पिछले लोकसभा चुनावों में प्रचार के दौरान ही राष्टÑवाद एक ब्रांड के रूप में उभरा। शहीदों के कटे सिर का हिसाब मांगते हुए कांग्रेस के ‘शांति के कबूतरों’ को कोस-कोस कर भाजपा की अगुआई में राजग की सत्ता आई। नई सरकार बनते ही देशभक्ति के दूतों ने ‘कश्मीर मांगा तो सीना चीर देंगे’ जैसे बोलों से राजनीतिक मंचों को गुंजायमान रखा। लेकिन नारों के बरक्स सरहद को सुरक्षित और सैन्य बलों को मजबूत बनाने की कोई ईमानदार कोशिश नहीं हुई। गुरदासपुर, पठानकोट से लेकर उड़ी तक…। भारतीय सरहद के ‘बुरे दिनों’ पर सवाल उठाता बेबाक बोल।

कश्मीरी इंतिफादा का प्रतीक… ये वे शब्द हैं जो पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने कश्मीर घाटी में स्वप्रचारित आतंकवादी कमांडर बुरहान वानी के लिए इस्तेमाल किया। नवाज संयुक्त राष्ट्र के मंच पर कश्मीर में भारतीय सैनिकों के ‘जुल्म’ की गाथा सुना गए। उनकी जुबान पर एक बार भी उड़ी का नाम नहीं आया। यह गजब का साहस था या उनकी सत्ता पर खतरा बने सेनाध्यक्ष राहील शरीफ का सख्त निर्देश कि उन्होंने फिलस्तीनियों के संघर्ष को कश्मीर में आतंकियों के संघर्ष से जोड़ दिया। यानी जेहादियों को प्रश्रय देते हुए इसे फिलस्तीनियों के संघर्ष के समकक्ष खड़ा कर दिया। और इसके जवाब में भारत ने कहा कि तक्षशिला की धरती अब ‘आतंकवाद की आइवी लीग की मेजबान’ बन गई है और दुनियाभर से उम्मीदवारों और नौसिखियों को आकर्षित करती है। विदेश राज्यमंत्री एमजे अकबर ने पाकिस्तान को ऐसा आतंकवादी राष्टÑ कहा जो युद्ध अपराधों को अपने देश की नीति के तौर पर इस्तेमाल कर रहा है।

तो भारत को अब क्या करना है? यह तो तय करना ही होगा कि देश के रक्षा मंत्री ईमानदार हों, प्रधानमंत्री के प्रिय हों, सहज हों (कैसी भी परिस्थिति में) दुश्मन के हमलावर होने के बाद भी बोलचाल की, नापतोल की भाषा में विश्वास रखने वाले हों, संघ समर्थित हों, अपने घर (गोवा) में संघ के अंदर दो-फाड़ के आरोपी हों और या फिर महज बहादुर हों। देश की सीमा को सुरक्षित रखने में सक्षम तो हों ही। मनोहर पर्रीकर पहले हिस्से में वर्णित खूबियों पर खरे उतरते हैं। लेकिन बाद की खूबियों पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। उन्हें काफी तामझाम से उनकी ईमानदारी और संघ समर्थन का ढोल पीट कर लाया गया था। ऐसा लगा था कि जैसे पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक मंच पर लड़ाई चाहे जारी भी रहे, पर सीमा तो सुरक्षित हो ही गई। काश, यह सच होता। अब अगर वे ईमानदार हैं तो ऐसे समय में जब उनके कार्यकाल में अठारह जवान नींद में ही शहीद कर दिए गए तो उनका क्या कर्तव्य बनता है?

बहरहाल, कुछ हो, ऐसा कुछ संभव दिखाई नहीं देता। लेकिन उनसे भी ज्यादा क्षुब्ध कर देने वाला रवैया खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का है। यह लिखने से पहले उनके पास भी हफ्ते भर का समय था कि वे अपने रक्षा मंत्रालय की कुछ सुध लेते। क्या अब भी वे पर्रीकर से इसी बात पर नाराज होकर दिखाएंगे कि सोशल मीडिया पर उनके अनुयायी कम क्यों हैं? यह दीगर है कि सोशल मीडिया पर पर्रीकर के अनुयायियों की कमी नहीं। उड़ी में हुए हमले के बाद इनकी संख्या कई गुणा बढ़ी है, पर उनके प्रति हमलावर होकर। क्या अब भी समय नहीं कि सरहद पर चल रहे आतंक के इस नंगे नाच पर मुंहजबानी जमा खर्च से आगे बढ़ा जाए। कोई एक संदेश तो ऐसा हो जिससे लगे कि अब भारत का मकसद घाटी में शांति बहाली ही है! क्या अब भी यह कांग्रेस के ‘शांति के कबूतरों’ की साजिश है? गुरदासपुर, पठानकोट क्या काफी नहीं था जो उड़ी तक की नौबत आने दी?

बिहार चुनावों के समय राष्टÑवाद की झंडाबरदार भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने कालेधन की वापसी (अच्छे दिन) को जुमला करार दिया था। वहीं बिहार में हार की आशंका देखते ही तुरुप का पत्ता खेला कि बिहार में हारे तो पाकिस्तान में पटाखे फूटेंगे। बिहार में देशभक्ति के ब्रांड अंबेसडर बने गिरिराज सिंह से लेकर भाजपा का हर छोटा-बड़ा नेता पाकिस्तान के खिलाफ ही नारे लगाता रहा। लेकिन इन नारों का जमीनी स्तर पर मौका आने पर क्या हश्र दिखा? यहां पर क्षमा प्रार्थना के साथ कहा जा सकता है कि राष्टÑवाद का दंभ भरने वाली भारतीय जनता पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह कहीं सीमा पर अमन बहाली के वादे को जुमला कह कर मुस्करा भर न दें!

यह तो तय है कि नाटकीय स्वर लहरी से किया गया आपका ‘अच्छे दिन’ का वादा तो शायद ही पूरा हो। लेकिन सरहद पर ‘बुरे दिनों’ का तो आपका कोई वादा भी नहीं था। फिर ऐसी ढिलाई क्यों बरती गई कि हालात बद से बदतर होते चले गए। 1999 में जिन फिदायीन ने कश्मीर में नन्हे कदम उठाए थे, ये आपके कार्यकाल के आते ही बालिग हो गए। आप ‘हैपी बर्थ डे’ और आम व शॉल में उलझे रहे और वे पठानकोट में आपकी वायुसेना के ठिकाने के अंदर पैठ कर गए। आपके आपसी सद्भाव के प्रयास का ऐसा जवाब भी आपकी आंखें नहीं खोल सका।

पर्रीकर अपने लाव-लश्कर के साथ राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार के पद पर अजीत डोभाल को लाए थे। डोभाल की नियुक्ति पर वीर रस से भरे ऐसे गीत गाए कि लगा कि पाकिस्तान थर्रा गया है। उनकी गोपनीयता और गुप्तचरी की सलाहियत पर तो ‘प्रचारकों’ ने किताबें ही छपवा दीं। तो अब उड़ी में गोपनीयता और गुप्तचरी का ऐसा शर्मनाक प्रदर्शन क्या नैतिकता की नींद में खलल डालेगा? यहां शायद की भी गुंजाइश नहीं, क्योंकि सीधा और साफ जवाब है – नहीं। डोभाल भी वैसी ही खूबियों के साथ अपने पद पर काबिज हुए हैं, जिनके साथ पर्रीकर को लाया गया था तो भी क्या किया जाए?

जरा बानगी देखिए। उड़ी में दो जगहों पर सुरक्षा में अक्षम्य सेंध लगाई गई। नियंत्रण रेखा से नजदीकी के कारण उड़ी हमेशा से हमारी कमजोर नस है। जैश-ए-मोहम्मद के फिदायीन नियंत्रण रेखा को भेदकर देश की सीमा में दाखिल हुए। दूसरी सेंध सेना के बेस में लगाई गई। इस दोतरफा नाकामी पर क्या देश के राष्टÑीय सुरक्षा सलाहकार के पास कोई सफाई है? कमजोर पड़ोसी मुल्कों के प्रमुखों और उपप्रमुखों के साथ गुफ्तगू के कोई मायने नहीं, अगर आप देश की सीमाओं को महफूज न कर सकें। यों आप दूसरे किसी को (बलूचिस्तान के संदर्भ में) उसकी सुरक्षा का क्या भरोसा दिलाएंगे जब आप अपनी सुरक्षा में ही इतनी बड़ी चूक करेंगे!

आतंकवादी बुरहान वानी की मौत के बाद से कश्मीर में प्रशासनिक व राजनीतिक नाकामी का नंगा नाच हो रहा है। आपने सत्ता पाने के लिए पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार को कोस-कोस कर कश्मीर में अमन बहाली का ख्वाब दिखाया। जनता भी सरहद और सीमा के नारों पर मर मिटी। सवाल है कि मिला क्या? और जो मिला उस पर हुआ क्या? आप न तो देश की सीमा को सुरक्षित कर पाए और न ही घर के अंदर की हिंसा को। गृह मंत्री राजनाथ सिंह हमेशा ही प्रभावशाली और बिना नाटकीयता के अपनी बात गंभीरता से कहते हैं। लेकिन घरेलू मोर्चे पर उनकी उपलब्धि की गुंजाइश इसलिए भी कम है कि उनके मुखिया उन्हें भी विश्वास में लेना जरूरी नहीं समझते। उनके बिना किसी कार्यक्रम के लाहौर मुड़ जाने के बारे में तो विदेश मंत्री को भी टेलीविजन से ही पता चलता है। तो क्या आज के हालात के लिए राजनीतिक तौर पर कोई एक ही दोषी है? समय आ गया है कि यह तय हो।

ये सब लोग, जिनका जिक्र किया गया है, अपने-अपने कार्यक्षेत्र में दिग्गज हैं। तो क्या ये लोग अपनी बात कहने का साहस भी खो बैठे हैं? क्या इन्हें भी लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी या यशवंत सिन्हा हो जाने का भय सता रहा है? क्या किसी में यह साहस नहीं कि अगली बैठक में कह सकें, ‘सर, सोशल मीडिया से वोट तो हासिल हो जाएंगे पर उसकी क्या कीमत अदा करनी पड़ रही है?’ वैसे सच यह भी है कि सोशल मीडिया का इस्तेमाल अगर आप अपने गुणगान के अलावा करते तो शायद कुछ लाभ होता। और जरा इस पर भी गौर फरमाएं कि सोशल मीडिया पर आपसे ज्यादा पकड़ तो वानी की थी, जिसने इसका इस्तेमाल कर अपनी सत्ता बनाई और अपनी तरह के ‘युद्ध’ के लिए लोगों को लामबंद किया।

यह भी कहा गया है कि यह मसला महज घाटी तक महदूद नहीं। इसे सिर्फ कश्मीर की समस्या मानना कमतर करके देखना होगा। खास तौर पर तब, जबकि आपकी सीमा में मनमर्जी से उग्रवादी घुसे चले आ रहे हों। यह भी सच है कि किसी भी बात के लिए कभी भी इतनी देर नहीं होती, लेकिन अब भी अगर न जागे तो जाहिर है कि सवेरा आए ही नहीं। पहली बात तो यही है कि आपको संवाद को महज कथनी से आगे लेकर जाना होगा। रचनात्मक रवैया अपना कर आपने जो बलूचिस्तान और पाक अधिकृत कश्मीर का मुद्दा उठाया उसका उलट असर हुआ है।
तो क्या भारत के लिए जैसे को तैसा का जवाब देने का वक्त आ गया है? एक पूर्व सेना प्रमुख मांग कर रहे हैं कि भारत भी पाकिस्तान पर फिदायीन हमले करे। लेकिन उड़ी हमले के बाद भारत को मिले चौतरफा वैश्विक समर्थन के बाद यह सावधानी बरतने की जरूरत है कि भारत इस मजबूत कवच से ढका रहे। लालकिले से बलूचिस्तान के ‘बागियों’ का समर्थन करने का नतीजा हम भुगत चुके हैं। और जहां तक प्रत्यक्ष युद्ध की बात है उसमें पाक के मुकाबले भारत का पलड़ा चारों बार (1947, 65, 71 और 1999) भारी रहा है। लेकिन आज के समय में जब युद्ध के तरीके बदल गए हैं और दोनों देश परमाणु-शक्ति से संपन्न हैं, ऐसे में युद्ध के अंजाम का अंदाजा क्या इतना मुश्किल है! युद्ध होने की स्थिति में किसी भी तरफ से अगर परमाणु हथियारों का इस्तेमाल होता है तो उसका खमियाजा कितना बड़ा और कब तक के लिए हो सकता है, क्या यह समझना इतना मुश्किल है? आज के मुकाबले काफी कम क्षमता वाले परमाणु बम से बर्बाद हुए हिरोशिमा और नागासाकी के अंजाम को क्या हम भूल जाते हैं?

तो ऐसे तमाम तथ्य हैं, जिन्हें देखते हुए भारत को आज के भूमंडलीकरण के इस दौर में सबसे बड़े हथियार ‘वित्त’ को भी मजबूत करना होगा। नेपाल, चीन हो या अफगानिस्तान, इन सबके साथ आर्थिक संबंध दुरुस्त कर पाकिस्तान की घेरेबंदी ज्यादा मुफीद होगी। क्योंकि प्रत्यक्ष युद्ध छोटा हो या बड़ा, जीत या हार किसी की हो, इसका खमियाजा दोनों पक्षों की साधारण जनता को भुगतना पड़ता है। इतिहास इसका गवाह है।
भारत के लिए अब अहम है कि उड़ी के बाद वह वैश्विक मंच पर कूटनीतिक जंग जीते और पाकिस्तान को अलग-थलग करे। सुषमा स्वराज 26 सितंबर को संयुक्त राष्टÑ महासभा को संबोधित करेंगी। सूत्र बताते हैं कि इसमें वे पाकिस्तान की कारगुजारियों को पुरजोर तरीके से उठाएंगी। इसके साथ ही नवंबर में होने वाला सार्क सम्मेलन भी अहम है। वहीं इस साल अक्तूबर में होने वाले ब्रिक्स सम्मेलन की मेजबानी गोवा में भारत ही कर रहा है। चीन इसका अहम हिस्सेदार है और पाकिस्तान से निपटने के लिए भारत को चीन को साधना ही होगा।

दो साल पूरी कर चुकी सरकार रक्षा के स्तर पर उल्लेखनीय कुछ नहीं कर पाई है। मंचों पर पाकिस्तान के खिलाफ जहर उगलने के बजाय सैन्य तंत्र को दुरुस्त करना था। महज टीवी कैमरों पर यलगार के बजाय कूटनीतिक और रणनीतिक स्तर पर भी ‘बड़ा भाई’ बनना था। इनके लिए तो तुलसीदास रामचरितमानस में ही संदेश दे गए हैं-‘‘व्यर्थ मरहु जनि गाल बजाई। मन मोदकन्हि कि भूख बुताई।।’ यानी ‘गाल बजा कर ही व्यर्थ मत मरो। मन के लड्डुओं से भी कहीं भूख मिटती है!’ मन की बात के साथ अब ठोस यथार्थ पर बात कर अच्छे दिनों की कामना करें।