गोविंद उपाध्याय

हालांकि रात के भोजन के बाद ही उनकी पलकें भारी होने लगती हैं। तब दीपिका की चार वर्षीय बेटी मिनी पास में ही खेल रही होती है। उनकी आंखें बंद होती देख वह चौकन्नी हो जाती है, ‘नाना जी प्लीज मेरे साथ खेलो…।’

एकनाथ उसकी तरफ देखकर मुस्कराने का प्रयास करते हैं, ‘अच्छा मिनी, बहुत हुआ… अब तुम मम्मी-पापा के पास जाओ। तुम्हारी मम्मी बुला रही हैं।’मिनी ना में सिर हिलाती हुई जोरदार विरोध करती है, ‘मुझे नहीं जाना है। यहीं रहना है तुम्हारे पास।…’ शायद उनकी आवाज दीपिका के कानों तक पहुंच गई और वह खुद ही आ गई। मां को देखते ही मिनी उनके बगल में लेट जाती है और अपने नन्हे हाथों से कस कर पकड़ लेती है।

दीपिका उसकी इस हरकत पर थोड़ी देर हंसती है। मिनी भी जानती है कि अब उसे नाना को छोड़कर जाना पड़ेगा। उसने चिल्लाना शुरू कर दिया। हंस रही मां के चेहरे के भाव बदलने लगते हैं। मिनी समझ जाती है कि मां अब गुस्से में है। फिर भी उसने विरोध जारी रखा। दीपिका उसे लगभग खींचते हुए उनसे अलग करती है, ‘नहीं मिनी…। नाना को गुड नाइट कहो। चलो, अभी तुम्हें अपना होम वर्क करना है।’
वह बुझे मन से अपनी मां के कहे अनुसार गुड नाइट कहती है, और कमरे से बाहर निकल जाती है।

एकनाथ गहरी सांस लेते हुए करवट बदलते हैं और आंखों को बंद कर लेते हैं। उन्हें मालूम है कि अगर दिमाग भटका नहीं तो कुछ देर में नींद आ जाएगी। ज्यादातर ऐसा ही होता है। मगर जिस दिन दिमाग भटकता है, नींद ऐसे रूठती है कि पूरी रात करवट बदलते निकल जाती है। चौंसठ के हो चुके हैं एकनाथ। सारी जिंदगी सपनों से खेलते रहे। सपने तो सपने हैं, भला वे कब पूरे होने वाले हैं। हां, इतना जरूर था कि इन्हीं सपनों के चक्कर में उनके हिस्से जो टुकड़े-टुकड़े में सुख आए थे, उनका भी ठीक से आनंद नहीं उठा सके।

दीपिका उनकी छोटी बेटी है। बड़ी बेटी तो शादी के कुछ दिनों बाद ही लंदन चली गई। एकनाथ को अच्छा नहीं लगा था। उन्हें अगर जरा-सा भी आभास होता कि लड़का विदेश में नौकरी करने का इच्छुक है, तो विवाह ही नहीं करते।… लड़के को वे बेकार ही दोष देते हैं। उनकी बड़ी बेटी खुद यूरोप जाना चाहती थी। यहीं से संबंध धीरे-धीरे कमजोर पड़ता चला गया। जन्म-मृत्यु, शादी-विवाह, सुख-दुख सभी कुछ फोन पर चंद मिनटों में निपट जाता था। यहां तक कि जब उसकी मां की मृत्यु हुई, उस समय भी वह वाट्सऐप पर ही बिलखती रही, ‘ओह! पापा ये क्या गजब हो गया। अभी दो दिन पहले ही तो मम्मी से बात हुई थी। कितनी खुश थीं…।’

क्या बोलते भला। उन्हें तो खुद ही समझ नहीं आ रहा था कि ऐसा कैसे हो गया। वे सूनी आंखों से बेटी को बोलते देखते रहे। बस, एकनाथ में यही खराबी है। बात का कोई कोना पकड़ लेंगे तो उसको उधेड़ने लगेंगे। खुद ही सवाल करेंगे, फिर खुद ही उसका जवाब भी देंगे। शायद उनकी उम्र के लोग ऐसा ही करते हैं।…

एकनाथ करवट बदलकर सोने का प्रयास करते हैं, पर दिमाग भटकने लगा है। गई नींद आंखों से…। वे एक झटके से उठते हैं और बगल की तिपाई पर रखी बोतल से दो घूंट पानी गटकने के बाद किसी नन्हे बच्चे की तरह कसकर आंख बंद कर लेते हैं। फिर अपनी इस हरकत पर खुद ही मुस्करा देते हैं।

दो दिन से मूसलाधार पानी बरस रहा है। बहुत गरमी थी। पारा अड़तालीस पार कर चुका था। बारिश की वजह से तापमान में गिरावट आई है। इस शहर में यह उनकी दूसरी बरसात है। हालांकि दीपिका के इस किराए के मकान के दोनों बेड रूम में एसी लगा हुआ है। वैसे भी एकनाथ कहीं आते-जाते नहीं हैं। दिन भर कमरे मे लेटे हुए मोबाइल पर अपने पुराने परिचितों से बात करते या टीवी पर फिल्में देखते हैं। अब समाचार देखने का जरा भी मन नहीं होता। बिना मदारी के जमूरे की उछल-कूद के सिवा उसमें कुछ नहीं होता है।


बहुत जरूरी होने पर ही घर से निकलते हैं। कहीं अकेले जाने में हिचकिचाते हैं। बहुत घनी आबादी है। मकड़ी के जालों की तरह आपस में उलझी हुई गलियां…। अगर वे इन गलियों में भटक गए तो? सड़क पर चलते समय भी उनके पैर कांपते हैं। हरपल दुर्घटना का भय बना रहता है। कहीं शरीर में टूट-फूट हो गई तो फिर उन्हें कौन संभालेगा? इस तरह के वातावरण में कभी रहे ही नहीं।

एकनाथ ने सोचा ही नहीं कि कभी इस तरह आदमियों के घने जंगल का हिस्सा बन जाएंगे। पत्नी ने दीपिका की शादी के बाद कहा भी था, ‘अरे, एक बार जाकर बेटी को देख आते कि वहां कैसे रह रही है।’ एकनाथ हंस देते, ‘तुम मुझे चैन से रहने नहीं दोगी। क्या करूंगा वहां जाकर। दोनों दूसरे तीसरे महीने आ ही जाते हैं। फिर काहे मुझे हजार किलोमीटर दौड़ाना चाहती हो।’

एकनाथ की बात सुन कर पत्नी ने उन्हें अग्नेय दृष्टि से देखा, ‘धन्य हो महराज! कैसे पिता हैं आप? बच्चों के बारे में कोई चिंता ही नहीं। एक तो विलायत में जाकर बस गई। जो यहां है, उसके दरवाजे पर भी जाने में हुज्जत कर रहे हैं। अरे, बाप-भाई, जब बेटी-बहन के चौखट पर पैर रखते हैं तो उन्हें जो खुशी मिलती है, वह आप मर्द लोग क्या समझ पाएंगे।’ ‘अब बस भी करो भाई। इस बार जब वे आएंगे तो उन्हीं के साथ चले जाएंगे।’ एकनाथ ने झुंझला कर कहा था। मगर तब एकनाथ ने यह नहीं सोचा था कि एक दिन दीपिका के पास स्थायी रूप से रहने आ जाएंगे।

दूसरे मंजिल पर मकान था। पंद्रह-बीस वर्ष पुराना। अच्छी जगह थी। नीचे चौड़ी सड़क, ग्राउंड प्लोर पर दुकानें थीं। सारी चीजें नीचे उतरते ही मिल जाती थीं। पास में ही नर्सिंग होम भी था। मगर रात को दस-ग्यारह बजे तक बाजार की चहल-पहल और तरह-तरह की आवाजें, वाहनों का शोर और दुकानों के शटर खुलने-बंद होने की कर्कश ध्वनि…। एकनाथ को लगता कि कैसी तिलिस्मी दुनिया में आ गए हैं।

आखिरकार एक शाम उन्हें दीपिका से बोलना पड़ा, ‘बेटा, थोड़ी-सी रूई लाकर दे दो। कान में ठूंस लूंगा तो ये तिलिस्मी आवाजें मंद पड़ जाएंगी।’ सबसे ज्यादा दिक्कत तो नीचे वाली बिल्डिंग मटीरियल की दुकान से थी। ठीक आधी रात को उसका ट्रक आता, फिर सन्नाटे में उसकी आवाजें बची-खुची रात का भी सत्यानाश कर देतीं।

दीपिका का चेहरा गंभीर हो गया था, ‘आपको इनकी आदत नहीं है पापा। शुरू में थोड़ी दिक्कत होती है, फिर धीरे-धीरे अभ्यस्थ हो जाएंगे। हालांकि सोसाइटी के फ्लैट में ऐसी दिक्कत नहीं होती है, लेकिन यहां से ढाई गुना ज्यादा किराया भी देना पड़ता है।’ एकनाथ ने जल्दी से सिर हिलाया। वे इस प्रसंग को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे। उन्हें अच्छी तरह मालूम था कि यह मकान भी पंद्रह-सोलह हजार का तो पड़ ही जाता है। किराया, पानी, बिजली।… एकाध साल की बात है। फिर दीपिका का अपना फ्लैट मिल जाएगा।

एकनाथ का शरीर जैसे-जैसे शिथिल होता जा रहा है, दिमाग और सक्रिय रहने लगा है। लेकिन इस सक्रिय दिमाग में जो कुछ भी आता है, सब नकारात्मक होता है। इसमें उनका कोई दोष थोड़े ही है। उनके जीवन में नकारात्मक घटनाक्रमों की भरमार थी। जब नौ साल के थे, मां से बिछड़ गए। गांव में खेती का बंटवारा हुआ था। मां दो छोटे-भाई-बहन के साथ खेती-बाड़ी संभालने के लिए गांव में रुक गई।

तब मां से बिछुड़ना उनके बालक मन पर बहुत गहरा प्रभाव डाला था। एक अजीब-सा डर… आज भी वह बच्चा कभी अचानक उनके मस्तिष्क पर छाने लगता है, तो वे सहम जाते हैं। पिता के साथ बहुत दिन शहर में नहीं रह पाए। नौकरी भी ऐसी मिली कि जब उनके पदोन्नति का समय आया तो उस पद को ही ‘डेड पोस्ट’ घोषित कर दिया गया। उनके पद को ही मृत नहीं घोषित किया गया, उनके सपनों की भी हत्या कर दी गई। क्या कर सकते थे भला…। बच्चे बड़े हो रहे थे। खींच-तान कर ही सही, गुजारा तो हो रहा था।

सोचा था कि सेवानिवृत्ति के बाद का समय आराम से गुजरेगा। मगर जब तक गहरी सांस लेकर बुढ़ापे को संतोषजनक ढंग से जीने की कल्पना करते, पत्नी की अचानक बैठे-बैठे ही सांस रुक गई। एकनाथ तो आज तक समझ ही नहीं पाए कि उसे आखिर हुआ क्या था। अब अकेले हो गए थे। उन्हें यही नहीं समझ आ रहा था कि अब करना क्या है।

पत्नी के मृत्यु का सदमा बहुत गहरा था। जो उनका ख्याल रखने वाला था, वही नहीं रहा, तो सारी दिनचर्या ही बिगड़ गई। बीमार रहने लगे थे। बेटियां उन्हें लेकर काफी चिंतित रहती थीं। फिर दीपिका और दामाद उन्हें अपने पास ले आए। आदमियों के इस घने जंगल में। उनका कारखाना, जिसमें उन्होंने नौकरी की, भीड़भाड़ से मुक्त शहर के अंतिम छोर पर था और उससे मात्र डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर कारखाने की कालोनी थी। उसी कालोनी में एकनाथ का भी आवास था।

घर के सामने ही एक खुला मैदान था। जरूरत का सारा सामान कालोनी की दुकानों से मिल जाता था। विशेष जरूरत के लिए लोगों को बाहर जाना होता था, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘सिटी’ कहते थे। यानी कालोनी से दस-पंद्रह किलोमीटर दूर शहर। शुरू में, पंद्रह-बीस साल तक तो कालोनी लोगों को वहां जाने की जरूरत ही नहीं होती थी। एकनाथ पहली बार बड़ी बेटी के विवाह की खरीदारी करने वहां गए थे। फिर तो कई बार गए। माल की चकाचौंध देखना उन्हें भी अच्छा लगने लगा था।

नौकरी के बाद वापस गांव चले गए थे। उन्हें तो यही लगता था कि बची हुई जिंदगी आराम से कट जाएगी। पर दीपिका की जिद और अपनी तकलीफ के आगे मजबूर हो गए थे। एकनाथ शुरू में बहुत उखड़े हुए रहते थे। उन्हें यही लगता कि दीपिका को मना कर देना था। बोले भी तो थे उसे, ‘मेरे बच्चो! बड़ी मुश्किल से स्वयं को संभाला है। धीरे-धीरे तेरी मां की दी हुई आदतें छूटने लगी हैं। उम्र के हिसाब से तबियत में उतार-चढ़ाव तो लगा ही रहता है। तुम लोग बेकार परेशान हो रहे हो। मैं ठीक हो जाऊंगा, तो इस बार दीपावली तुम्हारे साथ मनाऊंगा।’

पर दीपिका कहां मानी। अब तो दूसरा साल चल रहा है। शारीरिक रूप से भी ठीक हैं, लेकिन जब भी वापसी के बारे में सोचते हैं, तो एक अजीब-सी घबराहट होने लगती है। दीपिका से चाह कर भी नहीं बोल पाते हैं कि अब वे ठीक हैं और वापस लौटना चाहते हैं। शायद मिली से जुड़ाव इसका मुख्य कारण है। मिली का मोह धीरे-धीरे उन्हें जकड़ता जा रहा है। एकनाथ को मालूम है कि उन्हें अब यहीं रहना है। फिर एक सवाल उनके मन में बार-बार आ ही जाता है, ‘ये कैसा मोह है एकनाथ?’