शुरुआत इस अस्वीकरण के साथ कि हम जाति जनगणना के खिलाफ नहीं हैं। हमारा मकसद हर मुद्दे की तरह सिर्फ सत्ता से सवाल करना है। उस सत्ता से जो नारी वंदन अधिनियम में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए ‘कोटे के अंदर कोटा’ की मांग को खारिज करते हुए लाई। यह मांग इस सोच के साथ खारिज की गई कि हर जाति की स्त्री पितृसत्ता से पीड़ित है। समग्र स्त्रियों की एक ही जाति है-पितृसत्ता की पीड़ित के रूप में। ऐतिहासिक तथ्यों को देखें तो जाति-व्यवस्था का निर्माण ही पितृसत्ता को ‘अक्षुण्ण’ रखने के लिए किया गया था। सामाजिक चेतना के विकास ने इस ‘अक्षुण्ण’ को क्षय करना शुरू किया। आधुनिक स्त्रियों ने जब अपनी मर्जी से अंतरधार्मिक विवाह करना शुरू किया तो पहली कराह पितृसत्ता की तरफ से ही उठी थी। जिन घरों में जाति गुम गई थी वहां पितृ-पक्ष से जाति निर्धारण वाली परंपरा में क्या जाति लिखना अनिवार्य होगा? यह अभी स्पष्ट नहीं। अगर सरकार वैकल्पिक ही सही जाति जानना चाह रही है तो इसका मतलब यह है कि बच्चे की पहचान में पितृ-पक्ष हावी होगा और ऐसे प्रयासों में मां गुम जाएगी…।
बात शुरू करते हैं ‘महाभारत’ से। सत्यवती एक मछुआरे की पुत्री थी, जो शूद्र वर्ण से संबंधित थी। राजा शांतनु से विवाह के बाद दोनों की संतति भीष्म, चित्रांगद और विचित्रवीर्य को क्षत्रिय कुल का ही माना गया। महाभारत की एक और किरदार शंकुतला, विश्वामित्र (जो क्षत्रिय से ब्राह्मण बने) और अप्सरा मेनका की पुत्री थी। राजा दुष्यंत से विवाह के बाद उनकी संतान (भरत) क्षत्रिय थी। यदुवंशी राजा शूरसेन की पुत्री होने के कारण कुंती क्षत्रिय कुल की थी, लेकिन सामाजिक मानदंडों के तहत घोषित पिता नहीं होने के कारण वे अपने पुत्र कर्ण को अपना कुलनाम नहीं दे सकती थीं। कर्ण की जाति तय हुई उस दंपति के पुरुष से जिसने उसका पालन-पोषण किया। मध्यकाल में राजपूत कुल की जोधाबाई का विवाह अकबर से हुआ। उनकी संतान को मुगल वंश का दर्जा मिला।
इतिहास की असाधारण स्त्रियों की संताने पिता के वर्ण से जानी गई है
सत्यवती से लेकर जोधाबाई तक इतिहास की असाधारण स्त्रियां हैं। फिर भी इनकी संतानें इनके पिता के वर्ण से जानी गईं। इन इक्का-दुक्का असाधारण स्त्रियों को हम जानते हैं, लेकिन हमारा पितृसत्तावादी सामाजिक व सांस्कृतिक इतिहास उन गुम हुई माताओं का है जिनकी संततियां अपने पिता के कुलनाम से जानी जाती हैं।
भारत उन चुुनिंदा लोकतांत्रिक देशों में से है जिसने आजादी के बाद अपने संविधान में किसी तरह का जातिगत, धार्मिक व लैंगिक भेदभाव नहीं किया। सबको समान अधिकार दिए गए। यहीं से शुरू हुई नए भारत की नई तस्वीर। ‘हिंदु-मुसलिम-सिख-ईसाई हम सब हैं भाई-भाई’ के नारे को शब्दश: लेते हुए अंतरधार्मिक शादियों की शुरुआत हुई। यह भी सच है कि कोई देश रातों-रात कागजों पर तैयार नहीं होता है। संविधान के दिए अधिकारों को सीमित तबके ने ही सही जमीन पर उतारने की धीरे-धीरे कोशिश की।
अंतरधार्मिक शादियां करने वाले दंपतियों के सामने मुहब्बत का मधुमास खत्म होने के बाद सबसे बड़ा सच सामने आता था, उसकी संतान के रूप में। संतान का धर्म/जाति क्या हो? खास कर तब जब महिला अपनी अस्मिता को लेकर सजग हो, तो लाजिम था कि पहली आपत्ति होती कि बच्चा, बाप के धर्म के नाम से ही क्यों जाना जाए? इसका हल यही था कि उपनाम में धर्म व जाति निरपेक्ष रहा जाए। बच्चे के नाम के साथ कोई सुंदर सा जातिविहीन उपनाम लगाया जाए।
समाज ने इस सुंदर सोच को स्वीकारा तो उस वक्त का सिनेमा भी इनके साथ हुआ। ऐसे घरों के लिए सिनेमा में लोरियां बनीं। बच्चा मां-बाप के कंधे पर झूलते हुए सुनता था-तू हिंदू बनेगा न मुसलमान बनेगा/इंसान की औलाद है इंसान बनेगा…। फिल्मों के नायक जातिविहीन से हो गए और तत्कालीन सिनेमा के हिसाब सेइस मुल्क में दो ही जाति थी-अमीर और गरीब। हमने अपने देश में वह छोटा सा सुंदर समय भी देखा है जब किसी के नाम से जाति पता नहीं चलती थी और जबरन पूछने पर वह अपनी जाति बताता था-इंसानियत। कोई बच्चा जाति पूछने पर कहता था कि मम्मी-पापा ने बताया, हम ‘इंडियन’ हैं।
वो मासूमियत से जाति पूछने वाले पर पलटवार भी कर देता था-क्या आप ‘इंडियन’ नहीं हैं। आर्य समाज के मंदिर बिना किसी जातिगत भेदभाव के वयस्क प्रेमी जोड़े की शादी के लिए प्यार का मंदिर बन गए थे। आर्य समाज के कार्यक्रमों में दहेज और जाति दोनों को ही कुप्रथा मानते हुए इनके खिलाफ नारे लगाए जाते थे। इसके हर कार्यक्रम में भेदभाव मुक्त समाज बनाने का संकल्प लिया जाता था।
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यह सुंदर समय छोटा ही रहा। जल्द ही राजनीति, जाति की धुरी पर केंद्रित हो गई। शिक्षा व रोजगार में समानता लाने में नाकाम रही सत्ता को लगा कि अब जाति से ही काम चलाया जाए। धर्म व जाति निरपेक्ष ऐसे हंसते-मुस्कुराते परिवार में एक दिन सरकारी कर्मचारी पहुंचेगा। वह घर के मुखिया से उसकी जाति पूछेगा। हो सकता है कि दंपति अपनी जाति बताने से मना कर दें। लेकिन इतने आगे बढ़ने के बाद इस प्रतिगामी कदम का घर के बच्चे पर क्या असर पड़ेगा? जब सरकार ही जाति पूछ रही है तो घर के बाहर लोग उससे जाति पूछेंगे ही, वो कहां तक बचेगा? जाति तो संसद तक में पूछ दी गई।
मियां-बीवी राजी तो क्या करेगा काजी वाली शादी में राज्य ऐसा काजी बनकर आ गया कि धर्म के बंधन को तोड़ने की प्रगतिशील बगावत बेमानी हो गई। कभी धर्म वाले काजी को शादी में अप्रासंगिक कर देने वाले जोड़े ने अदालत में शादी की थी। संविधान ने इन्हें अदालत में अपनी मर्जी से शादी करने का अधिकार दिया था। जिस जोड़े ने अपने धर्म को नकार कर शादी में संविधान को अपनाया आज उसके दरवाजे पर जाति दस्तक देने आ रही है। मान लीजिए इस जोड़े में अगर स्त्री मुसलिम है तो फिर उसकी और बच्चे की जाति पति की जाति के खाते में जाते ही इस अदालती विवाह की पहली शर्त समानता खंडित हो जाएगी।
इतिहास की बुनियादी किताबें ही यह स्पष्ट कर देती हैं कि जाति व्यवस्था का निर्माण पितृसत्ता को बनाए रखने के लिए किया गया। जाति-व्यवस्था के बिना पितृसत्ता का टिके रहना संभव ही नहीं है। दोनों को अलग कर देते ही पुरुषवादी वर्चस्व की समस्या काफी हद तक खत्म होती दिखती है।
याद करें, जब संसद में महिला आरक्षण की कवायद शुरू हुई थी तो इसी जाति पर राजनीति दो खेमों में बंट गई थी। महिला आरक्षण में अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की मांग करते हुए शरद यादव के शब्द ‘परकटी महिलाओं’ ने बहस छेड़ दी थी। मौजूदा सत्ता ने मौजूदा नारी वंदन विधेयक में इसी सोच को माना कि स्त्री सिर्फ स्त्री होती है उसकी कोई जाति नहीं होती। हर जाति की स्त्री पितृसत्ता को ढोने के लिए मबजूर है। पितृसत्ता की पीड़ित स्त्रियों के लिए स्त्री आरक्षण को स्त्री मुक्ति का औजार माना गया जिसमें जाति से परे स्त्रियों का बहनापा देखा गया। फिलहाल जातिगत जनगणना को तुरुप का पत्ता मानने वाली मौजूदा सत्ता ने कुछ समय पहले ही कहा था कि इस देश में सिर्फ चार जाति है-गरीब, युवा, महिला और किसान। कुछ ही समय पहले सत्ता ने सत्तर-अस्सी के दशक के सिनेमाई नायक की तरह सिर्फ इन चार जातियों के उत्थान का संकल्प लिया था।
सिनेमा हो या असल जिंदगी, आदर्श स्थापित करना और नायक बनना मुश्किल होता है। ‘हिंद देश के निवासी सभी जन एक हैं’ वाला आदर्श राजनीति के लिए इसलिए मुश्किल हो रहा था कि उसने सबको समान शिक्षा और रोजगार दिलाने की दिशा में ठोस काम ही नहीं किया। हर तरह के वादों-इरादों की मियाद खत्म हो गई तो राजनीति ने जाति की ओर लौटो का नारा दिया। आधिकारिक जाति जनगणना की अधिसूचना तो अभी जारी हुई है। देश की राजनीति तो पिछले तीन दशकों से ज्यादा जाति गिनने में ही व्यस्त है।
भारत का संविधान उत्सव है उस नागरिकता का जिसमें स्त्री और पुरुष समान हैं, उनकी निजी पहचान है। संंविधान ने नागरिकों की निजता की रक्षा करने की जिम्मेदारी राज्य को सौंपी है। 1947 की 14-15 अगस्त की दरम्यानी रात को भारत के नागरिकों ने जब ‘नियति से साक्षात्कार’ किया था तो स्त्री व पुरष दोनों ने बिना किसी धार्मिक व जातिगत भेद के आगे बढ़ने का सपना देखा था। 2011 की जनगणना में धर्म का खंड शामिल था लेकिन इसे भरना अनिवार्य नहीं था। बहुत से लोगों ने इसे खाली छोड़ा था।
जिस कालम को तब कई लोगों ने खाली छोड़ा था उस कालम को छोड़ने के बजाय जाति का एक कालम और जोड़ दिया गया है। उम्मीद है यह अनिवार्य नहीं होगा। वैकल्पिक ही सही, इसने आज हमारे सामने फिर से पुरातन सवाल खड़ा कर दिया कि बच्चे की पहचान किससे होगी? पहचान का सवाल अगर जाति के संदर्भ में है तो परंपरावादी तरीके से पहचान पिता से होगी। ऐसा न मानने वाले तबके के बारे में राजनीति ने क्या सोचा है? क्या लंबे संघर्ष के हासिलों के मलबे में एक बार फिर से मां गुम जाएगी…।