आफ्ताब अहमद

 जस्टिस एपी शाह ने लिली कुरियन बनाम एसआर लेविना और अन्‍य(1978) मामले में कहा था कि ‘अल्‍पसंख्‍यकों की रक्षा करना भारत के संविधान का एक अंग है। इस बात का अब कोई मतलब नहीं रह गया है क्‍योंकि इस सिद्धांत पर लगातार हमला हो रहा है। इस महीने की शुरुआत में अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी को कभी मुस्लिम यूनविर्सिटी नहीं माना। इससे इस यूनिवर्सिटी के अल्‍पसंख्‍यक संस्‍थान होने या न होने का पुराना और संवेदनशील विवाद फिर से उठ खड़ा हुआ। राजनीतिक चश्‍मे को हटाकर बजाय इस मुद्दे को समझने की जरूरत है क्‍योंकि इससे न केवल कानूनी सवाल बल्कि भारत के सबसे बड़े अल्‍पसंख्‍यक समुदाय भी जुड़े हुए हैं।

अलीगढ़ यूनिवर्सिटी का कानूनी मामला 1967 से चल रहा है। उस समय सुप्रीम कोर्ट ने एस अजीज बाशा और अन्‍य बनाम भारत सरकार मामले में माना कि इस संस्‍थान की नींव मुसलमानों ने नहीं बल्कि केन्‍द्र विधायिका ने रखी। इसके चलते पूरे देश में मुस्लिमों ने प्रदर्शन किए। लंबे संघर्ष के बाद 1981 में संसद ने अलीगढ़ यूनिवर्सिटी के अल्‍पसंख्‍यक स्‍टेटस देने के लिए 1920 संसोधन एक्‍ट पास किया। इस एक्‍ट से स्‍थापना शब्‍द को हटा दिया गया और सेक्‍शन 2(1) और सबसेक्‍शन 5(2)(सी) को जोड़ा गया। इसके जरिए बताया गया कि यह यूनिवर्सिटी भारत के मुसलमानों की इच्‍छा के अनुसार बना संस्‍थान है। इससे मुस्लिमों ने माना कि यूनिवर्सिटी को अल्‍पसंख्‍यक संस्‍थान का स्‍टेटस फिर से मिल गया। लेकिन पहले इलाहाबाद हाईकोर्ट की सिंगल जज बैंच और फिर एक डिवीजन बैंच ने कहा कि यह यूनिवर्सिटी अल्‍पसंख्‍यक संस्‍थान नहीं है। कोर्ट के अनुसार संसद का संसोधन इसमें बदलाव करने के लिए पर्याप्‍त नहीं है। इस मामले में एक सवाल यह भी है कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की स्‍थापना किसने की।

यदि अजीज बाशा केस में सुप्रीम कोर्ट की टिप्‍पणी पर नजर डाली जाए तो इसके अनुसार अल्‍पसंख्‍यक यूनिवर्सिटी की स्‍थापना नहीं कर सकते यद्यपि एक यूनिवर्सिटी केन्‍द्र और राज्‍य सरकार ही खोल सकती है। क्‍या इससे 1920 में मुस्लिमों के यूनिवर्सिटी खोलने के लिए 30 लाख रुपये इकट्ठे करने के तथ्‍य को नकारा जा सकता है। मुस्लिमों को पता होता कि यह भी अन्‍य संस्‍थानों की तरह ही होगी तो क्‍या वे इतनी मेहनत करते या मोहम्‍मडन एंग्‍लो ऑरियंटल कॉलेज, जिसे कोर्ट ने भी अल्‍पसंख्‍यक समुदाय माना था, का सरेंडर करते। क्‍या यूनिवर्सिटी के नाम मुस्लिम नाम बेमतलब है।

वास्‍तव में दिक्‍कत ‘स्‍थापना’ और ‘शामिल होने’ शब्‍दों के चलते हुआ। भवन निर्माण समेत एक यूनिवर्सिटी की नींव रखना, एक पुराने संस्‍थान को अपग्रे‍ड करने से बिलकुल अलग है। 1920 एक्‍ट पहले से चल रहे संस्‍थान को पहचान देता है। हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि मुसलमानों ने एमएयू की स्‍थापना उसी तरह से की जिस तरह से किसी अन्‍य यूनिवर्सिटी की होती है। एमएयू के केस से न्‍यायपालिका और विधायिका के टकराव का मामला भी सामने आता है।

* लेखक एएमयू में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं।