वंशवादी क्षत्रपों के दंगल में ‘चीं’ बोल रहा लोकतंत्र इसी बात पर थोड़ी राहत की सांस लेने का भ्रम पाल सकता था कि पिता ने बेटे को छोड़ कर भाई का साथ दिया। वहीं समाजवादी बागी बबुआ भी इसी पारिवारिक आंदोलनकारी छवि के कारण ही समर्थकों और जनता के बीच नया चेहरा बनाने में कामयाब हो पाए। पांच राज्यों के पंच परमेश्वरों को नोटबदली और चेहराबदली के दांवों में से नया खेवनहार चुनना है। चुनावी मैदान में सोशल इंजीनियरिंग के बरक्स चेहराबदली के शह और मात के खेल पर इस बार का बेबाक बोल।
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल में अपने एक ट्वीट में शिकायती लहजे में कहा कि टीवी चैनल सीएनएन ने अपनी किताब के आवरण पृष्ठ के लिए उनकी अब तक की सबसे खराब तस्वीर का इस्तेमाल किया है। खबरों के मुताबिक, ट्रंप इससे पहले भी अपनी खराब तस्वीर का इस्तेमाल करने के लिए मीडिया की आलोचना कर चुके हैं। दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश में राष्टÑपति पद का चुनाव जीत चुके ट्रंप आखिर मीडिया में अपने चेहरे के लिए इतना चिंतित क्यों हैं?
इसके जवाब के लिए चलते हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति के अखाड़े में। कुछ लोग नॉस्टैल्जिक होकर इसे पिता-पुत्र के वर्चस्व की लड़ाई कह सकते हैं, ताजमहल वाले उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह की तुलना शाहजहां और अखिलेश की तुलना औरंगजेब से यह कहते हुए कर सकते हैं कि जिसने ताजमहल खड़ा किया, वही इसका दीदार सिर्फ एक झरोखे से कर सकता है। वे चाहें तो यह भी कह सकते हैं कि अखाड़े के नियम के अनुसार उस पिता को आह्लादित होना चाहिए, जिसका बेटा उसे ‘चीं’ बुलवा दे और पहलवान का खिताब हासिल करे।
लेकिन जिस प्रदेश में 11 फरवरी से चुनाव होने हैं, वहां के समीकरण को बस इस पारिवारिक भावुकता के हिसाब से नहीं देखा जा सकता कि बेटा कहता है कि बाप को उत्तर प्रदेश जीत कर तोहफे में देना है। जैसी गतिविधियां सामने आ रही हैं, उससे यही लगता है कि परदे के पीछे इस समूचे घटनाक्रम का जो वास्तविक संदर्भ है, वह शायद ही कभी आम जनता को जानने-समझने के लिए आ पाएगा।
लोकसभा चुनावों के पहले और उसके बाद मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के चेहरे को जरा याद करें। मुजफ्फरनगर दंगे, कैराना, बदायूं कांड जैसे हर मसले को लेकर प्रदेश सरकार की किरकिरी हुई। सपा सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार के आंकड़े भी उसे परेशान कर रहे थे। सुर्खियों में रहे सूबे के साढ़े तीन मुख्यमंत्रियों के बीच उनके हिस्से आधे वाला तमगा ही आया था। और इसी दौर में भाजपा पूरे देश में प्रधानमंत्री के चेहरे के साथ चुनाव लड़ रही थी। विकास, भ्रष्टाचार, कालाधन – यही चुनावी फिजा में तैर रहे थे। लेकिन आखिरकार ये जुमले ही साबित हुए। भाजपा दिल्ली और बिहार हार गई। उसे ऐसी भी रपटें मिली थीं कि उत्तर प्रदेश में भी जमीनी हालात ठीक नहीं हैं। दावा है कि इन बुरे हालात का चेहरा बदलने के लिए प्रधानमंत्री ने सहारा लिया नोटबंदी का। इसके बाद दावा किया गया कि बसपा और सपा का कालाधन रद्दी करार दिया गया और अब ये चुनाव नहीं जीत पाएंगे। लेकिन बात क्या इतने तक सीमित थी?
मोदी की नोटबंदी के दांव के बाद जब उत्तर प्रदेश सहित पूरा भारत नोटबदली में व्यस्त था तो पिछले चुनावों में युवाओं के प्रेरणास्रोत बने अखिलेश यादव आखिर किस चेहरे के साथ चुनावी मैदान में उतरते! पिता हालांकि जातिवादी और वंशवादी छवि तक ही सिमटे थे, लेकिन इस आधार पर बन रहे वोट बैंक को भी खारिज करना खतरे से खाली नहीं था। इसलिए अखिलेश यादव को भी विकास के दावे के साथ जनता को संबोधित करना जरूरी लगा। लेकिन जिस विकास का झंडा वे अपने हाथ में थाम कर चल रहे हैं, उसकी बात करें तो दिल्ली हवाई अड्डे से यमुना एक्सप्रेस-वे होते हुए सैलानी जिस ‘उत्तम प्रदेश’ से ताजमहल का दीदार करने जाते हैं, वे सब निजी कंपनियों के ‘लाभ’ की देन हैं जिनके इस्तेमाल के लिए भारी-भरकम टोल वसूला जाता है। बाकी उत्तर प्रदेश की खस्ताहाल सड़कों, बिजली-विहीन गांवों का हाल सबको पता है। गायत्री प्रजापति जैसे मंत्रियों को खास समीकरण से पुत्र निकाल बाहर करते तो पिता ससम्मान वापसी कराते। इसी दंगल के बीच आया नोटबंदी का ‘मास्टर स्ट्रोक’।
पिछले लोकसभा चुनावों में जो मोदी ने किया, अमेरिकी चुनावों में जो ट्रंप ने किया, इटली, फ्रांस और पेरिस में जो हो रहा है, उसका सबक है अखिलेश का चेहराबदली अभियान। उदारवादी जमीन की कब्र पर बनी नवउदारवादी अट्टालिका पर आपके पास जनता को देने के लिए कुछ भी नहीं है सिवा भुलावों के। और उत्तर प्रदेश की तस्वीर भी इससे कुछ जुदा नहीं। रोटी, कपड़ा और मकान की वही बुनियादी समस्या। यादव-मुसलिम समीकरण पर खुले तौर से वोट मांगना खतरे से खाली नहीं था और आपने इसके सिवा कोई जमीन बनाई नहीं थी। तो समर्थकों, कार्यकर्ताओं और जनता को भुलावे में रखने के लिए लिखी गई बेटे की बगावत की पटकथा, और अब इस ब्रह्मास्त्र से भाजपा भी फिलहाल भौंचक सी है।
ऊपरी तौर पर भाजपा के नेता सपा के दंगल की आलोचना कर रहे हैं और दावा कर रहे कि इस लड़ाई से उसे फायदा मिलेगा। लेकिन उसे भी जमीनी हकीकत का अंदाजा है। और चेहराबदली की कोशिश का संदर्भ यही है। भाजपा को इस हकीकत का अंदाजा है कि हाल के दशकों में महिलाओं और खासतौर पर दलित-वंचित जातियों का दखल इतने बड़े पैमाने पर फैल चुका है कि उसे खारिज करने का मतलब खुद खारिज होना है। मायावती के चेहरे से मुकाबला करने के लिए उसके पास कुछ था भी नहीं। और इसी चुनावी चेहरे की खातिर आठ नवंबर के एलान के बाद नोटबंदी के 50 दिन पूरे होने पर मोदी जी ने 31 दिसंबर को कालेधन के खिलाफ ‘शुद्धीकरण’ के ‘यज्ञ’ को गरीबों और किसानों को समर्पित कर दिया। वित्तमंत्री जेटली के पहले ही बजट भाषणनुमा अंदाज में लोकलुभावनी घोषणाएं कीं। इतना ही नहीं इस बार बजट भी एक फरवरी को मतदान के पहले पेश करने की बात कह दी गई। जाहिर है, इस बहाने भी केंद्र सरकार पांच राज्यों के मतदाताओं को लुभाने की कोशिश करना चाहेगी।
रोहित वेमुला की मौत के बाद मोदी को उत्तर प्रदेश में ही सबसे पहले ‘गो बैक’ का नारा सुनना पड़ा था। दलित उत्पीड़न के मुद्दे पर हंगामे के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल को फेसबुक पर इस्तीफा सार्वजनिक करना पड़ा था। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव में प्रवेश के पहले नोटबंदी के चेहरे को भी दलितों के मसीहा बाबा साहेब आबंडेकर से जोड़ने की कोशिश हुई। आॅनलाइन भुगतान के लिए बने सरकारी ऐप भारत इंटरफेस फॉर मनी (भीम) को जारी करते हुए बाबा साहेब के चेहरे से जुड़ने की कोशिश की गई। लेकिन दूसरी ओर हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला की आत्महत्या मामले में आरोपी प्रिंसिपल अप्पाराव को खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सम्मानित किया, तो क्या उसका कोई संदेश दलित-वंचित जातियों तक नहीं पहुंचा होगा..?
विधानसभा के पिछले चुनाव भाजपा ने मोदी के चेहरे पर ही लड़ा था। उत्तर प्रदेश में भी उसकी यही रणनीति और कह सकते हैं कि मजबूरी भी है। बिहार चुनावों के प्रचार के दौरान अलग तरह के दल का दावा करने वाली भाजपा को भी जातिवादी समीकरणों पर उतरना पड़ा था। इसके बावजूद वहां मोदी के जयघोषकों के मुंह से विकास का ‘वि’ भी नहीं निकला था और वह वहां चारों खाने चित हुई थी।
वहीं दिल्ली में एक समय ‘विकल्प’ का चेहरा बनी आम आदमी पार्टी के पास इस बार विकल्प का टोटका भी नहीं है। दिल्ली में अपना आंदोलनकारी चेहरा खोने के बाद वह पंजाब और गोवा में शक्ति प्रदर्शन में लगी हुई है। सिखों को प्रभावित करने के लिए केजरीवाल ने दिल्ली सरकार के मुखिया के तौर पर घोषणाएं करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। गुरु गोविंद सिंह के प्रकाशोत्सव पर पटना के गांधी मैदान में वे अगर मोदी से पहले जाकर ‘जो बोले सो निहाल…’ बोल आते हैं तो यह भी चेहराबदली की ही कवायद है। दिल्ली के लगभग चार लाख सिख (आठ लाख आबादी) वोटरों के लिए वे जो भी करते हैं, पंजाब की कुर्सी को ध्यान में रख कर करते हैं। शिरोमणि अकाली दल के चुनावों के लिए नया ‘पंथक दल’ तैयार कर बैठते हैं। यानी कल तक जनलोकपाल वाला, विकल्प वाला और सबसे सफेद कमीज वाला चेहरा अब फिलहाल धर्म की भावुकता का चेहरा है। और इसके बाद पटना में नीतीश कुमार का मोदी की नोटबंदी की तारीफ करना और मोदी का नीतीश की शराबबंदी की तारीफ करना। बिहार चुनाव में एक-दूसरे पर हमलावर चेहरा अब गलबहियां का चेहरा बन बैठा।
एक बार फिर से लोकतंत्र के पंच परमेश्वर तैयार हैं अखाड़े में…! मुद्दे भी वही और चेहरे भी वही। जनता के पाले में विकास अभी भी मृग-मरीचिका है और उन्हें चेहरा बदले हुए चेहरों में से एक को चुनना है। अभी तो इस पर पर बातें अशेष हैं..!