पद्मावती पर पलटे
सियासत में दांव-पेच आजमाने की बारी हो तो अपने नीतीश कुमार भी कभी पीछे नहीं रहते। सुशासन बाबू संबोधन से चिढ़ हुई तो लालू ने नाम रख दिया पलटू राम। पद्मावती के विवाद में भी साबित कर दिया कि पलटने में कोई सानी नहीं उनका। आजकल भाजपा के हमसफर हैं। सो, अपने सूबे में पद्मावती को अछूता कैसे रहने दे सकते थे। तपाक से ठोक दिया बयान कि जब तक फिल्म पर विवाद चलेगा, बिहार में प्रदर्शन की इजाजत नहीं देंगे। विवाद वाजिब है या अनुचित, इस सवाल पर मुंह बंद कर लिया है। क्षत्रियों की नाराजगी क्यों मोल लें? बिहार में बाबू साहबों की तादाद कम तो है नहीं। ऊपर से इस बिरादरी के कई बुद्धिजीवी उनके नजदीकी अलग ठहरे। जाहिर है कि दिखावा तो तटस्थ रहने का कर रहे हैं, पर मंशा जगजाहिर कर दी है।

गार्गी, अहिल्याबाई होल्कर, लक्ष्मीबाई, कल्पना चावला और सुनीता विलियम्स…। हैदराबाद में अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की बेटी इवांका ट्रंप के स्वागत समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन्हीं नामों को लिया। हैदराबाद में चल रहे ग्लोबल आंत्रप्रन्यॉरशिप सम्मेलन का इस बार का केंद्र बिंदु ‘महिला प्रथम और सबके लिए समृद्धि’ थी। इसमें भारतीय महिलाओं की अगुआई करने वालों में विश्व सुंदरी मानुषी छिल्लर, क्रिकेट खिलाड़ी मिताली राज और सानिया मिर्जा के नाम रहे।
जब हर किसी ने बोल लिया, लिख लिया तो इस स्तंभ में ‘पद्मावती’ को लाने के पहले हैदराबाद की भूमिका क्यों चुनी? इसलिए कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और बिहार सरकार के पद्मावती के महिमांडन के बाद और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के पद्मावती को राष्टÑमाता घोषित करने की अपील के बाद भी वैश्विक मंच पर मोदी सरकार ‘पद्मावती’ को महिला सशक्तीकरण का प्रतीक नहीं बना पाई। वहां अहिल्याबाई होल्कर से लेकर कल्पना चावला ही क्यों? कुछ दिनों पहले हरियाणा सरकार की ओर से निकलने वाली एक पत्रिका में घूंघट को हरियाणा की महिलाओं की पहचान बताया गया था। अब यह दूसरी बात है कि हरियाणा की पहचान वो घूंघट वाली सरकारी मॉडल है या मानुषी छिल्लर, कल्पना चावला या फोगाट बहनें।

कुछ साल पहले की घटना याद आ रही है। हरियाणा के एक गांव में लोगों से बात हो रही थी। जैकी चान की जोड़ीदार बनने के कारण इस सूबे से ताल्लुक रखने वाली अभिनेत्री सुर्खियों में थीं। गांव के एक सरपंचनुमा आदमी से मैंने हरियाणवी में पूछा कि तुम्हारे गांव की लड़की तो दुनिया में छा गई। इतना सुनते ही उसका जवाब था हां एक वो…(उस आपत्तिजनक शब्द को यहां नहीं लिखा जा सकता) निकल गई, अब तो उसे अपने गांव आने की हिम्मत ना है। आए तो बता देंगे। और, इसके सालों बाद जब छिल्लर उपनाम के कारण कांग्रेस नेता शशि थरूर ने विश्व सुंदरी का मजाक उड़ाया तो हरियाणा की एक खास खाप थरूर के खिलाफ खड़ी हो गई। आज उस खाप के लिए छिल्लर शर्म नहीं सिर का ताज है।
नब्बे के दशक में भारत में आए बाजारवाद ने महिलाओं के लिए जगह मुहैया कराई थी क्योंकि सामंती सोच से लड़े बिना बाजार को बढ़ाना आसान नहीं था। तब की सुष्मिता सेन से लेकर आज की मानुषी छिल्लर तक। जिस बाजार ने समाज को बदला आज वही अपने चरम पर जाकर समाज को सिकोड़ना भी चाहता है।

हरियाणा के खाप की सोच बदली, आम लोगों की सोच बदली लेकिन अगर किसी की सोच नहीं बदली तो वो राजनेताओं की क्योंकि उन्हें पता है कि बदली सोच वाली जनता सरकार बदल देती है। इसलिए इनका एक ही सूत्र है कि जनता की सोच ही नहीं बदलने दो। महिलाएं कल्पना चावला की तरह आज के विज्ञान की भाषा न बोलें, बेहतरीन स्कूल, कॉलेज और प्रयोगशालाओं की मांग न करें इसलिए उन्हें कल के इतिहास में झूलने दो। उन्हें बाबाओं के प्रवचन पर झूमने दो। पहले बाबाओं को डेरे के लिए जमीन दो, बाबाओं के जन्मदिन पर लाखों, करोड़ों के उपहार दो और चुनावों के समय में डेरे के बाबा से कहलवा दो कि वोट हमें ही देना। आज ये नेता अपनी जातिवादी और विभाजनकारी राजनीति को लेकर इसलिए निश्चिंत हैं क्योंकि गांवों की जनता के लिए बाबा हैं और शहरों की पीवीआर जनता के लिए संजय लीला भंसाली।

जी, वही संजय लीला भंसाली जो ‘हम दिल दे चुके सनम’ में नायिका को उसके पास ही रहने देते हैं जिसके साथ बाबूजी ने शादी कर दी थी। एक बार शादी के बाद उससे मुक्ति संभव कहां? प्रेम में समर्पण आपको बगावत भी सिखाता है। और यही बगावत आज के बाजार से लेकर सरकार तक का डर है। इसलिए भंसाली की नायिका के लिए प्रेम की मनुष्यता से ज्यादा अहम प्रेम का पौरुष हो जाता है। भंसाली की ‘मस्तानी’ बाजीराव की गुलामी के हर दस्तावेज पर जब कबूल है, कबूल है कहती है तो वह प्रेम नहीं पौरुष का नया आख्यान रच रही होती है। और, उनकी फिल्मों का दर्शक होने के नाते अपने निर्देशक के प्रति यह अनुमान तो लगाया जा सकता है कि ‘पद्मावती’ जब हजारों राजपूत स्त्रियों के साथ जौहर करेगी तो वह परदे पर जोशीले संवाद से लेकर सिनेमेटोग्राफी के स्तर पर विहंगम दृश्य उकेरेगा। सिनेमाघर के अंधेरे में जौहर करती पद्मावती दर्शकों के मन में किस तरह का उजाला छोड़ जाएगी?

संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावती’ पर छिड़ी बहस का फायदा किसे मिला? देश के कई राज्यों के मुख्यमंत्री करणी सेना की भाषा बोल रहे हैं। पूरी बहस ही प्रतिगामी दिशा की ओर केंद्रित है। इसका राजनीतिक और व्यावसायिक मकसद है और बहस को भी इसी वृत्त के घेरे में रखा गया है। ‘पद्मावती’ पर छिड़ी बहस इतिहास बनाम साहित्यिक आख्यान नहीं रह गई है। एक चरित्र उठाकर घंटी बजा दी कि सही और गलत की बहस शुरू करो। अब बहस जो भी करे और जैसे करे उसका फायदा जौहर समर्थकों को हो रहा है। और, जब सिर काट लेने का फतवा जारी किया गया तो गांधीवादी प्रशासनिक अमले को गांधी जी का दूसरा बंदर ही याद आया कि बुरा मत सुनो।

‘पद्मावती’ मलिक मोहम्मद जायसी की एक साहित्यिक रचना है। प्रेमचंद के ‘गोदान’ की मकबूलियत को लेकर कहा जाता है कि अगर उस समय का सारा इतिहास खत्म भी हो जाए और सिर्फ ‘गोदान’ बचा रहे तो इस साहित्यिक कृति के जरिए उस समय का इतिहास लिखा जा सकता है। ‘गोदान’ कोई ऐतिहासिक घटना नहीं है लेकिन अपने समय का इतिहास रचती है। उसी तरह से जब साहित्यकार एक कथावाचक की तरह ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ लिखता है तो वह अतीत से लेकर वर्तमान तक एक निरंतर संवाद करता है। इसे हम साहित्य लेखन का सूत्र भी कह सकते हैं। जायसी की ‘पद्मावती’, प्रेमचंद के ‘गोदान’ से लेकर हजारी प्रसाद द्विवेदी की ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ तक में जब साहित्यकार, साहित्य रच रहा होता है तो अपने तरीके से इतिहास में आवाजाही करता है।

लेकिन संजय लीला भंसाली जैसे लोग जब खास एजंडे के तहत ‘पद्मावती’ को परदे पर उतारते हैं तो उसके बाद रचना के आलोचनात्मक विवेक पर हमला होने लगता है। एक साहित्यिक रचना चरम पर पहुंचने के बाद ही पूरी होती है। उसमें किसी व्यक्ति विशेष का प्रवेश संभव नहीं होता है। रचना के साथ साहित्यकार पूरा लोक रचता है जिसमें उसके दिए अर्थ के अलावा किसी और अर्थ की गुंजाइश नहीं होती है।

संजय लीला भंसाली का उद्देश्य क्या है? अगर हम जायसी की ‘पद्मावती’ के चरम पर जाएं तो उसका संदेश यही है कि समर्पण से प्रेम को हासिल किया जा सकता है। जबरन तो राख ही हासिल होती है। जायसी के संदेश में न हिंदू है न मुसलमान, न राजपूत और न सिंहल लोक। वहां सिर्फ मनुष्यता और प्रेम है। लेकिन आज बहस में जौहर अहम हो जाता है। मनुष्यता और प्रेम के समर्पण को सिनेमा के पर्दे पर ग्लैमराइज करना मुश्किल है, व्यावसायिक लहजे से जोखिम भरा और सियासी सोच में नुकसान वाला। जायसी की ‘पद्मावती’ में जो मनुष्य का आत्मत्याग है उसके पूरे कथ्य को स्त्री शुचिता, स्त्री समर्पण और स्त्री के त्याग से जोड़ दिया गया है। प्रेम और समर्पण को एक खास जाति और प्रदेश के खांचे में खोस दिया गया। वृहत्तर तक फैले रचनात्मक आख्यान को एक संकीर्ण वृत्त में संकुचित कर दिया गया। साहित्य की संवेदनशीलता का जौहर करा कर मनुष्यता की लड़ाई को पौरुष और जाति की सामंती लड़ाई बना दिया गया है।