गांवों की सभ्यता और संस्कृति, बोली-बानी अब वही नहीं रही, जो पचास-साठ साल पहले हुआ करती थी। गांव भी अब शहर बनने को आतुर हैं। वहां खेती-किसानी से लेकर रहन-सहन तक के तौर-तरीके बदल गए हैं। अंग्रेजी का प्रभाव वहां भी दिखने लगा है। कुछ तो तकनीकी प्रभाव में अंग्रेजी गांवों में घुसी है और कुछ सहज ढंग से उसे लोगों ने स्वीकार कर लिया है। शहरों के प्रभाव में वहां भी घर बनने लगे हैं, भोजन-वसन के तौर-तरीके अपना लिए गए हैं। रिश्तों के पारंपरिक नाम भी अब अंग्रेजी वाले हो गए हैं। गांवों से हिंदी शब्दों के विलुप्त होते जाने और उनकी जगह अंग्रेजी शब्दों के काबिज हो जाने की कहानी बता रहे हैं सत्यदेव त्रिपाठी।

हम यह सुनते-सुनते बड़े-बूढ़े हुए हैं कि भारतवर्ष गांवों का देश है। और, भाषा की प्रकृति को लेकर कहावत रही है कि ‘चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी’। मगर स्वातंत्र्योत्तर काल- बल्कि उन्नीस सौ सत्तर के बाद का काल देखें, तो ये दोनों ही सच्चाइयां बदलते-बदलते आज प्राय: झूठी पड़ गई हैं। भारत अब उस तरह के गांवों का देश नहीं रहा और जो भाषा आज बन रही है, वह आठ तो क्या, आठ सौ कोस पर भी नहीं बदलेगी।

सबसे पहले तो सड़कों और पक्के मकानों ने गांवों की परिवेशगत निजता को खत्म कर दिया। जहां जाओ, सब कुछ एक जैसा दिखता है, जो प्राय: शहर जैसा है। सारी भिन्नताएं खत्म होकर एकरूपता में बदलती जा रही हैं, जिसके लिए अंग्रेजी में कहावत है- ‘यूनीफार्मिटी इज ए डेंजर’- एकरूपता बहुत बड़ा खतरा है।

एक और सामान्य सत्य यह कि नियम-कानून और व्यवस्था की तरह ही भाषाएं भी प्रथम और अंतिम रूप से सत्ता-संचालित होती हैं- बीच में भले कुछ अलग हो जाता हो। इसके मोटे उदाहरण के रूप में देख सकते हैं कि भारतवर्ष में पहले पाठशाला या विद्यालय में पुस्तक और ग्रंथ पढ़े जाते थे, लेखनी से लिखा जाता था।

मगर मुसलमानों के लंबे शासनकाल में मदरसे में किताबें पढ़ी जाने लगीं और कलम से लिखा जाने लगा। फिर अंग्रेजी राज में ‘स्कूल’ में ‘बुक्स’ पढ़ी जाने लगीं और ‘पेन’ से लिखा जाने लगा। मगर पता नहीं क्यों खेती-बाड़ी के ‘कागजात’ अंग्रेजी में नहीं किए जा सके! उर्दू में ही रह गए, जबकि इस्तमुरारी वगैरह बंदोबस्त अंग्रेज सरकार ने काफी कराए थे। देसी राज्यों-रियासतों को हड़पने के लिए तो काफी नियम बनाए गए थे।

इसलिए आजादी मिलने के काफी दिनों बाद ही सही, चकबंदी के दौरान (1970 के दौर में) हिंदी प्रदेशों में सारे कागजात उर्दू से सीधे हिंदी में हो गए हैं। फिर भी प्रयोग के शब्द अर्जी, महसूल, मुवक्किल, जिरह, बयान, गवाही आदि तमाम शब्द आज भी बाकायदा मौजूद हैं। मगर आज उनके साथ ‘विटनेस’, ‘एडवोकेट’, ‘केस’, ‘फाइल’, ‘नोटिस’, ‘एफिडेविट’ जैसे शब्दों ने जगह बना ली है।

अर्जी से ‘अप्लीकेशन’ हो गया- आवेदन-पत्र कब आएगा? इसी प्रकार हजारों सालों में हमारे पिता-माता भी सौभाग्य से या ‘माता-पिता च भगवन’ वाली संस्कृति के प्रताप से ‘अब्बू-अम्मी’ न बन पाए थे, लेकिन अब ‘डैडी-मम्मी’ बन गए। ‘पितृव्य’ से बने जो काका-काकी होते थे, वे अवश्य चाचा-चाची होकर समादृत हुए। फिर ‘अंकल-आंटी’ हुए, तो आज तक बने बैठे हैं और रहेंगे। काका-काकी जो गए, वे कब आएंगे, पता नहीं। इधर धारा 170 और शहरों-जगहों के उर्दूमय नाम बदल रहे हैं- शायद कभी अंग्रेजी के बरक्स इन मूल भारतीय शब्दों के भाग भी खुलें!

तकनीक का प्रभाव

सत्ता के साथ समय के बदलावों का मामला जुड़ता है, जिसमें आज के लिए सबसे प्रभावी बने हैं विज्ञान और तकनीक। इसके आरंभिक दौर में आज से पैंतीस-चालीस साल पहले जो मशीनी खेती की शुरुआत हुई, उसने तब से गांवों को बदलते-बदलते पिछले दस-पंद्रह सालों में पारंपरिक किसानी संस्कृति को निर्मूल कर दिया। हल-बैल और तरह-तरह के कृषि-कर्म के साधनों और तौर-तरीकों की जगह सब कुछ यंत्रमय होकर एक जैसा हो गया- बेशक अंग्रेजी में! 1962-63 के दौरान ‘मेस्टन हल’ सबसे पहले आए थे, तब गाना बना था- ‘पुष्ट-पुष्ट बैल राखा, मेस्टन हल राखा; घने-घने खेतवा जोतावा, मन खेतिया में लगावा’।

और तभी हमारे कई-कई हलों- दबेहरा-खुटहरा-नौहरा आदि- जैसे अन्य कृषि-साधनों के साथ शब्दों के लोप के संकट मंडराए थे। ‘डिब्लर’ भी उसी वक्त आए। हमारे स्कूलों में हमें टहोका गया कि अपने खेतों में डिब्लर से गेहूं बुवाओ। उसमें बीज बहुत कम लगता और फसल सचमुच अच्छी होती। फिर तो मेस्टन का हजार गुना बड़ा रूप ट्रैक्टर आ गया और अब डिब्लर का बहुत प्रगत (एडवांस) रूप ‘सीडर’ आ गया है। आदमी के काम ही लगभग खत्म हो गए, जिससे सहकारिता आदि मानवीय संस्कृति का लुप्त होना लाजमी होता गया।

इस तरह मेस्टन, ट्यूबवेल-पंपिंग सेट, डिब्लर-सीजर-ट्रैक्टर आदि शब्दों ने गांव को तबसे विदेश-सा बनाना शुरू किया। फिर विदेशी रहन-सहन भी अंग्रेजी शब्दों के जरिए ही आए, जो जीवन में घुल-मिल कर हिंदी को लुप्त करते जा रहे हैं।नतीजतन, आज तो ‘कल्टीवेटर’ (तब का खुटहरा), ‘लेबलर’ (हेंगा), ‘रोटावेटर’ जैसे गाढ़े शब्द भी आ गए हैं। इन्हें हिंदी में समझने की जरूरत ही नहीं रही।

सब लोग देख के समझ रहे हैं और आदमियों के नामों की तरह उनकी सहज-स्वायत्त पहचान बन रही है। सबको भूलता ही जा रहा है कि ये अंग्रेजी के शब्द हैं। ऐसे शब्दों के लिए पहले हिंदी शब्द बनते थे। सरकारी ‘ट्यूबवेल’ खुले थे, तो नलकूप शब्द रवां करने की कोशिश हुई थी। आकाशवाणी-दूरदर्शन जैसे शब्द बनाए ही गए थे। मगर सब कागजों में खप कर रह गए। मगर कभी थे, तो सबके संज्ञान में तो आज भी हैं।

जीवन में तो टीवी-रेडियो ही रह गए और अब ये हिंदी के शब्द जैसे हो गए हैं। एक शिफत और आई है, जिसे पुन: अंग्रेजी का ही विकास कह सकते हैं। इन यंत्रों और अंग्रेजी-भाषा परस्त माहौल में जन्मी पीढ़ी के लोग इतने मंजते जा रहे हैं कि कल्टीवेटर-रोटावेटर बोल लेते हैं। वरना तब तो पंपिंग सेट को हमारे ग्रामीण भाई ‘सर्पिंग पेट’ कहते थे और सुनकर बड़ा मजा आता था।

नए साधनों की आमद

नए साधनों की आमद में घरों में गैस आई, तो सिलेंडर आया। फ्रिज-टीवी-एसी-गीजर-फिल्टर-माइक्रो आए, जिन्हें फिर भी समझा जा सकता है- नई शब्दावली की तरह लिया जा सकता है। मगर थालियां-कटोरियां क्यों ‘डिशेज-प्लेट’ हो गर्इं, प्याली की चाय क्यों ‘कप’ हो गई, रसोर्इं-घर क्यों किचन हो गए आदि पर क्या सोचा जाए? कब हो गए, का भी किसी को भान न हुआ।

हो जाने पर किसी को कोई चिंता भी नहीं है! फिर जब पक्के घर बने, तो बेडरूम, बाथरूम, बालकनी भी बने। दालान बनने खत्म हुए, तो बढ़ गए गलियारे- लेकिन कारीडोर बनकर। कोठे बेचारे उजड़ कर एक कोने में ‘स्टोर-रूम’ बन गए। जब हमारे बचपन में किसी के घर में एकाध कमरे पक्के हुए थे, तो छत होती थी, जो अब घर-घर में टैरेस हुई जा रही है। स्नानघर तो कागजों में ही था- वहीं रह गया।

शयनागार तो गाढ़ी किताबों (‘दिव्या’, ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ आदि) में ही रह गए। बेसिन बिल्कुल न थे, आ धमके। फिर शौचालय तो क्या बनते, वे तो सरकारी भवनों में बोर्ड बनकर खिसियाए पड़े हैं- बन गए सीधे ‘लैट्रिन रूम’ ही। तो अब कोई टट्टी-कुल्ला-पाखाना आदि क्यों करे, गांव का भला-भोला आदमी भी सीधे लैट्रिन करने लगा है- कई शब्दों का झंझट ही खत्म हो गया।

अब यह बताना भी मूर्खता होगी कि आड़ में किए जाने वाले ऐसे कामों के लिए हमारी भाषिक संस्कृति में एकाधिक शब्द क्यों होते थे। बस, बेचारा पेशाब आज भी आता-होता है। हालांकि वह भी जांच के लिए जाता है, तो ‘यूरीन टेस्ट’ ही होता है। रक्त-जांच के बोर्ड लगे हैं अस्पतालों में, लेकिन होता तो ‘ब्लड टेस्ट’ ही है। अंग्रेजी से बने अस्पताल-अकादमी जैसे शब्द कितने सहज और सुंदर थे! आसानी के साथ आए थे, लेकिन इन पर अब हास्पीटल और एकेडमी भारी पड़ गए हैं- भाषा विज्ञान का मुख-सुख मुंह देखता रह जाता है और अंग्रेजी के कठिन शब्द झट से लपक (कैच कर) लिए जा रहे हैं।

हिंदी प्रदेशों की इस विडंबना पर तो अलग से विचार की जरूरत होगी कि महाराष्ट्र में हास्पीटल से अस्पताल क्यों नहीं बने? वहां क्यों ‘रुग्णालय’ और ‘औषधालय’ बने, जो आज भी चल रहे हैं! लेकिन अभी तो यह देखें कि ज्वर-बुखार-जुकाम भी अब ‘फीवर’ बन कर आने लगे हैं। देह-दर्द जैसा प्रासमय शब्द ‘बाडी-पेन’ बन गया है। सरदर्द होना कम हो रहा है, ‘हेडेक’ बढ़ रहा है। बस पेट-दर्द बना हुआ है- ‘स्टमक पेन’ अभी तक कहीं गर्त में तड़प रहा होगा।… हमारे बचपन में लगे क्ष-किरण (एक्सरे) के पटों (बोर्डों) की व्यर्थता उन्हें खुद ही समझ में आ गई- बेचारे हट गए।