इस वक्त कौन हो सकता है। रुचि मन ही मन बुदबुदाई। शांति आज थोड़ा जल्दी आ गई थी। वह रुचि के घर खाना बनाने आती थी। महीने में कम से कम दस दिन छुट्टी लेती ही थी। रुचि तिलमिला कर रह जाती थी, पर गजब का स्वाद था उसके हाथों में, वह चाह कर भी उसे हटा नहीं पाती थी। पता नहीं क्यों, शांति को जल्दी आया देखकर रुचि को अच्छा नहीं लगा।

अक्सर उसे जब छुट्टी या पैसे चाहिए होते थे, तब वह जल्दी आती थी। उसके दिल में धुकधुकी मची हुई थी। कल काम करते वक्त किसी का फोन आया था। रुचि उसी वक्त रसोईघर में किसी काम से आई थी। वह फोन पर जोर-जोर से किसी से बात कर रही थी। रुचि को देख कर उसके सुर और भी ऊंचे हो गए थे, ‘मालिक तो भगवान होता है, दो बात बोल भी देता है तो क्या हुआ। नरम-गरम तो चलता ही रहता है।’

रुचि ने ऐसा दिखाने का प्रयत्न किया जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं… शांति कुकर में और तेजी से कलछुल चलाने लगी। उसके साथ ही उसका स्वर और बढ़ गया, ‘महंगाई कितनी बढ़ गई है, अट्ठारह का आलू और तीस का प्याज… तेल तो चालीस रुपए पाव हो गया है। इतनी छोटी सी कमाई में आदमी क्या खर्च करे और क्या बचाए।’

उधर वाले ने क्या कहा, रुचि सुन तो नहीं पाई, पर शांति का बोलना जारी रहा, ‘अम्मा के मोतियाबिंद का आपरेशन भी कराना है, मामा की पोती की शादी भी है। ससुराल भी गए तीन साल हो गए।’रुचि अंदर ही अंदर खीज रही थी। क्या मेरी वजह से नहीं गई, और जगह नहीं जाती है क्या? इन लोगों की यही खराबी है। घर में खाने को नहीं होंगे, पर कोई शादी-ब्याह, तीज-त्योहार नहीं छूटना चाहिए। छोटे से छोटा त्योहार इन्हें मनाना होता है।

रुचि कभी-कभी सोचती, उसका और बड़े भैया का जन्मदिन मार्च में होता था। पिताजी सरकारी नौकरी में थे, मार्च में उन्हें आयकर भरना होता था। ऊपर से होली का त्योहार। पिता जी पहले ही बोल देते थे, ‘बेटा! त्योहार टाले नहीं जा सकते और सरकार को टैक्स नहीं दिया, तो वह जान खा जाएगी। इस वक्त तो मैं तुम लोगों को रुमाल भी दिलवाने की स्थिति में नहीं हूं। आगे-पीछे ले लेना।’

पर मध्यवर्गीय परिवारों में आगे-पीछे जैसी चीजें होती कहां हैं? और एक ये लोग हैं, न जाने कितना घूमने का मन करता है। पिछले महीने की बात है, शांति एक रिश्तेदार के यहां शादी में गई थी। पूरे पांच दिन की छुट्टी कह कर गई थी। पांच दिन के नाम पर रुचि की सांस अटक गई थी। पांच दिन! मतलब बंदी छह-सात दिन से पहले तो आएगी नहीं। ऊपर से तुर्रा यह कि नौकरी के चक्कर में हम ही सबसे पहले चले आए। सारे रिश्तेदार कितना कह रहे थे कि ‘रुक जाओ’ पर नौकरी भी तो करनी है। रुचि ने दबे स्वर में पूछा था, ‘किसके यहां शादी थी।’ शांति की आंखें चमक उठीं, ‘भाभी! हमारी मौसी की ननद की लड़की की लड़की की शादी थी।’

रुचि को लगा कि वह गश खाकर गिर जाएगी। उसका गणित बचपन से बहुत कमजोर था। रिश्तेदारों का गणित तो और भी। वह बहुत देर तक सोचती रही। मौसी की ननद की लड़की की लड़की उसकी क्या लगेगी? अपने तो मुट्ठी भर रिश्ते नहीं संभाले जा पा रहे, और यह… रुचि ने अपने मन को समझाया। पूड़ी खाने के लिए ये लोग कहीं भी जा सकते हैं। उसने बुरा-सा मुंह बनाया।

शांति अपने बच्चों के साथ मायके में ही रहती थी। कई बार उसके मुंह से सुना था, ‘हर बार होली के दिन शांति का भाई घर के बाहर र्इंटों से चूल्हा बनाता, होली के त्योहार में मुर्गा-बाटी न बने तो त्योहार का मजा नहीं आता। यही तो कहता था किशनवा…’ भाई को सोच कर शांति की आंखें अक्सर भीग आतीं। शांति बताती थी, ‘पिता जी के मरने के बाद अम्मा ने कंठी ले ली थी।

उनके लिए तो इस तरह के भोजन के बारे में सोचना भी पाप था, पर इकलौते बेटे के आगे वह हमेशा हथियार डाल देती। अम्मा दिन-भर बड़बड़ाती रहतीं। वहीं बड़े से पतीले में गोश्त पकता और भाई अपनी मित्र-मंडली के साथ दारू और गोश्त-बाटी खाता। पर उस दिन…’ शांति कहते-कहते रुक जाती। ‘काश, अम्मा ने किशनवा को डांटा न होता, काश किशनवा नाराज होकर दोस्त के यहां खाना खाने न गया होता… काश…!’

दो अक्षर के इस शब्द ने उसकी जिंदगी पलट दी थी। किशनवा दोस्त के घर से गोश्त और दारू पीकर आया और रात में ऐसा सोया कि सोता ही रह गया। अम्मा की तो दुनिया ही उजड़ गई, उनका इकलौता बेटा ऐसा रूठा कि उस निर्मोही ने पलट कर भी न देखा। चार-चार पोतों को जन्म देने वाली भाभी, मां को अचानक कुलच्छिनी लगने लगी। ‘खा गई मेरे बेटे को, इसे भी औलाद का सुख नहीं मिलेगा।’ अम्मा का दुख बहुत बड़ा था, पर भाभी की तो सारी दुनिया लुट गई थी। अम्मा ने भी तो अपना सुहाग खोया था, फिर वे क्यों नहीं भाभी का दुख समझ पाई। वक्त के साथ अम्मा का गुस्सा और ताने बढ़ते गए और भाभी अपने बच्चों को लेकर अपने मायके चली गई।

‘भाभी! अम्मा एकदम अकेली पड़ गई थीं, भाभी ने उनका कष्ट नहीं समझा। उन्होंने अपना बेटा खोया था, अरे गुस्से में कुछ कह भी दिया तो क्या हुआ, बर्दाश्त कर लेती।’रुचि हमेशा सोचती कि एक औरत एक औरत का दर्द क्यों नहीं समझ पाती। काश, उन दोनों ने एक-दूसरे के आंसू पोंछ दिए होते। काश दोनों एक-दूसरे का सहारा बन गई होतीं।…

शांति की भाभी के यों अचानक चले जाने से शांति की अम्मा बिल्कुल अकेले पड़ गई थी। अम्मा का मोह शांति को मायके खींच लाया। पति दिमाग से मोटा था। गृहस्थी ससुर के पेंशन से ही चलती थी। शांति को मायके रहने का बहाना मिल गया, ‘ये कुछ करते नहीं, कुछ तो करना ही है। वरना तीन-तीन बच्चे कैसे पलेंगे।’ ‘शांति, तेरा काम हो गया।’ ‘हां भाभी, सारा काम निपटा आए।’ शांति ने हुलस कर कहा। ‘कौन सा कागज बनवाने गई थी तू?’

‘हमारी सास बहुत ही दुष्ट है, हमारे परिवार का नाम राशन कार्ड से कटवा दी थी। देवर अपना कार्ड बनवा लिया… हमारा पति थोड़ा मोटे दिमाग का है, भाग्य ही फूटा है हमारा भाभी। ये ठीक होते तो क्या हमें दौड़-भाग करनी पड़ती।’ सास के लिए अपशब्द सुन कर रुचि सकपका गई। ‘कुछ भी बोलती है, अपनी सास को कोई ऐसे गाली देता है? पति की इज्जत किया कर।’

‘आप भी न…’ शांति शरमा गई। उसे शरमाता देखकर रुचि के चेहरे पर हंसी आ गई। इसके दिमाग के आगे तो उसकी बुद्धि फेल हो जाती। वो बेचार अनपढ़ आदमी क्या करे। शांति को अपनी पढ़ाई पर बड़ा गुरूर था। ग्यारहवीं पास थी। अठत्तर फीसद आए थे, पर शैंपू को शैंपुल और डस्टबिन को डिस्टबिन कहती थी। रुचि का बेटा कई बार उससे कहता था, ‘मम्मी तुमको उसकी भाषा कैसे समझ में आती है? भगवान जाने कौन से स्कूल से पढ़ी है।’

‘इतना समय लगता है, राशन कार्ड बनवाने में…?’ रुचि ने आश्चर्य से पूछा। रुचि अच्छी तरह जानती थी कि सरकारी कामकाज में वक्त लगता ही है, पर वह जान कर भी अंजान बनी रही। दस दिन की छुट्टी कम नहीं होती, आखिर उसे भी तो नाराजगी दिखानी ही थी। ‘भाभी, राशन कार्ड नहीं बनेगा तो आवास के लिए पैसा कैसे आएगा।’ ‘आवास?’

‘राशन कार्ड से पता चलता है न कि हम वहीं रहते हैं। कल को सरकार पैसा भेजेगी तो हम क्या करेंगे।’ ‘पर जमीन कहां है तेरे पास…?’
‘वही तो निपटाने गए थे, बुढ़िया तैयार ही नहीं हो रही थी।’ ‘बुढ़िया?’ ‘अरे, हमारी सास।’‘ऐसे कैसे बोल देती हो तुम…’

‘वो इसी लायक है। जानती हैं भाभी, क्या कहती है- गांव बसा नहीं, लुटेरे लूटने आ गए। हम उनको लुटेरे लगते हैं। हम तो सीधे-सीधे बोल दिए, दुनो जनी का हिस्सा बांट दो। कल को आवास का पैसा आएगा तो हम मर-मर कर घर बनवाएं और वो हिस्सा देवर को मिले, तो क्या फायदा।…’
रुचि हक्की-बक्की सी उसे देखती रह गई।

यह क्या था, घर बसाने के लिए घर को पहले तोड़ना पड़ेगा। रुचि को आज उसकी सास पर गुस्सा नहीं, तरस आ रहा था। आखिर वह कहां गलत थी। शांति ने हमेशा अपनी मां के दर्द को तो देखा, पर अपनी सास का दर्द उसे क्यों नहीं दिखा। आज तक उसने अपने पति के पेंशन के बल पर उस घर को जोड़ कर रखा, पर सरकार की आवास की योजना के कारण उसका घर टूट रहा था। सबने अपना-अपना हिस्सा तो सोचा, पर उस हिस्से में मां कहीं नहीं थी।