ऋण कृत्वा घृतं पीबेत
भस्मी भूतस्य देहस्य
पुनरागमनं कृत:
यह चार्वाक दर्शन है। हमारी संस्कृति में गीता है तो चार्वाक का भोगवादी दर्शन भी है। यह कहता है कि जब तक जियो सुख से जियो, कर्ज लेकर घी पियो। शरीर भस्म होने के बाद वापस नहीं आता है। लेकिन, भारतीय सभ्यता अपनी अर्थव्यवस्था को इस भोगवादी विचार से दूर रखने की ही कोशिश करती रही। साधारण समाज में कर्ज के लाल निशान को साख के खिलाफ ही देखा जाता था।
Tax दिए जाओ और बचत की चिंता न करो
अभी तक भारतीय अर्थव्यवस्था का आधार मध्य-वर्ग था तो उसके लिए सबसे पवित्र-पूंजी थी कर्मचारी भविष्य-निधि कोष। भविष्य-निधि यानी बचत की बुनियाद। कोई नागरिक निजी तौर पर बचत करना चाहे, या न चाहे सरकार ने उसके लिए बचत के प्रावधान को अनिवार्य बनाने की कोशिश की थी। नागरिक के खाते में बचत सरकार की भी जिम्मेदारी थी। लेकिन, सरकार का नागरिकों के प्रति यह अभिभावकीय अस्तित्व अस्त हो रहा है। हमने पिछले स्तंभ में लिखा था कि इस बार के बजट का मूल स्वर यही है कि कर दिए जाओ और बचत की चिंता न करो। ताजा बजट के कराधान में बचत पर कोई छूट नहीं है तो, युवा पीढ़ी के लिए अब बचत शब्द ऐसा हो जाएगा जो उनके पुरखों के आर्थिक शब्दकोश में हुआ करता था।
डेबिट कार्ड के बजाय क्रेडिट कार्ड से भुगतान में तेजी आई
हालिया हुए एक आर्थिक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि कोविड के बाद डेबिट कार्ड के बजाय क्रेडिट कार्ड से भुगतान में तेजी आई। डेबिट कार्ड छोड़ कर क्रेडिट कार्ड की तरफ जाने का मतलब है कमाई से कर्ज की व्यवस्था की ओर जाना। अगर आप आमदनी अठन्नी और खर्च रुपैया कर रहे हैं तो आप इस नई अर्थव्यवस्था वाली सरकार के सपनों के नागरिक हैं। एक ऐसा नागरिक जो सिर्फ आज में जिए और खर्च करे, कल के बारे में बिलकुल न सोचे।
पहले की सरकारें भी अपने लिए बचत का प्रावधान रखती थीं। सड़क, पुल जैसी आधारभूत बुनियादी परियोजनाओं के लिए सरकार पैसा वहीं से लाती थी जो लंबे समय के लिए बचत के नाम पर छोड़ दिए जाते थे। भविष्य-निधि कोष सिर्फ नागरिक ही नहीं सरकार की भी पूंजी होती थी। भविष्य-निधि में लोग लंबे समय के लिए निवेश करते थे। पैसा इसी बचत से आता था। सरकार और नागरिक दोनों एक-दूसरे के लिए जिम्मेदार होते थे।
भविष्य-निधि लोगों के सपनों का चक्रवृद्धि ब्याज हुआ करती थी
अब धीरे-धीरे सरकार की पूरी कोशिश है कि वह किसी भी स्थिति के लिए जिम्मेदार नहीं हो। सब कुछ बाजार ही तय करे। भविष्य-निधि कोष का शगुन यह माना जाता था कि किसी आपदा के समय में ही उसमें हाथ लगाने की नौबत आए। वर्तमान का शगुन यही कि भविष्य-निधि अनछुई रहे। अगर आप इसे वक्त से पहले छेड़ रहे हैं तो आपका बही-खाता ठीक नहीं है। भविष्य-निधि लोगों के सपनों का चक्रवृद्धि ब्याज हुआ करती थी। खाते में कितने पैसे जमा हुए, ब्याज मिलने के बाद कितने की वृद्धि हुई यह आंकड़ा अद्यतन होना संतान के विवाह का खर्च, घर को दो मंजिला बनाने की रकम के जुगाड़ होने का संदेशा होता था।
आज की तारीख में भविष्य निधि पर ब्याज दर इतना कम हो गया है कि युवा पीढ़ी उसे बोझ की तरह देखने लगी है। उनके लिए तनख्वाह का मतलब उतना ही है जितनी हाथ में आए। वे किसी भी समय भविष्य निधि के खाते से तय पैसे की निकासी कर लेना चाहते हैं कि इसमें रखने से क्या हासिल होगा? भविष्य निधि की तो बात छोड़िए आज की पीढ़ी को लगने लगा है कि बैंक में ही पैसे जमा करके रखने से क्या होगा? इससे तो अच्छा अपना कमाया खर्च कर ही दो और बाजार से भी कर्ज लेने से मत हिचको। भविष्य-निधि का पैसा, बैंक का पैसा या किसी और जगह का पैसा जब जाना बाजार में ही है और उन पैसों को बाजार के खतरे से अपने स्तर पर जूझना ही है तो फिर पूरी तरह बाजार पर ही क्यों न निर्भर हो जाया जाए?
आज पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था का हाल यह है कि लोगों की खरीद क्षमता घट रही है। अघोषित तौर पर कई जगह की अर्थव्यवस्था को मंदी का नाम दिया जा चुका है। मंदी का कारण यही होता है कि उत्पादन तो बढ़ा, लेकिन लोगों की खरीद क्षमता नहीं बढ़ी। मंदी से निपटने का एक ही तरीका होता है कि बाजार में पैसा डाला जाए। अब वह ब्याज-मुक्त कर्ज के तौर पर हो या किसी और रूप में। इसके साथ ही बाजार सुविधा देता है किश्तों में सामान खरीदने की। मतलब आपके पास अभी खरीद के लिए पैसा उपलब्ध नहीं है तो बाजार चुका देगा, आपकी जेब में आगे कितने पैसे आएंगे उसका आकलन कर आज ही आपकी जेब खाली करवा दी जाएगी। एक ऐसी व्यवस्था बन चुकी है जिसमें लोग खरीदारी करते रहें और उस खरीदारी से बाजार में उठान हो।
‘इजी मनी, शार्ट टर्म लोन’ लोगों की जुबां पर है
भारतीय अर्थव्यवस्था में नकदी के संकट से निपटने के लिए जो रास्ता चुना गया है वह आनेवाले समय में खुद ही एक बड़ा संकट बनता दिख रहा है। आज की पीढ़ी कर्ज आधारित व्यवस्था के चक्रव्यूह में है। अब तो कर्ज लेने के लिए मोबाइल पर ऐप है। पहले एक कर्ज लो और उसे चुकाने के लिए दूसरा कर्ज लो। और, यह चक्र बहुत आराम से तीसरे से चौथे कर्ज तक पहुंच जाता है। ‘इजी मनी, शार्ट टर्म लोन’ लोगों की न सिर्फ जुबां पर है बल्कि अर्थव्यवस्था का अहम हिस्सा बन चुके हैं। कोई अपने क्रेडिट कार्ड से कर्ज ले रहा तो कोई किसी खास ऐप से।
एक चीनी कहावत है कि अगर आप लोगों का भला चाहते हैं तो उन्हें खुद से मछली पकड़ना सिखाएं न कि उनके मुंह तक मछली पहुंचाएं। मंत्रिमंडल के सभी मंत्री चुनावी मैदानों में बजट के जिन हिस्सों का गुणगान कर रहे हैं वह तो मछली मुंह तक पहुंचाने वाला ही है। मुफ्त राशन की योजना आने वाले चुनाव में भी बड़ा सहारा बनेगी। सरकार के प्रवक्ता यह भी दावा कर रहे हैं कि यह किसी तरह की रेवड़ी नहीं है। इसके बाद जो वर्ग बचा है उसे खर्च और कर्ज से हर चीज की भरपाई करनी है।
बाजार की पहली जरूरत खरीदार थे। इसके लिए फिलहाल तो सरकार को यही रास्ता सूझा कि जब लोगों की आय न बढ़े तो उनके बचत करने के रास्ते ही बंद कर दिए जाएं। 2023-24 के आम बजट में लाई गई नई कर-व्यवस्था उन्हीं लोगों को पसंद आई, जो किसी तरह का निवेश करना नहीं चाहते हैं। अब उल्टा हो रहा कि बचत के समर्थक लोग पुरानी कर-व्यवस्था में ही रहने के विकल्प पर सोच रहे हैं।
सरकार ने खुद ही अपनी नई कर व्यवस्था को इतना अनाकर्षक बना दिया है कि बाजार के जानकारों ने इसे उन घरेलू निवेशों के लिए विनाशक करार दिया जिनकी वजह से किसी विदेशी आर्थिक आपातकाल से अर्थव्यवस्था अपना बचाव कर लिया करती थी।
म्युचुअल फंड को लेकर व्यस्क हो रही अर्थव्यवस्था इस पतझड़ से अलग परेशान है। स्वास्थ्य बीमा के बाजार को भी अपनी हालत में सुधार के आसार नहीं दिख रहे हैं। पिछले काफी समय से कर छूट के ही कारण लोग विभिन्न बचत योजनाओं में पैसे लगाते थे। नौकरीपेशा लोग अपने पर निर्भर परिजनों का भी स्वास्थ्य बीमा लेने लगे थे।
अभी तो वित्त मंत्रालय ने घरों में पीढ़ियों के बीच एक नई खाई पैदा कर दी है। भविष्य निधि वाले अभिभावक क्रेडिट कार्ड वाली पीढ़ी के सामने पोंगापंथी सरीखे हैं। अपनी तनख्वाह से बचत करने के एक सौ एक तरीके का सुझाव देने वाले आर्थिक सलाहकार अपनी दुकान को चलाने के और उपाय ढूंढ रहे हैं। कमाई आपकी कितनी भी हो खर्च में एक साम्यवादी व्यवस्था ला दी गई है। बचत-मुक्त बाजार में पूछा जा रहा है, अब तेरा क्या होगा भविष्य-निधि?