूची में मौजूदा समय में आला पदों पर अभी तक काबिज कुछ नाम और जुड़ जाएंगे।

लेकिन यह रणनीति कांग्रेस के लिए शायद उतनी भी आसान न हो, क्योंकि तब संभव है कि उसकी चपेट में सिंह समेत कई और नाम भी आ जाएं, जिन्हें किनारे करने का जोखिम कांग्रेस शायद उठा सके। राज्यसभा के लिए सदस्य चुनते समय यह साफ हो ही गया था कि पार्टी इस समय कानूनी दांव-पेच में उलझी है और उसकी चपेट में न सिर्फ गांधी परिवार है, बल्कि कुछ दिग्गज भी हैं। यह सच है कि कांग्रेस के पास युवा चेहरों की कमी नहीं। ऐसे में अगर राहुल गांधी ही कांग्रेस की मजबूरी हैं तो क्यों नहीं पार्टीजनों की मांग पर उन्हें ही पार्टी की कमान और मनमर्जी सौंप दी जाए। हो जाए आर-पार। आखिर कांग्रेस इस समय जिस गर्त में है, वह इसकी निचली सतह से बस एक ही धक्का ऊपर है। फिर शायद कभी पुनर्जन्म भी हो जाए।

कांग्रेस के लिए यह समय अपने नेतृत्व पर कोई क्रांतिकारी फैसला लेने का है। नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब पार्टी का कोई नामलेवा नहीं होगा। अगर यह सातों या ज्यादातर चुनाव हारे तो उसे केंद्र में सत्ता में आने के लिए पता नहीं कितना इंतजार करना पड़े और अगर कोई स्वीकार्य तीसरा मोर्चा बन गया, फिर तो भगवान ही मालिक!

और अंत में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह का उदाहरण भी एकदम मौके का है। कैप्टन ने हाल ही में अपने एक साक्षात्कार में कहा कि सोनिया गांधी 70 साल की हो गई हैं। मैं 74 साल का हूं। सोनियाजी पर काम का बहुत दबाव है। उनको युवा नेतृत्व के लिए रास्ता बनाना चाहिए। यह दीगर है कि कैप्टन अपने से कम उम्र प्रतापसिंह बाजवा के खिलाफ खुला अभियान चला कर फिर से पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर काबिज हुए हैं और प्रदेश के मुख्यमंत्री के पद के दावेदार हैं। बहरहाल, कैप्टन ने फिर भी यह बात शायद दोबारा खुल कर कही है और इस बार तो अपना चुनाव भी बताया। कहना न होगा कि वे जब युवा कह रहे हैं तो वे यही चाहते हैं कि पार्टी की कमान राहुल गांधी के हाथ में हो। वैसे उनसे यह तवक्को भी नहीं कि वे परिवार से बाहर जाएंगे। उनकी पत्नी परणीत कौर राजनीति में हैं और बेटा रविंदर सिंह अपने कदम जमाने की अब तक नाकाम कोशिशें कर चुका है। लिहाजा यह सब कांग्रेसी नहीं तो क्या है? विरासत की वंश-बेल पर चलना अब कांग्रेस के लिए अपनी जड़ को खत्म करना है।