जब ओडिशी नृत्य विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गया था, तब केलुचरण महापात्र ने उसे पुनर्जीवित किया। न केवल उन्होंने खुद देश भर में भ्रमण करके इस नृत्य का प्रचार-प्रसार किया, बल्कि अनेक सुयोग्य शिष्य भी तैयार किए, जो आज इस नृत्य के विश्व विख्यात कलाकार हैं। उनका जन्म ओडीशा के रघुराजपुर में हुआ था।

परिवार अत्यंत गरीब था। पिता चित्रकारी करते और मृदंग बजाते थे, पर वे नहीं चाहते थे कि उनका बेटा नृत्य के क्षेत्र में जाए। मगर केलुचरण महापात्र के भीतर संगीत और नृत्य के प्रति जो अगाध प्रेम पैदा हो गया था, वह उन्हें उस ओर खींचता ले गया। आठ साल की उम्र में ही उन्होंने अच्छी तरह चित्रकारी करना और मृदंग बजाना सीख लिया था। जब वे सिर्फ नौ साल के थे, तो उन्होंने गोतिपुआ मंडलियों और लोक नाटकशाला समूहों में भाग लेना शुरू कर दिया था।

गुरु मोहन गोस्वामी से उन्होंने नृत्य और संगीत की शिक्षा लेनी शुरू की, जहां उन्होंने गायन, वादन और मूकाभिनय का कठोर प्रशिक्षण लिया। दस साल की उम्र में वे मोहन गोस्वामी की नृत्य मंडली में शामिल होकर नृत्य प्रदर्शन के लिए जाने लगे थे। हालांकि परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, इसलिए वे नृत्य के अलावा मजदूरी भी करते थे। सुपारी के खेतों में मिट्टी ढोने से लेकर पौधों की सिंचाई करने तक का काम करते थे। मगर नृत्य के प्रति उनका लगाव दिनों-दिन बढ़ता गया था। फिर उन्होंने ने कई ख्यात गुरुओं से संगीत और नृत्य की शिक्षा ली।

जब वे ओडिशी नृत्य में पारंगत हो गए तो 1953 में कटक के कला विकास केंद्र में ओडिशी का प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया। वही एकमात्र ऐसा संगीत और नृत्य का केंद्र था, जहां के पाठ्यक्रम में ओडिशी शामिल था। इसके अलावा वे अलग से भी शिष्यों को इस नृत्य में प्रशिक्षित करते थे। उन्होंने ओडिशी शैली में रासलीला, गीतगोविंद, कृष्णलीला, पंचपुष्प, कृष्ण गाथा, सखीगोपाल, कोणार्क और श्रीक्षेत्र जैसी विख्यात रचनाएं की।

उन्होंने विभिन्न रागों में अनेक भजन लिखे और संयोजित किए। करीब पंद्रह सालों तक उन्होंने कला विकास केंद्र में ओडिशी का प्रशिक्षण दिया, फिर उसे छोड़ कर देश के विभिन्न कला केंद्रों में शिक्षण देना शुरू कर दिया। इस तरह इस नृत्य का प्रशिक्षण लेने वाले कलाकारों की संख्या बढ़ती गई।

फिर उन्होंने भुवनेश्वर के ओडिशी शोध संस्थान से जुड़ गए और इस नृत्य पर अनेक शोध कार्यों में सहयोग दिया। हालांकि वे ओडिशी के प्रसिद्ध नर्तक थे, पर उन्हें तबला, पखावज, मंच सज्जा, नृत्य संयोजन आदि में भी निपुणता हासिल थी। अपने शिष्यों को भी उन्होंने इनकी शिक्षा दी। इस तरह जो ओडिशी नृत्य पहले लोककला के रूप में जाना जाता था और लगभग खत्म होने के कगार पर पहुंच चुका था, उसे उन्होंने शास्त्रीय नृत्य का दर्जा दिलाया और उन्हें इसका पहला गुरु होने का गौरव प्राप्त हुआ।

1995 में शोध केंद्र से मुक्त होने के बाद उन्होंने ओडिसी नृत्य का प्रशिक्षण देने के लिए एक संगठन ‘श्रीजन’ की स्थापना की। कई प्रसिद्ध शास्त्रीय नर्तक, जैसे- संयुक्ता पाणिग्रही, कुंकुम मोहंती, सोनल मानसिंह, प्रियंबदा मोहंती, मीनाती मिश्रा और यामिनी कृष्णमूर्ति उनकी शिष्या रहीं।

ओडिसी नृत्य में अतुलनीय योगदान के लिए केलुचरण महापात्र को संगीत नाटक अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा पद्म श्री, पद्म भूषण, पद्म विभूषण और कालिदास सम्मान से विभूषित किया गया। उनके सम्मान में ‘गुरु केलुचरण महापात्र पुरस्कार’ की स्थापना की गई।