एक ओर जहां दुनिया की जनसंख्या तेजी से बढ़ी, वहीं वन्य पशुओं की संख्या उसी क्रम में घटी। यह असंतुलन इंसानों के लिए खतरनाक साबित होने लगा। मानव जीवन की शुरुआत के समय पृथ्वी पर जैव विविधता अधिक थी, जो हमारे विकसित होने तथा प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन से घटने लगी।
इन दिनों जहां-तहां जंगली पशु बीच शहर और घनी आबादी में बेखौफ घूमते दिखते हैं। मौका लगते ही पालतू पशुओं और इंसानों पर जानलेवा हमला करने से भी नहीं चूकते। मगर हम हैं कि इनकी खास वजहों को समझ कर भी अंजान बने रहते हैं। देश का कोई ऐसा हिस्सा नहीं, जहां कभी न कभी कोई जंगली पशु न घुसा हो। तेंदुए, भालू, हाथियों के झुंड, जंगली सुअर, लोमड़ी, बायसन जैसे पशुओं के रिहाइशी इलाकों में घुस कर तबाही मचाने की घटनाएं आम हो गई हैं।
ऐसी घटनाओं के पीछे जंगली पशुओं का बदला हुआ व्यवहार है। इसी में वे तमाम सवाल छिपे हैं, जिनको या तो हम नजरअंदाज कर देते या जानकर भी अंजान बने रहते हैं। हाल की कुछ घटनाओं को ही देखें, तो आलम यह है कि हिंसक वनचर तमाम सुरक्षा व्यवस्थाओं के बावजूद अदालत की चौखट तक पहुंच जाते हैं। इसी फरवरी में गाजियाबाद जिला अदालत में शाम चार बजे मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत में एक तेंदुआ घुसा और वकील और सिपाहियों सहित दस लोगों को घायल कर दिया। दहशत के चलते लोगों ने दरवाजे बंद कर खुद को कमरों में कैद कर लिया।
अक्सर तेंदुए, हाथी, भालू भी तबाही मचाते दिखे जाते हैं। कुछ महीने पहले जयपुर के एक स्कूल के शौचालय में जा घुसे तेंदुए ने जबरदस्त डर का माहौल बना दिया। ऐसे हिंसक वनचरों को कभी किसी के ड्राइंग रूम, बेडरूम या रसोई तक में घुस जाने की घटनाएं चिंताजनक हैं। आबादी के बीच इंसानों पर हमला और पालतू जानवरों को निवाला बनाने की दर्दनाक तस्वीरें भी बेहद डरावनी और चिंता पैदा करने वाली होती हैं। कभी खेलते बच्चों पर हमला, तो कभी राह से गुजरते लोगों को रौंद डालने की घटनाएं अब आम-सी हैं। आलम यह है कि क्या शहर, क्या गांव, हर कहीं खौफनाक जंगली जानवरों की घुसपैठ बढ़ी है।
इसके पीछे की एकमात्र सच्चाई यही है कि मानव बस्तियों के ताबड़तोड़ निर्माण या विकास के चलते बहुत बड़े वनक्षेत्र अब इंसानी रिहाइश बन गए हैं, जो कभी वन्य पशुओं के स्वच्छंद विचरण, शिकार और जीवनयापन की जगह थे। 1 अगस्त, 2022 को संसद में एक प्रश्न के उत्तर में केंद्रीय पर्यवरण मंत्री ने बताया था कि देश में लगभग 7,40,973 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण हो चुका है, उसमें भी आधे से ज्यादा कब्जा अकेले असम में है।
असम में यह आंकड़ा 13 फीसद है। यह जानकारी तमाम राज्य सरकारों के आंकड़ों से निकली है। इसमें उद्योगों, अस्पतालों और शैक्षणिक संस्थानों सहित निजी संस्थाओं द्वारा वन भूमि पर अतिक्रमण का आंकड़ा शामिल नहीं है। अगर राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से प्राप्त जानकारियों का विश्लेषण करें, तो देश भर में कई राज्यों में बड़े पैमाने पर वनभूमि माफिया के कब्जे में है।
इसमें असम में 377,533 हेक्टेयर, मध्यप्रदेश में 54,173 हेक्टेयर, अरुणाचल प्रदेश 53,450 हेक्टेयर, आंध्र प्रदेश में 34,358 हेक्टेयर, ओडिशा में 33,154 हेक्टेयर, दिल्ली में 384 हेक्टेयर वन क्षेत्रों पर अतिक्रमण है। जबकि लक्षद्वीप, पुदुचेरी और गोवा का दावा है कि उनके यहां किसी भी वन भूमि पर अतिक्रमण नहीं है।
असम में भारी अतिक्रमण की वजह वहां लकड़ी माफिया और अरुणाचल प्रदेश के लोगों के बीच लकड़ियों की सौदेबाजी है, जिसमें तस्करों ने बड़ी तादाद में पेड़ गिराए, जिससे वनभूमि समतल हुई और वहां इंसानी बस्तियां बन गई। कमोबेश यही स्थिति पूरे देश के जंगलों की है। इसका अलग आंकड़ा नहीं है।
स्वाभाविक है कि जब हम किसी और के घर पर कब्जा करेंगे तो वह भला चुप क्यों बैठेगा? यही स्थिति वनचर और इंसानों के बीच की है। इंसानों ने वनों पर कब्जा किया तो क्रोधित और भूखे-प्यासे, भटकते वनचरों ने इंसानी बस्तियों पर हमला बोल पेट भरने का जुगाड़ शुरू कर दिया। जब तक इस खाई को पाटा नहीं जाएगा, तब तक अपने गुम आशियानों को तलाशने के लिए भटकते वनचरों, जिन्हें हम अपने स्वार्थवश इंसानी बस्तियों के सुख-चैन छीनते हिंसक पशु कहते हैं, से कैसे निपटा जाएगा?
एक ओर जंगली पशुओं को बचाने की कवायद होती है, तो दूसरी ओर इनके उजड़ते आशियानों पर बेफिक्री भी दिखती है। सच तो यह है कि इसी दोहरी मानसिकता के चलते एक ओर जहां हम विलुप्त होते वन्यप्राणियों के साथ इंसाफ नहीं कर पा रहे हैं, वहीं खुद अपना और अपनी भावी पीढ़ी के लिए बिगड़ते पर्यावरणीय असंतुलन को लेकर कागजी चिंताओं से आगे की सोच भी नहीं पाते हैं।
इसे ऐसे भी समझना होगा कि हाथियों की तेजी से घटती संख्या के बावजूद ये इंसानों के लिए जानलेवा मुसीबत बने हुए हैं, जिसकी वजह इनकी खत्म होती रिहाइश है। भोजन की तलाश में वनचर जंगलों से दूर उन पुराने ठौर पर आ धमकते हैं, जो कभी इनका चरागाह था। अब ये जगहें इंसानी तरक्की की नई पहचान हैं। हाथियों सहित कई पशुओं में जबरदस्त यादाश्त होती है, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक-दूसरे को स्थानांतरित करते हैं।
इसी से नई आबादी को पुराने रास्ते और ठौर-ठिकाने याद रहते हैं। मौजूदा सच्चाई यह है कि इनकी पुश्तैनी जगहों पर हमने कब्जा कर लिया है और ये हैं कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी विशेष गंध, चिह्न, पहचान के जरिए उनकी पहचान स्थानांतरित करते रहते हैं। घनी बस्तियों में वनचरों के घुस आने का यही सच है, जिसे समझना होगा। भारत में कम से कम अट्ठासी ऐसे चिह्नित रास्ते अब भी हैं, जिनमें सदियों से हाथी आवागमन करते रहे हैं। लगभग यही आदतें दूसरे जंगली पशुओं की होती हैं।
हमने जंगलों का तेजी से नाश किया, जिससे जंगली उपज भी बेतहाशा घटी। इसी कारण बंदर, सांभर, हिरण, जंगली कुत्ते, सियार, नील गाय भी उन इंसानी कथित बस्तियों में अक्सर धावा बोलने लगे, जहां कभी ये खुद आबाद थे। हमने अपना विकास तो किया, लेकिन पशुओं के प्रकृति प्रदत्त आशियानों को छीनना भी शुरू कर दिया। एक ओर जहां दुनिया की जनसंख्या तेजी से बढ़ी, वहीं वन्य पशुओं की संख्या उसी क्रम में घटी। यह असंतुलन इंसानों के लिए खतरनाक साबित होने लगा। मानव जीवन की शुरुआत के समय पृथ्वी पर जैव विविधता अधिक थी, जो हमारे विकसित होने तथा प्राकृतिक संसाधनों के बेतहाशा दोहन से घटने लगी।
इसी से चिंतातुर दुनिया का 1992 में ब्राजील के रियो-डी-जेनेरो में जैव विविधता सम्मेलन हुआ। इसमें भारत सहित 155 देश शामिल हुए। इसमें संकटग्रस्त विभिन्न प्रजातियों, जिनमें वनस्पति से लेकर वन्य जीवों तथा खाद्यान्नों की किस्मों से लेकर चारा-पानी, इमारती लकड़ियों, पेड़, पशुधन, जंतुओं तथा उनकी प्रजातियों के संरक्षण पर गहन मंथन, चिंतन हुआ तथा इस निष्कर्ष पर पहुंचा गया कि हर देश वन्य जीवों के आवास को चिह्नित कर उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करे।
हालांकि भारत में 1972 में ही वन्य जीव संरक्षण अधिनियम बन गया था, जिसके तहत राष्ट्रीय, पशु विहार, जीव मंडल आरक्षित क्षेत्र का प्रावधान हुआ। इसमें जंगली जानवरों और पौधों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण, उनके आवासीय प्रबंधन, वनचरों, पौधों तथा उनसे बने उत्पादों के व्यापार विनियमन तथा नियंत्रण के लिए एक कानूनी ढांचा बना। मगर सच्चाई सामने है।
न जंगलों का नाश रुका, न नदी, नालों, पहाड़ों का विनाश ही थमा। रेगिस्तान में तब्दील होते हरे-भरे जंगल, छलनी होते पहाड़ और नदियों का गर्भ चीर कर रेत निकासी ने एक तरह से पूरे प्राकृतिक ढांचे का भूगोल बदल दिया है। इसी का दुष्परिणाम है कि जहां वनचरों के हमले तेज हो रहे हैं, वहीं प्रकृति का रौद्र रूप जब-तब किसी न किसी रूप में डराता है।