डॉ विधि चौधरी
एक सुहावनी सुबह चाय की चुसकियों के साथ मैंने अपना फोन चेक किया। आयशा का आखिरी वीडियो देखने को मिला। चेहरे पर हंसी और दिल में दर्द लिए जिंदादिल 23 साल की आयशा ने सबको हंसते-हंसते अलविदा कह दिया। उसने दहेज प्रताड़ना से तंग आकर साबरमती नदी में कूदकर जान दे दी थी। आयशा के दिल झकझोरने वाले वीडियो ने लोगों को भावुक कर दिया था लेकिन अच्छी सीरत की वह खूबसूरत लड़की अपने पति आरिफ खान के दिल को ना बदल सकी। काश मैं आयशा को बता पाती कि अल्लाह ने उसे बहुत सारी खूबियों से नवाजा था लेकिन वह जिंदगी के केवल एक ही पहलू को समझ पाई थी।
शादी जिंदगी से बढ़कर कैसे हो सकती है यह समझ पाना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था। थोड़ी ही देर में सोशल मीडिया पर लोगों की प्रतिक्रिया का ढेर लग गया। कुछ लोगों ने दुख और आक्रोश प्रकट किया तो कुछ ने आयशा को ही भावुक और कायर बताकर गलत ठहरा दिया।
आयशा की गलती यह थी कि उसने शादी जैसे रिश्ते में दिल का इस्तेमाल किया जो धोखा खाने के बाद गहरी पीड़ा और वेदना से भरा था। मुझे डर है कि प्यार और कोमलता का प्रतीक माने जाने वाली नारी को हम एक दिन इतना कठोर ना बना दे कि आने वाले समय में यह गुण उनमें ढूंढने से भी ना मिले।
आयशा का यह कठोर कदम केवल आयशा ही नहीं उसके माता-पिता, परिवार और संपूर्ण समाज की मजबूरी का परिचायक है। हम अपनी बेटियों को यह समझाने में क्यों असमर्थ है कि शादी जिंदगी का एक हिस्सा हो सकता है, सब कुछ नहीं । शादी को चलाने का दायित्व केवल लड़की के कंधों पर नहीं होता। यह एक आपसी समझौता है जिसको लड़का और लड़की दोनों को ही समझदारी से निभाना होता है। आयशा की आत्महत्या कहीं ना कहीं समाज की संकीर्ण सोच का परिणाम है। समाज भी हम ही लोगों से मिलकर बना है।
अगर हम सभी लोग अपने घर की लड़कियों को मानसिक और भावनात्मक रुप से मजबूत बनाएं, तो शायद किसी बदलाव की उम्मीद है। क्योंकि कानून का डर तो दहेज लोभी लोगों की मानसिकता को बदलने में असमर्थ है । इसका अंदाजा रोज होने वाली घटनाओं से लगाया जा सकता है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिदिन दहेज उत्पीड़न के परिणाम स्वरूप 20 औरतों की मौत होती है, या तो उनकी हत्या की जाती है या आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के आधुनिक दौर में भी दहेज जैसी महामारी से मुक्ति पाने में असमर्थता हमारी असफलता को दर्शाता है । हम सभी को इससे सबक लेते हुए एकजुट होकर इसका विरोध करना चाहिए। शिक्षा कुछ हद तक इस समस्या से निजात पाने में मददगार है, लेकिन दहेज प्रताड़ित शिक्षित लड़कियों की बढ़ती संख्या इस कोढ रूपी बीमारी की गहनता को दर्शाती है।
शादी में परेशानी होने पर लड़की का आवाज उठाना शर्म की बात नहीं होनी चाहिए। बल्कि समाज को इन दहेज प्रताड़ित लड़कियों को मानसिक मजबूती देनी चाहिए जिससे हम ना केवल दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त कर सकते हैं बल्कि आयशा जैसी कितनी ही और लड़कियों को एक बेहतर जिंदगी जीने की आशा दे सकते हैं।
शिक्षा के साथ-साथ हम सभी को अपनी मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है। हमें लड़कों की परवरिश पर भी ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। समाज में मान मर्यादा, प्रतिष्ठा का डर लड़की और उसके परिवार के बजाय लोभी लड़के और उसके परिवार को होना चाहिए।
समाज में लड़के और लड़की के लिए प्राथमिकताएं अलग-अलग है। लड़के के लिए पढ़ाई, नौकरी, करियर फिर शादी जबकि लड़की के लिए पहले शादी फिर नौकरी और कैरियर। शादी की जरूरत लड़के और लड़की दोनों को बराबर है। जीवन में लड़की की शादी को सर्वप्राथमिकता देना ही तो कहीं लड़कों की विकृत मानसिकता को ज्यादा मजबूत तो नहीं कर रहा है।
हमें बेटियों को मानसिक और भावनात्मक रुप से मजबूत बनाकर और उन्हें शिक्षित करके ऐसी मुसीबतों का सामना करने के लिए सक्षम बनाना चाहिए। समाज में दहेज लोभी लोगों में ऐसे डर पैदा करने की जरूरत है जिसके चलते उनको आत्महत्या जैसा कायरतापूर्ण कदम उठाने के लिए सोचना पड़े।
(लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ाती हैं। यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं।)