‘त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा
सात्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु’
मद्भगवदगीता के इस श्लोक में आत्मा के शरीर रूप में धारण करने के बाद उसके गुणों के बारे में कहा गया है। हर शरीर एक जैसा गुण धारण नहीं करता है। इसी शरीर में कोई नायक बनता है तो कोई खलनायक। सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को नायक बनाम खलनायक के खांचे में भी देखा जाता है। साहित्य का उद्देश्य संदेश देना होता है। साहित्य के संदेश को मनोरंजक और कौतुहल भरा बनाने में सहायक होता है वो खलनायक जिसके जरिए नायक को ऊंचा किया जाता है। खलनायक जितना वीभत्स होगा, नायक के चरित्र को उतनी ही ऊंचाई मिलेगी, बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश उतना ही बलवान होगा।
महाभारत जैसे महाकाव्य की यही सफलता है कि यह बुराई पर अच्छाई का संदेश बहुत सपाट तरीके से नहीं देता है। नायक और खलनायक का द्वंद्व एक ऐसा कौतुहल पैदा करता है जिसके कारण इसके पाठक और आधुनिक युग में दर्शक उनके साथ भावनात्मक रूप से नत्थी हो जाते हैं। यही इस महाकाव्य की विशेषता है कि इसके पात्र आज भी छोटे से लेकर बड़े पर्दे पर लोगों का मनोरंजन करते हुए सफलता पाते हैं।
महाभारत में नायकत्व के कई केंद्र हैं। कृष्ण से लेकर अर्जुन व भीष्म तक। लेकिन इसमें घोषित खलनायक एक ही है। शकुनि वह किरदार है जिसके ऊपर महाख्यान के नायकों के चरित्रों को महान बनाकर उभारने का अधिभार है। कई प्रसंगों में दुर्योधन का चरित्र भी नायकत्व की ओर जाने के लिए अधीर होता दिखता है। लेकिन शकुनि उसे फिर से अपने धारदार औजार के रूप में तेज करने लगता है और सफल भी हो जाता है।
आम तौर पर धृतराष्ट्र के पुत्रमोह और उसकी महत्त्वाकांक्षा को महाभारत का मुख्य कारण माना जाता है। कहा जाता है कि कृष्ण चाहते तो युद्ध नहीं होता या धर्म के साथ रहने वाले युधिष्ठिर चाहते तो रक्तपात रुक सकता था। द्रौपदी के प्रण को भी इस रण की वजह करार दिया जाता है। लेकिन इन सब कारणों का जनक है शकुनि। उसने सबसे पहले दुर्योधन के जरिए अशांति और अधर्म का वृक्ष खड़ा किया और उसके नीचे शांति की कोई कोपल नहीं फूटने दी और न ही उस पर धर्म की कोई लता चढ़ने दी। शांति की हर क्रिया के खिलाफ प्रतिक्रिया का माहौल खड़ा किया।
महाभारत साहित्य के सभी रसों से संवरी हुई कृति है। इसमें खलनायक के निर्माण के लिए एक तार्किक जमीन बनाई गई है। कुरुवंश के पितृपुरुष भीष्म खुद तो विवाह नहीं करने का प्रण लेते हैं लेकिन कुरु वंश के सभी कुमारों के लिए योग्य कन्या लाने का काम करते हैं। हस्तिनापुर का जो भी वारिस है उसके लिए भारतवर्ष से श्रेष्ठ कन्या लाना और इसके लिए अपहरण को भी जायज मानते हैं। राजकुमारियों को एक वस्तु की तरह समझने के कारण अंबा के शाप का शिकार होते हैं तो गांधारी से नेत्रहीन धृतराष्ट्र की शादी करवाने के कारण शकुनि को खलनायक बनाने की जमीन मुहैया कराते हैं। भीष्म को हस्तिनापुर के लिए योग्य राजकुमारियों की तो दरकार होती है लेकिन वे विवाह के लिए अपने वंश के राजकुमारों की योग्यता नहीं परखना चाहते हैं।
महाभारत में शकुनि का पदार्पण भीष्म के जरिए कराए बेमेल विवाह से ही होता है। भाई शकुनि को लगता है कि उसकी बहन गांधारी के लिए एक नेत्रहीन राजकुमार का प्रस्ताव ला पूरे गांधार का अपमान किया गया है। यहीं पर भीष्म-प्रतिज्ञा के बरक्स शकुनि की प्रतिज्ञा खड़ी हो जाती है। भीष्म का प्रण है कि वो जब तक हस्तिनापुर को चारों ओर से सुरक्षित नहीं देख लेंगे तब तक मृत्यु को वरण नहीं करेंगे। वहीं शकुनि कुरु वंश के समूल नाश की प्रतिज्ञा लेता है।
आधुनिक बोध कहता है कि खलनायक कोख से पैदा नहीं होते, बनाए जाते हैं। बहन के बेमेल विवाह को देखते हुए शकुनि के मन में कड़वाहट पैदा होती है और वह दुर्योधन को अपने प्रतिशोध के हथियार की तरह तैयार करता है। दुर्योधन के मन में बचपन से ही राजा बनने की महत्त्वाकांक्षा पैदा कर देता है। बालक दुर्योधन पांडवों को इस कदर अपना दुश्मन मानने लगता है कि विष देकर भीम की हत्या की कोशिश भी करता है। बचपन से नफरत की प्रयोगशाला में तैयार हुआ दुर्योधन बड़े होने पर पांडवों को लाक्षागृह में जलाकर मारने के लिए भी तैयार हो जाता है।
शकुनि का खलनायकत्व इतनी धीमी गति से अपना काम करता है कि उसे न तो युद्ध के लिए जिम्मेदार माना जाता है और न ही युद्ध के लिए उसकी निंदा की जाती है। कुरुक्षेत्र के मैदान में भी उसके खाते में वीरता का कोई किस्सा नहीं है। उसका अंत भी किसी खलनायक की तरह वीभत्स नहीं होता है। शकुनि की साधारण मौत का भी कोई महिमामंडन नहीं होता है।
शकुनि महाभारत के पूरे आख्यान की धुरी है। अगर वह न हो तो इस महाकाव्य की मनोरंजकता शून्य है। इस धर्मयुद्ध में छल के बीज बोकर उसे इतना बड़ा वृक्ष बना देता है कि धर्म की पुनर्स्थापना के लिए छल को न्यायोचित ठहाराया जाता है। एक स्थापना खड़ी हो जाती है कि अगर पांडव भी छल का जवाब छल से नहीं देते तो युद्ध हार जाते। कौरव पक्ष के हर बड़े योद्धा की मृत्यु छल से ही होती है। युद्ध का अंत छल के माध्यम को न्यायोचित बता अंत भला तो सब भला की स्थापना खड़ी कर देता है।
नायक और नायिका के बाद खलनायक का त्रिकोण ही साहित्य में पाठकों को बांधे रखने की ऊर्जा देता है। नायक के हाथों खलनायक का संहार वो शाश्वत सुख है जिसे दुनिया की हर सभ्यता का साहित्य अपने पाठकों को देता है। खलनायकों को खास तरह की संवाद शैली और रणनीति से लैस किया जाता है जिसके प्रतिपक्ष में नायक तैयार होता है। साहित्य से लेकर सिनेमा तक में खलनायकों को छाप छोड़ने वाला किरदार दिया जाता रहा है। चाहे रामायण में रावण हो या फिर हिंदी सिनेमा का लोकप्रिय किरदार गब्बर सिंह। ‘शोले’ में लोगों के बीच गब्बर की शैली और संवाद जितना लोकप्रिय हुआ उतना उसके नायकों का नहीं।
खलनायकों की एक आम छवि यह बनाई गई है कि वह अंत तक बदलना मंजूर नहीं करता है और मारा जाता है। अंत तक लड़ने के कारण ही वो लोकप्रियता में नायक की बराबरी करता है। शकुनि जिस दुर्योधन को खलनायक बनाता है, उसके साथ भी ऐसा ही होता है। दुर्योधन अंत तक लड़ता है और उसका अंत अधर्म का सहारा लेकर होता है इसलिए वहां पर भीम का नायकत्व धुंधला पड़ जाता है, मरते हुए दुर्योधन के चरित्र में एक चमक आ जाती है।
खलनायक के द्वारा खड़ी की गई बाधा ही नायकत्व की गाथा बनती है। शकुनि गांधारी के विवाह के बाद से ही महाभारत की जमीन तैयार कर रहा था, जिसे धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ भीष्म ने भी अनदेखा किया। शकुनि ने धर्म के रास्ते में बाधा खड़ी करने वालों की ऐसी फौज तैयार की कि भगवान कृष्ण भी युद्ध के नायक को जैसा को तैसा करने की सलाह ही देते हैं। यह शकुनि के चरित्र का ही प्रभाव है कि छल को छल से ही काटा गया। शकुनि की खलनायकी महाभारत के संदेश को नीरस नहीं होने देती है।