शहर के आईन में
ये मद भी लिक्खी जाएगी
जिंदा रहना है तो
कातिल की सिफारिश चाहिए
–हकीम मंजूर
भीड़ की हिंसा-पिछले कुछ सालों में यह भयावह शब्द भारत के राजनीतिक शब्दकोश में शामिल हो चुका है। बहुमतवाद एक ऐसी प्रवृत्ति है जो भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को कमजोर कर रही है। जिस पंजाब ने हाल के दिनों में एक सफल किसान आंदोलन का इतिहास रचा, वहां दो लोगों की पीट-पीट कर हत्या कर दी जाती है। हत्या का आरोपी गिरफ्तार कर लिया गया है लेकिन भीड़ की हिंसा एक बार और अपना भय कायम कर गई है। ऐसे मामलों में हमारी चुप्पी आगे उस हंगामे की जमीन तैयार करती है जहां हर फैसला भीड़ का हल्ला ही तय करेगा। आखिर इस तरह की घटना होती क्यों है? लंबे समय से देखा जा रहा है कि संविधान और कानून की बेअदबी करने वालों का राजनीतिक महिमामंडन किया जा रहा है। कथित धर्म संसद के नाम पर कापी-किताब रख कर हथियार उठा लेने का भाषण दिया जा रहा है। इस खतरनाक प्रवृत्ति पर बेबाक बोल।
हाल ही में लोकतंत्र शिखर सम्मेलन में भारत की भागीदारी अहम रही थी। दुनिया के नक्शे पर सफल लोकतंत्र की बात आते ही भारत सहचर शब्द के रूप में उभरता है। दिल्ली की सीमा पर स्थगित हुए किसान आंदोलन को हमने अपने लोकतंत्र की बड़ी सफलता के रूप में देखा। लेकिन अभी जो पंजाब से लेकर उत्तराखंड में हुआ वह हमारे लिए खतरे की घंटी है।
जिस राज्य की जमीन पर किसान आंदोलन शुरू हुआ उसी पंजाब में दो लोगों की पीट-पीट कर हत्या होती है। हरिद्वार में धर्म संसद के नाम पर एक खास समुदाय के खिलाफ पूरी तरह हथियार उठाने का नफरत भरा आह्वान किया जा रहा है।
इस तरह के ज्यादातर मामलों में व्यवस्था अपना काम कर रही है का दिलासा देकर सरेआम कानून व संविधान की बेअदबी पर हर कोई खामोश हो जाना चाहता है। धार्मिक बेअदबी की निंदा कर उस हत्या पर बोलने से परहेज किया जाने लगता है जिसे हमारे राजनीतिक शब्दकोश में भीड़ के द्वारा की गई हत्या का नाम दिया जा चुका है। एक ऐसा शब्द जो लगातार हमारे लोकतंत्र को सलीब पर लटका रहा है।
दिल्ली के जंतर-मंतर पर मेरे नाम पर नहीं (नाट इन माय नेम) के मंच से भाषण देने वाले नेता अन्य जगहों पर पुख्ता जानकारी की प्रतीक्षा और साजिश शब्द से ही काम चला रहे थे। कानून ने तो अपना काम किया लेकिन आप उस माहौल के खिलाफ बोलने में इतनी देर क्यों कर रहे थे। चौराहे पर फांसी देने वाली बात वो नेता बोल देते हैं जिन्होंने संविधान की शपथ लेकर, उसकी रक्षा का वचन देकर संसद में प्रवेश किया है।
जिस राज्य ने आजादी के बाद हुए एक सफल ऐतिहासिक आंदोलन का जश्न मनाया वहां भी इस तरह की हत्या होना दुर्भाग्यपूर्ण है। चाहे भाजपा के नेता हों या दिल्ली सीमा पर अपना जुझारूपन दिखा चुके किसान नेता या पंजाब में नई तरह की राजनीति का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी। इनके लिए लिए पंजाब अभी सिर्फ विधानसभा चुनाव की जमीन है जहां ये बहुमत के खिलाफ बोलकर अपने लिए किसी तरह के कांटे नहीं बोना चाहते हैं।
दादरी से लेकर अमृतसर, कपूरथला व हरिद्वार तक को समझने के लिए हमें धर्म और सत्ता के इतिहास को एक बार खंगाल ही लेना चाहिए। मध्यकाल का पूरा इतिहास बताता है कि धर्मसत्ता और राजसत्ता में गहरा संबंध है। दोनों एक-दूसरे से विस्तार पाते हैं। भारत में भी प्राचीनकाल से ही धर्मसत्ता के जरिए ही राज्यसत्ता ने अपना विस्तार पाया। यूरोप में पुनर्जागरण के बाद विज्ञानवाद का समय आया। वहां तक आते-आते एक चीज समझ आई कि धर्म व्यक्ति की निजी मुक्ति का मामला है। उसके बाद से धर्म को उदार नजरिए से देखा जाने लगा।
प्राचीन, मध्य और आधुनिक का फर्क व्यक्ति-सत्ता और धर्म के बीच के संबंधों का फर्क भी है। दुनिया भर में आधुनिकता की अवधारणा उदार सत्ता और उदार धर्म के साथ ही स्थापित होती है। दुनिया में वही देश सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक रूप से विकसित हुए हैं जिन्होंने अपने कानून और विधान से धार्मिक कट्टरता को दूर रखा।
भारत में कबीर और गुरु नानक जैसे संतों ने धर्मसत्ता के सताए लोगों को नया आध्यात्मिक आधार दिया। गुरुओं के शुरू किए उदार पंथ ने उन लोगों की आध्यात्मिक भूख शांत करने की भूमिका निभाई। धर्मसत्ता और राजसत्ता के जरिए हाशिए पर भेजे गए लोगों में आत्मविश्वास पैदा किया कि वो अपने आत्म को परमात्म से जोड़ सकें। भारत के जागरण काल में भी चाहे विवेकानंद हों या स्वामी रामकृष्ण परमहंस वाली परंपरा, उनसे जुड़े लोगों ने लगातार धर्म की आध्यात्मिक भूमिका पर जोर दिया। धर्म जितना उदार होगा व्यक्ति उसके साथ उतना ही सहज, सरल और स्वतंत्र होगा और किसी के व्यक्तित्व को उदार विस्तार देगा।
धर्म को राजसत्ता से अलग करने की मुहिम के साथ ही जनतांत्रिक मूल्य भी पैदा हुआ। इसी जनतांत्रिक मूल्य के आधार पर पूरे संविधान की रचना हुई। वह संविधान जो व्यक्ति को केंद्र में रख कर उसकी स्वतंत्रता को तय करने का लक्ष्य रखता है। यह जनतांत्रिक लक्ष्य उसी राह से अर्जित है जो एक समय में उदार धार्मिक पंथों ने दिखाई थी। धर्मसत्ता या राजसत्ता के नियम से अलग हट कर व्यक्ति की सत्ता को केंद्र में रख कर व्यक्ति की मुक्ति का आध्यात्मिक आधार देखा। इसी मूल्य ने आज के संवैधानिक नागरिक की बुनियाद रखी। नागरिक शब्द का भावार्थ है व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नैतिक कर्तव्यबोध का भान।
संविधान स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की अवधारणा को मानता है। यह जनतांत्रिक मूल्यों से संचालित होता है न कि बहुमत की संख्या को किसी भी फैसले का आधार बनाता है। जो बहुमत को पसंद हो जरूरी नहीं कि वो संवैधानिक और जनतांत्रिक भी हो। हमारे संविधान के जनतंत्र का आध्यात्मिक आधार भी है। महात्मा गांधी भी उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ाई में इसी मूल्य को लेकर आगे चले थे। उनकी राजनीतिक मुहिम में अगर ईश्वर, अल्लाह, तेरो नाम, सबको सन्नमति दे भगवान का नारा शामिल था तो इसलिए कि सारे भेदभाव भुला कर हम व्यक्ति के तौर पर अपनी स्वतंत्रता के लिए सेनानी बन सकें।
हमारी इस आध्यात्मिक जनतांत्रिक परंपरा को तोड़ कर उसे बहुमतवाद में बदलने की कोशिश हो रही है। पहले बहुमत का धर्म अपनाओ और फिर उस धर्म के मंच का सहारा लेकर देश के अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों की हत्या का आह्वान करो। हरिद्वार में हुई कथित धर्म संसद उस संसद के लिए खतरा है जो जनता के द्वारा चुनी जाती है। आज चुनावों के समय कोई अयोध्या की यात्रा करवा रहा है तो कोई काशी का गलियारा बनवा रहा है। कथित सेकुलर दल के नेता धार्मिक बेअदबी पर कानून बना देने की ही बात कर रहे हैं। जो भी राज्य चुनाव के मुहाने पर होता है वहां सभी दल खुद को धर्म कांटे पर तुलवाने लगते हैं।
भारत सामाजिक व सांस्कृतिक रूप से एक धार्मिक देश है। यहां चुनावों के समय पर धर्म को लेकर जो खास तरह का शोर मचाया जाने लगा है और खास तरह की चुप्पी साधी जाने लगी है उस पर सबसे पहले नागरिकों को ही चेतना होगा। कहीं पर भी भीड़ की हिंसा पर चुप्पी साधी जाएगी तो अन्य जमीनी मुद्दों पर भी चुप्पी साधने की जमीन तैयार हो जाएगी। ऐसी खास प्रवृत्ति पर चुप्पी आगे किस तरह हिंसा का हंगामा तैयार करती है इसके उदाहरण भरे पड़े हैं।
बहुमत जब बेअदब हो जाता है तो वो सबसे पहली चोट जनतंत्र को पहुंचाता है। यह कौन तय करेगा कि पंजाब में जो व्यक्ति मारा गया उसने क्या अपराध किया? जाहिर है किसी भीड़ को तो नहीं करना है। लेकिन उत्तर प्रदेश से लेकर झारखंड और पंजाब तक यह प्रवृत्ति फैल रही है। नागरिकों को कानून और संविधान की बेअदबी करने वाली भीड़ बना दिया जा रहा है। यह अगर हर जगह इसी तरह तय होने लगे तो हम फिर वहीं पहुंच जाएंगे जहां से आगे बढ़ने के लिए नानक और कबीर जैसे गुरुओं ने अपने उदार ज्ञान की अंगुली पकड़ाई थी।