देश के स्कूलों, कालेजों को हिंदी, गणित, विज्ञान, समाजशास्त्र जैसे विषयों को पढ़ाने में नाकाम मान लेने या बना देने के बाद इन शैक्षणिक संस्थाओं की छवि के मलबे पर व्यावसायिक कोचिंग केंद्र बने। अपने घर के पास के स्कूल-कालेजों से निराश अभिभावक बच्चों को बड़े शहरों के कोचिंग केंद्रों में भेजने लगे। सरकारी शैक्षणिक संस्थानों के मलबे पर खड़े इन व्यावसायिक केंद्रों में विद्यार्थियों को सरकारी अधिकारी बनने का सपना दिखाया जाता है। जो थोड़े युवा यह सपना पूरा कर भी लेते हैं वे अधिकारी बन कर हर ‘सरकारी’ को खारिज करने वाली योजनाएं ही बनाते हैं। दिल्ली के राजेंद्र नगर की कोचिंग में तीन विद्यार्थियों की डूब कर हुई मौत के बाद इन संस्थाओं की दिव्य कीर्ति पर जो सवाल उठे हैं वो कोई ठोस रास्ता दिखा पाएंगे या जल्द भुला दिए जाएंगे? जब जमीनी विश्वविद्यालयों का अनुदान सरकार साठ फीसद तक घटा रही है तो यूट्यूब यूनिवर्सिटी के इन दिव्य गुरुओं की कीर्ति का फलना-फूलना तय है। दिव्य गुरुओं के कोचिंगनुमा आश्रमों पर पनपी आस्था बनाम शिक्षा व्यवस्था पर बेबाक बोल

दिल्ली का मुखर्जी नगर। साधारण सा सलवार-सूट पहने एक स्त्री यहां के पार्क की बेंच पर बैठी दिख जाती है। वह स्त्री सालों पहले जोशीली युवा के रूप में मुखर्जी नगर आई थी। उसका एक ही सपना था, आइएएस बनने का। पूरी मेहनत के साथ सारे मौके बीत जाने तक उसे सफलता नहीं मिल पाई। सिविल सेवा नहीं तो कुछ भी नहीं वाली मन:स्थिति ने उसका मानसिक संतुलन बिगाड़ दिया। उम्र और मौके खत्म होने के बाद भी वह आज तक मुखर्जी नगर से बाहर नहीं निकल पाई। वह यहीं-कहीं भटकती मिल जाती है।

हजारों ‘यूपीएससी फेल’ लोगों के सपनों की कब्रगाह हैं कोचिंग संस्थान

कुछ समय पहले अखबार में छपी इस रपट को पढ़ने के बाद असली जिंदगी पर बनी फिल्म का कोई शीर्षक सूझेगा तो उसे बारहवीं फेल नहीं, ‘यूपीएसएसी फेल’ का नाम देना सही लगेगा। राजेंद्र नगर तो प्रतिनिधि प्रतीक है, देश के कई हिस्सों में विद्यार्थियों के ऐसे उपनिवेश बन चुके हैं जो लाखों में से चंद विद्यार्थी के पास होने का उत्सव नहीं बल्कि, 99.9 फीसद से अधिक विद्यार्थियों के नाकाम रहने का मातमी मंच हैं। कोचिंग साम्राज्य के ये उपनिवेश उन हजारों ‘यूपीएससी फेल’ लोगों के सपनों की कब्रगाह हैं जो सरकारी अफसर बनने में नाकाम होने के बाद कहीं के नहीं रहे। मुश्किल यह है कि बारहवीं फेल होने के बाद आप प्रेरक गुरु तो बन सकते हैं लेकिन ‘यूपीएससी फेल’ होने के बाद आपके अस्तित्व को शून्य करार दिया जाता है।

सरकारी सेवाओं के लिए सीटें सीमित, लेकिन सपनों का विस्तार असीम

सिविल सेवा जिसे सरकार व प्रशासन की अहम इकाई माना जाता है आज उसे बाजार की सबसे बड़ी इकाई बना दिया गया है। हिंदुस्तान के हर छोर के गांव-कस्बे से युवा अपने नजदीकी महानगरों में बने सपनों के उपनिवेश किसी राजेंद्र नजर में पहुंच रहे हैं। सरकारी सेवाओं के लिए सीटें तो सीमित हो रही हैं, लेकिन इसके लिए दिखाए जा रहे सपनों का असीम विस्तार हो रहा है। ग्रामीण इलाके के लोग अपने खेत बेच कर बच्चों को सिविल सेवा की तैयारी करवाने वाले कोचिंग में पढ़ने के लिए भेज रहे हैं।

स्कूल, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय जैसे शब्द सुनते ही आपकी आंखों के सामने किसी हरे-भरे खुले परिसर की तस्वीर उभरती है। यह खुला, बड़ा परिसर जनता के आयकर से चलता है, जिसे सरकारी कहते हैं। लेकिन, बाजार ने कोचिंग जैसा उत्पाद बना कर ऐसे शिक्षा संस्थानों को नाकाम करने की कोशिश की जहां हर वर्ग से आए विद्यार्थी को लगता था कि उसके सपनों के लिए कितनी खुली जगह है। यहां से सपने जिस भी दिशा की हकीकत बनें कबूल है।

ऐसी ही ‘सरकारी’ छवियों की हत्या कर कोचिंग संस्थानों ने हमारे विद्यार्थियों को तंग जगह वाले कोचिंग केंद्रों में भेजा। युवाओं के सपनों पर इस कोचिंग बाजार की समांतर सत्ता स्थापित हो गई। शिक्षा की शास्त्रीय परिभाषा को खत्म कर कोचिंग गुरुओं ने ‘यूट्यूब यूनिवर्सिटी’ की स्थापना की। अब कोचिंग गुरु ‘रील मास्टर’ भी हो गए। हर किसी के फोन के सोशल मीडिया मंच पर ये व्यक्तित्व विकास के इतने गुर देते हैं कि एक विद्यार्थी के लिए एकल जीवन में अपने व्यक्तित्व का इतना विस्तार करना तो असंभव ही है।

कोचिंग गुरुओं की प्रेरक रील के असर से विद्यार्थियों के व्यक्तित्व का इतना विकास होता है कि वे कोचिंग संस्थानों में प्रवेश के वक्त यह भी नहीं पूछते कि उनके संस्थान में आग से बचने या किसी तरह की आपात स्थिति से निपटने के क्या इंतजाम हैं? पिछले साल जब सिविल सेवा की परीक्षा की तैयारी करवाने वाली कोचिंग की एक इमारत में आग लग गई तो वहां से कूद कर जान बचाते विद्यार्थियों का वीभत्स दृश्य भी आगे उन्हें ऐसे सवाल पूछने की प्रेरणा नहीं दे सका कि इतनी फीस लेने के बाद आप हमें किस तरह के सुरक्षा इंतजामात दे रहे हैं।

सिविल सेवा परीक्षा में साक्षात्कार को अहम हिस्सा माना जाता है। कोचिंग के बाजार दिव्य गुुरुओं के द्वारा लिए छद्म साक्षात्कारों को इंटरनेट पर वायरल करवाते हैं। कोचिंग बाजार ने साक्षात्कारों से पहले विद्यार्थियों को छद्म बनाया है। सरकारी स्कूलों, विद्यालयों, विश्वविद्यालयों की साख खत्म करवाई कि वहां पढ़ाई नहीं होती है। डाक्टरी, इंजीनियरिंग की प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करवाने वाले कोचिंग संचालक अभिभावकों को पहली सलाह विद्यार्थियों को ‘डमी’ बनाने की देते हैं। वे पहला सपना अभिभावकों की आंखों में पिरोते हैं और उन सपनों की ‘डमी’ विद्यार्थियों की आंखों में आती है। यानी ग्यारहवीं-बारहवीं के लिए अभिभावक बच्चों को किसी ऐसे स्कूल में डाल दें जहां बच्चों के लिए कक्षा में उपस्थिति अनिवार्य न हो। बच्चे सालों भर कोचिंग में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर ‘डमी स्कूल’ से ग्यारहवीं-बारहवीं के इम्तहान भर देते हैं।

कोचिंग संस्थानों की इस दिव्य कीर्ति के पीछे परिवार से लेकर सरकार तक है। सरकार शिक्षा पर बजट कम करती है और इससे बेफिक्र अभिभावक ‘डमी’ स्कूलों और कोचिंग संस्थानों को चुन लेते हैं। जिन विद्यार्थियों ने यह देखा कि कैसे उनके अभिभावकों ने स्कूल की जगह कोचिंग को चुना, सरकारी की जगह निजी को चुना उनका आगे ‘सरकारी’ को लेकर रवैया कैसा होगा? सरकारी स्कूलों के मलबे पर महंगे कोचिंग में पढ़ा देश का ज्यादातर युवा सरकारी अधिकारी बनना चाहता है इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी?

महंगे कोचिंग में पढ़े युवा जब दिव्य गुरुओं के वायरल छद्म साक्षात्कार में देश के अंतिम व्यक्ति के लिए काम करने की बात करते हैं, महात्मा गांधी, मदर टेरेसा को अपना आदर्श बताते हैं तो वहीं से आगे के लिए एक छद्म सरकारी अफसर भी बनता दिखता है जो आगे चलकर हर ‘सरकारी’ को खारिज करने की योजनाएं बनाएगा। उनके दिव्य गुरु भी रील में इतिहास और हिंदी पढ़ाने के बाद यह बताने लगते हैं कि पीतल के बर्तन में खाना बनाने का क्या फायदा होता है।

आइएएस बनाने का दावा करने वाले इन दिव्य गुरुओं के कोचिंग केंद्र उन कथित बाबाओं के आश्रमों और डेरों से कम बड़ी मुसीबत नहीं हैं जो जनता की धार्मिक भावनाओं का दोहन करते हैं। इंटरनेट के जरिए इन्होंने अपनी कीर्ति इस तरह फैलाई है कि अब हर अभिभावक किसी भी कीमत पर इन दिव्य गुरुओं के पास अपने बच्चों को भेजना चाहता है।

जब ऐसे ही किसी कीर्तिमान वाले केंद्र पर आग लगती है, विद्यार्थी कूद कर जान बचाते हैं तो हम थोड़ा चौंकते हैं, लेकिन फिर अंधविश्वास में आंख मूंद लेते हैं। आग से बचने के लिए कूदते विद्यार्थियों को भूल जाने वाला समाज आज विद्यार्थियों के डूब कर मरने पर रो रहा है। मुश्किल है कि इस बार भी हम सिर्फ तीन युवाओं के लिए रोएंगे। जब तक पूरी शिक्षा व्यवस्था के लिए नहीं रोएंगे तब तक हर अभिभावक का बच्चा इसी तरह असुरक्षित होगा। दिव्य-गुरुओं का मायाजाल इतना कमजोर भी नहीं है। आज कठघरे में सबसे पहले वह परिवार भी है जो इस व्यवस्था के अनुकूल है। उसे दम तोड़ते सरकारी स्कूल-कालेज की फिक्र नहीं है। सार्वजनिकता से निजता की ओर बढ़ते ढांचे का प्रतीक हैं कोचिंग केंद्र।

भारत का ग्रामीण व अर्द्ध-शहरी समाज अब भी सामंतवाद की मानसिकता से बाहर नहीं निकल पाया है। वह अभी भी प्रशासकीय सर्वोच्चता में जाने के ही सपने देखता है। विरासत में मिले खेत बेच कर अपने अधूरे सामंती सपनों की विरासत बच्चों को सौंप देते हैं कि आइएएस, आइपीएस बनेगा तो पूरा खानदान ‘सुधर’ जाएगा। सरकारी संस्थाओं की कब्र पर सरकारी नहीं तो कुछ नहीं बनने का यही सपना कोचिंग गुरुओं की दिव्य कीर्ति का कारण है। अपने सपनों को सामंती संकुचन से बाहर निकालिए। अगर समाज और सरकार के खड़े किए गए स्कूल और कालेज इंजीनियर, डाक्टर व प्रशासनिक अधिकारी नहीं बना सकते हैं तो इस ढांचे को दुरुस्त कीजिए न कि अपने और अपने बच्चों के सपनों को किसी कोचिंग कारोबारी के हवाले कर दीजिए।