रामनगीना मौर्य
सीखने के सिद्धांत और उनकी व्यावहारिकता पर एक लेख पढ़ते हुए नरोत्तम दास जी ने जब अखबार में यह पंक्ति पढ़ी, तो जैसे उन्हें कुछ याद हो आया। विश्वविद्यालय वार्षिकोत्सव के मौके पर अन्य कार्यक्रमों के साथ-साथ वाद-विवाद प्रतियोगिता का भी आयोजन था। उस दिन वाद-विवाद प्रतियोगिता में नरोत्तम दास के साथ परास्रातक में उन्हीं की कक्षा में पढ़ रही दो और छात्राएं भी उनकी टीम में थीं।
विगत दो-तीन वर्षों में अंतर-विभागीय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्तर पर समय-समय पर जितनी भी छोटी-बड़ी वाद-विवाद प्रतियोगिताएं आयोजित हुई होंगी, उनमें एक-दो मौकों को छोड़ कर नरोत्तम दास सदा अव्वल रहे। ऐसे में विश्वविद्यालय वार्षिकोत्सव के मौके पर आयोजित वाद-विवाद प्रतियोगिता में भी उन्हीं की टीम के जीतने पर किसी को आश्चर्य नहीं हुआ।
अगले दिन स्थानीय अखबारों में यह खबर प्रमुखता से शाया हुई। खबर में नरोत्तम दास की टीम की जीत का सचित्र उल्लेख किया गया था। पर वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान पर रही टीम में नरोत्तम दास और अन्य दोनों छात्राओं की तस्वीरों के नीचे लिखे नामों को अखबार में पढ़ते ही अचानक उनका माथा ठनका।
तस्वीरों के नीचे अन्य प्रतिभागियों के नाम में उन दोनों छात्राओं का नाम तो सही था, लेकिन उनकी तस्वीर के नीचे नाम नरोत्तम दास की जगह नरोत्तम प्रसाद प्रकाशित हो गया था। जबकि उनका नाम तो नरोत्तम दास है। उस खबर को पढ़ कर उन्हें जो खुशी हुई थी, उसमें अपने नाम के आगे छपे त्रुटिपूर्ण उपनाम को देखते ही वह काफूर हो गई।
हालांकि उपनाम में इस तरह की सामान्य-सी त्रुटि पर तत्काल उनका ध्यान नहीं गया। कारण कि अखबार में छपी सभी तस्वीरें बहुत साफ नहीं थीं। मगर, जैसे ही उन्हें याद आया कि राजनीति शास्त्र विभाग में उन्हीं की नामराशि का एक और छात्र पढ़ता है, जिसका नाम नरोत्तम प्रसाद है, तो उनके मन में एक अजीब किस्म की चिंता, आशंका-सी हुई। आखिर यह मान-सम्मान, प्रतिष्ठा का भी तो सवाल था।
प्रतियोगिता उन्होंने और उनकी टीम ने जीती, लेकिन समाचार में नाम उस नरोत्तम प्रसाद का लिखा है, यह बात नरोत्तम दास को थोड़ी नागवार भी लगी। साथ ही यह अजीब-सी आशंका उनके दिलो-दिमाग में यह भी उत्पन्न हुई कि हालांकि कालेज के संगी-साथी तो जानते ही हैं कि वाद-विवाद प्रतियोगिता में विजेता, नरोत्तम दास की टीम ही है।
लेकिन अगले कुछ वर्षों बाद अगर वे उस अखबार की कटिंग किसी को दिखाना चाहें, जिसमें किसी का भी चेहरा स्पष्ट नहीं दिख रहा है, तो सामने वाला यही समझेगा कि यह विजयी टीम में छात्र नरोत्तम दास के बजाय कोई नरोत्तम प्रसाद है। नरोत्तम दास तो खामखाह ही इस उपलब्धि का श्रेय ले रहे हैं। छोटे से शहर के लिए तो यह खासतौर पर उल्लेखनीय प्रसंग था।
ये सब बातें दिलोदिमाग में आते ही वाद-विवाद प्रतियोगिता में उनकी टीम के अव्वल आने का उत्साह ठंडा पड़ जाना स्वाभाविक था। बहरहाल, बावजूद तमाम शंकाओं-आशंकाओं के, भविष्य में सनद के लिए नरोत्तम दास ने अखबार की वह कटिंग अपने पास सुरक्षित रख ली थी। यादगार चीजें, अखबारी कतरनें आदि सहेजने की उनकी आदत जो रही है।
हां, उन्होंने इतना जरूर किया कि अपने नाम के आगे छपे गलत उपनाम को काली स्याही से रंग कर इस प्रकार ढंक दिया कि भविष्य में अगर कोई उस खबर को पढ़े या तस्वीर देखे तो उसे उनका नाम ही दिखे। उपनाम न भी दिखे, तो कोई परवाह नहीं। फिर, जरूरी भी तो नहीं कि कालांतर में इस खबर को पढ़ने-देखने वालों का ध्यान इस तरफ जाए ही।
इस प्रकार कह सकते हैं कि उचित-अनुचित निर्णय के द्वंद्व में नरोत्तम दास जी ने एक सामान्य-सी त्रुटि, जो उनकी नहीं थी, को अपनी समझ से ठीक करने का प्रयास भर किया था। फिर ‘आगे नाथ न पीछे पगहा’ जैसी उम्र में, या दुनियावी अनुभव की कमी के चलते उचित-अनुचित निर्णय लिए जाने के दबाव का द्वंद्व भी तो दिलोदिमाग पर कम ही रहता है। इधर कोई धड़ाम-धकेल विचार मन में आया, उधर कार्यरूप में परिणत।
आखिर, बाईस-तेईस साल की उम्र में किसी को दुनियावी समझ ही कितनी होती होगी? यद्यपि वे इस तथ्य को स्वीकार करते भी हैं। आखिर हम गलतियों से ही तो सीखते हैं, जो हमारे जीवन में लैंप-पोस्ट सरीखे होती हैं। यही वक्त-जरूरत हमें आगे की राह दिखाती हैं। हालांकि, आज की तारीख में नरोत्तम दास गौरव के उस पल से लगभग तटस्थ, निस्संग हो चुके हैं।
खैर, अखबार में छपे उस त्रुटिपूर्ण उपनाम को लेकर एक खलिश तो नरोत्तम दास के दिलो-दिमाग में बनी ही रही। वे जब भी वह खबर पढ़ते या तस्वीर देखते, तो उन्हें इस बात पर गर्व अवश्य होता था कि विश्वविद्यालयी दिनों में वे एक प्रतिभाशाली छात्र रहे थे, पर, साथ ही अखबार में छपे अपने नाम के आगे उस त्रुटिपूर्ण उपनाम को काली स्याही से रंगा, ढंका हुआ दिखने पर गौरवान्वित महसूस करने के बजाय उनका मन खिन्न हो उठता।
ये अखबार वाले भी अजीब होते हैं। ऐसी खबरें छापने से पहले कम-अज-कम नाम आदि के बारे में तो ठीक से तस्दीक कर ही लेना चाहिए। पता नहीं उन्हें मालूम है या नहीं कि कुछ खबरें, तस्वीरें लोगों के लिए कितनी अनमोल और महत्त्वपूर्ण हो सकती हैं? हालांकि, संज्ञान में आने पर अखबार वाले खेद व्यक्त करके भूल-सुधार भी छापते हैं, लेकिन नरोत्तम दास के मामले में ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वैसे उन्होंने तत्समय किसी स्तर पर आपत्ति भी तो दर्ज नहीं कराई। शायद संकोच कर गए या नियति मानकर उसे यों ही चुपचाप स्वीकार कर लिया। नरोत्तम दास को तो यह भी याद है कि उन्होंने अखबार की इस त्रुटि पर अपनी टीम के अन्य प्रतिभागियों का भी ध्यान आकृष्ट कराने की जरूरत नहीं समझी।
उन्हें शक था कि वे सब इस मामूली-सी त्रुटि को देखकर, कहीं उनकी हंसी न उड़ाने लगें। आखिर उन सभी का नाम और उपनाम तो सही ही छपा था। फिर नरोत्तम दास जी के उपनाम को दुरूस्त करने में भला उनकी टीम के सदस्यों या किसी और की क्या रुचि होगी? कह सकते हैं कि उस समय नरोत्तम दास जी इस उपलब्धि का जश्न उल्लासपूर्वक नहीं मना सके थे।
आज वर्षों बाद जब किसी वजह से वे अपनी हाईस्कूल, इंटरमीडिएट की सनदें खोज रहे थे तो अखबार की वही कटिंग उनके फोल्डर में पड़ी मिली। उसे देखते ही लगभग तीस-बत्तीस साल पुरानी याद फिर से ताजा हो आई, और उससे जुड़ी वह टीस भी। वैसे, नरोत्तम दास जी का भी मानना है कि जीवन में सुधार की गुंजाइश रहती है। हां, इसमें कमी-बेशी हो सकती है। ऐसे में किसी त्रुटि पर सुधार करने का अवसर है या नहीं, इस बात पर मंथन अवश्य हो सकता है, पर समय रहते।
‘कहां खोए हैं? अपनी अलमारी के सामने से हटिए। यहां कमरे में झाड़ू लगाना है।’ काफी देर तक उस खबर को पढ़ते, अखबार की कटिंग हाथ में लिए नरोत्तम दास जी खुद से बड़बड़ाते, कुछ देर यों ही उस तस्वीर में खोए रहे। उन्हें यों इस कदर खोए देख उनकी पत्नी ने कमरे में आते उनकी तंद्रा भंग की, तो उन्होंने पहली बार पत्नी को पूरा वाकया एक पल में ही कह सुनाया।
‘लेकिन, ये आपके नाम के आगे काली स्याही से रंगा हुआ क्यों है? आपका उपनाम सहित पूरा नाम नहीं छपा है। अखबार में छपी इस तस्वीर में तो आपका चेहरा भी साफ नहीं दिख रहा है। कहीं यह आपकी जगह किसी और का नाम तो नहीं?’ मानो पत्नी ने तंज किया हो। हालांकि, ये बातें कहते पत्नी की आवाज तनिक लरज उठी थी। अब वे पत्नी को क्या समझाते कि यह गलती अखबार वालों की है, उनकी नहीं। उन्होंने तो उस त्रुटि को सही करने के प्रयोजन से ही अपने नाम के आगे उपनाम को काली स्याही से रंग दिया था।
जाहिर है, पत्नी द्वारा असमय ही की गई इस अरुचिकर पृच्छा से खिन्न हो, बिना कोई स्पष्टीकरण दिए, नरोत्तम दास जी ने अनमने ढंग से वह फोल्डर बंद करके, अलमारी में रख दिया। नरोत्तम दास जी का मानना रहा है कि समय रहते अपनी बात न कह पाने या विरुदावलियां, लच्छेदार भाषा न सीख पाने वालों के लिए दुनिया चुनौतीपूर्ण ही रही है।
अब तो यह वाकया लगभग तीस-बत्तीस वर्ष पुराना हो गया है। अखबार की वह कटिंग भी कई जगह से तुड़-मुड़ और जर्जर हो गई है। लेकिन, नरोत्तम दास जी की आंखों के सामने वर्षों पुराना वही मंजर अब भी ताजा है। देखा जाए तो किसी प्रसंग में जल्दबाजी या अनिर्णय की स्थिति में कार्य को अंजाम दिए जाने से हो जाने वाली त्रुटि पर फुर्सत में किये जाने वाले अफसोस का यह सटीक उदाहरण हो सकता है।
खैर, बाजदफे नरोत्तम दास जी के जेहन में यह खयाल भी आया कि अखबार में छपी उस तस्वीर के नीचे उनके नाम के आगे लिखे उस त्रुटिपूर्ण उपनाम को उन्हें बने रहने देना चाहिए था। काली स्याही से रंगना या ढंकना नहीं चाहिए था। अखबार की वह कटिंग देखते, लोगों के मन में जब-तब उठते सवालों के तर्इं उन्हें बार-बार लोगों को खामखाह स्पष्टीकरण तो न देना पड़ता। गोया, उन्होंने कोई बहुत गंभीर त्रुटि कर दी हो।
हालांकि, अनजाने में हुई इस त्रुटि का उन्हें भरपूर अहसास था। बाजवक्त खुद से संवाद करते, वे इस तरह अपना बचाव करते, मानो ये उनकी आत्मस्वीकृतियां हैं। बहरहाल, ये उनकी आत्मस्वीकृतियां हैं या जीवनानुभव से जुड़ीं तल्ख सच्चाइयां, जहां जीवन-पथ पर चलते हुए मार्ग अवरोधक, रोड-डिवाइडर, एल-मोड़, यू-टर्न, तो कभी ऊबड़-खाबड़, रपटीले, चिकने-सपाट रास्तों का मिलना अपरिहार्य है। इस पर तो नरोत्तम दास जी ही प्रकाश डाल सकते हैं।…