रूपा

हमें बचपन से ही जीवन के कुछ ऐसे सूत्र सिखाए जाते हैं, जो धीरे-धीरे हमारे संस्कार का रूप ले लेते हैं। हम उनमें से बहुत सारी बातों पर तर्क करते ही नहीं। बस, उसे मान लेते हैं। बहुत सारे लोग विज्ञान की ऊंची डिग्रियां लेने के बावजूद, बिल्ली के रास्ते काट देने पर रुक कर किसी और के गुजर जाने का इंतजार करते हैं या फिर रास्ता बदल लिया करते हैं।

यह धारणा इस कदर मन में घर कर गई है कि वे तर्क ही नहीं कर पाते कि आखिर बिल्ली के रास्ता काट देने से क्या वैज्ञानिक बदलाव हो गया। बिल्ली तो सहज भाव से रास्ता पार कर, जहां जाना चाहती थी, चली गई। उसके जाने से रास्ते पर तो कोई असर पड़ा नहीं। मगर चूंकि हमारे मन में उसे अपशकुन के रूप में जड़ दिया गया है, इसलिए उसे अपशकुन मान लेते हैं। ऐसी अनेक बातें हैं, जो हम केवल बचपन से जमे अपने संस्कारों की वजह से करते जाते हैं, उस पर तर्क करते ही नहीं।

अक्सर जब तर्क करने का प्रयास करते हैं, तो उलझ कर रह जाते हैं। जैसे-जैसे समझ विकसित होती जाती है, हम कुछ पढ़-लिख कर तर्क करना सीख जाते हैं, तब सायास बचपन में सिखाई कुछ बातों को नकारने का प्रयास करने लगते हैं। उलझन तभी पैदा होती है। पढ़-लिख चुकने, तर्क करने की क्षमता विकसित हो जाने के बाद भी यह उलझन पूरी तरह खत्म नहीं होती। विज्ञान से दर्शन में उतरें, तो बचपन में सिखाई कुछ बातों के सिरे फिर से हाथ लग जाते हैं। फिर उलझन शुरू हो जाती है।

इस तरह नकार और स्वीकार को लेकर कदम-कदम पर उलझनें बनी रहती हैं। क्या सही है, क्या गलत, यह तय कर पाना बहुत उलझनभरा काम होता है। कदम-कदम पर इस उलझन से गुजरना पड़ता है। फिर भी बहुत कुछ ऐसा गलत ठहर जाता है, जो स्वीकृत सही है। समाज, परिवार और निकट संबंधी जिसे सही बताते आए हैं, वह कहीं किसी मोड़ पर पहुंच कर गलत नजर आने लगता है।

दरअसल, हम अपने जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा दूसरों के दिए हुए के आधार पर जी रहे होते हैं। जीना हर कोई अपने ढंग से चाहता है, मगर जी दूसरों के दिए के आधार पर रहा होता है। जिस ढंग से वह जीना चाहते हैं, घूम-फिर कर किसी न किसी तर्क-वितर्क से उसमें दूसरों के दिए का अंश भी मिला ही लेता है। इस तरह जिंदगी बड़ी घालमेल भरी होती जाती है। लोग ऐसा करते हैं, इसलिए मुझे भी ऐसा ही करना चाहिए, ऐसा कर लेने में हर्ज ही क्या है।

यही परिपाटी है पूरे मनुष्य समाज की। जो दूसरों के दिए को पूरी तरह नकार कर अपने ढंग से जीने का प्रयास करते हैं, स्वाभाविक ही वे समाज से तालमेल बिठा नहीं पाते, या कहें कि समाज उन्हें अलग पुर्जा मान कर बाहर धकेलना शुरू कर देता है। मगर उसमें खतरा यह रहता है कि दिशा क्या हो। कई बार दिशा के विपरीत होने से जीवन की दिशा भी उलट जाती है। जीवन के सामने इसमें जोखिम तो होता ही है- उत्कृष्ट होने की संभावना होती है, तो उच्छृंखल होने की आशंका भी। यहीं सही और गलत के फैसले का निर्णय होता है।

मगर विवेक बड़ी चीज है। विवेक जाग जाए तो जीवन की दिशा भी सही हो जाती है। यह विवेक ही जगाना कठिन काम है। विवेक, बुद्धि से भिन्न चीज है। बुद्धि तो किताबें पढ़ कर, समाज और परिवार से बातें सीख कर आ ही जाती है। जीवन को जीने का तरीका तो बुद्धि से सीख ही जाते हैं। मगर जीवन को सही अर्थों में कैसे जीएं, यह विवेक पर निर्भर करता है। विवेक ही सही को सही और गलत को गलत तय करना सिखाता है।

सही निर्णय विवेक से ही संभव है, वरना बुद्धि तो गलत निर्णय भी कर देती है। विवेक कभी गलत निर्णय नहीं करता। हो सकता है कि विवेक के कुछ निर्णय शुरू में गलत प्रतीत हों, इसलिए कि समाज और परंपरा से कुछ निर्णय निर्धारित हैं, मगर बाद में उसका अर्थ खुलता है कि विवेक का निर्णय वास्तव में सही है। विवेक का निर्णय दूरगामी होता है। बुद्धि का निर्णय तात्कालिक और क्षणिक भी हो सकता है।

विवेक पैदा हो, इसके रास्ते में अनेक सामाजिक बाधाएं हैं। समाज हमेशा व्यक्ति को अपने ढंग से चलाने का प्रयास करता है और जब समाज धार्मिक मान्यताओं से बंध जाए, तो तर्क करने की क्षमता को ही कुंद कर देता है। वहां बने-बनाए नियमों को पालन करना होता है, तर्क करने की इजाजत नहीं होती। जहां तर्क करने की गुंजाइश नहीं, वहां विवेक पैदा ही नहीं हो सकता। बुद्धि तो विकसित हो सकती है। पैसा कमाने की बुद्धि, जीवन को सुख-सुविधाओं से भर देने की बुद्धि, दूसरों को कुचल कर आगे निकलने की बुद्धि, अपने को श्रेष्ठ साबित कने की बुद्धि।

समाज भी बुद्धि से जुटाई जीवन की तरकीबों को सराहता है, उसकी तरफ आकर्षित होता है, आज की भौतिकतावादी जिंदगी में तो इसका मान-सम्मान कुछ अधिक है। इसलिए समाज परोक्ष रूप से आपको प्रेरित करता रहता है कि बुद्धि के बल पर जीवन को जीयो। मगर विवेक ऐसे जीवन को उचित नहीं मानता। विवेक कभी दूसरों को दुख पहुंचा कर सुख हासिल करने को उचित मान ही नहीं सकता।

विवेक कभी अकरुण जीवन को सही मान ही नहीं सकता। जब भी विवेक पैदा होगा, दूसरों का दुख पहले दिखने लगेगा, दूसरों की तकलीफ अपनी तकलीफ से बड़ी नजर आने लगेगी, दूसरों की जरूरतें अपनी जरूरतों से अधिक महत्त्वपूर्ण समझ आने लगेंगी। इस तरह समाज की बहुत सारी स्थापित मान्यताओं का खंडन विवेक अपने आप करता चलता है। जब विवेक पैदा होता है, तो जीवन की बहुत सारी उलझनें अपने आप झर जाती हैं, झरती चली जाती हैं।