अधिकांश विषयों में उसे उत्तीर्ण अंक से सिर्फ एक दो नंबर ही ज्यादा मिले थे। गनीमत थी कि किसी भी विषय में लाल निशान नहीं लगा था। ऊफ! वह घोर अविश्वास से भर गई। जो शख्स स्कूल से लेकर कालेज तक हर कक्षा में प्रथम आता रहा हो, वह सीए इंटर परीक्षा में इतना नीचे कैसे आ सकता है!
महेंद्र से उसका परिचय कालेज में उस समय हुआ, जब वह बीकाम प्रथम वर्ष में थी और महेंद्र अंतिम वर्ष में। एक दिन महेंद्र और वह लाइब्रेरी में क्लर्क के पास जाकर एक ही लेखक की एकाउंटेंसी की पुस्तक मांग बैठे। संयोग से उस समय उस किताब की एक ही प्रति मौजूद थी। क्लर्क जरा मजाकिया तबियत का था। हंस पड़ा- ‘वाह… आप दोनों अगर एक होते तो… मतलब, एक परिवार से होते तो साझे में काम चला लेते कि नहीं?… अब हम क्या करें तुस्सी दस्सो।’
उसकी बात का निहितार्थ समझ कर सुरंजना शर्म से लाल हो उठी। पर महेंद्र ने मुस्कुराते हुए तुरंत बात को संभाल लिया- ‘ठीक है सर, आपकी बात मान कर अस्थायी तौर पर हम एक हो जाते हैं। किताब इसके नाम से जारी कर दें। हम साझे में काम चला लेंगे।’ फिर किताब और उसे साथ लिए महेंद्र कालेज भवन के सामने मैदान की ओर बढ़ गया। मैदान में नवंबर की गुनगुनी धूप थी।
छोटे-छोटे झुंडों में छात्र-छात्राएं मटरगश्ती कर रहे थे। महेंद्र सुरंजना के साथ दाएं कोने के पीपल के नीचे आ बैठा। महेंद्र कालेज में ‘चैंपियन स्टूडेंट’ के रूप में ख्यात था। सुरंजना उसके व्यक्तित्व से पहले ही प्रभावित थी। पीपल के पेड़ तले हंसी-मजाक और चुटकुलों का दौर शुरू हुआ, तो दो घंटे कब बीत गए पता ही नहीं चला।
उसके बाद दोनों के बीच घनिष्ठता बढ़ती गई और वह कब प्यार के लहलहाते पौधे में तब्दील हो गई, दोनों में से कोई नहीं जान सका। एक शाम दोनों नीम तले बैठे थे। महेंद्र ने उन्माद से भर कर सुरंजना को बाहों में समेट लिया, तो वह भी सिहर कर चूजे की तरह उसकी छाती में दुबक गई। महेंद्र ने कहा- ‘हे देवी.. अब दूरी सही नहीं जाती। हमारे बीच की मर्यादा की लक्ष्मण रेखा कब मिटेगी?’
‘धैर्य वत्स धैर्य! अभी तुम्हारी तपस्या पूरी नहीं हुई है!’ सुरंजना खिलखिलाई। ‘हमारे परिवार तो शादी कराने को तैयार हैं माही। मैं ही शंकित हूं…!’ सुनकर महेंद्र हड़बड़ा कर उठ बैठा- ‘शंकित…? कैसी शंका? मैं कुछ समझा नहीं।’ ‘सुना है, नारी की कमनीय काया और मांसल सौंदर्य के मोह में फंस कर पुरुष कर्तव्य से भटक और जिम्मेदारियों से विमुख हो जाता है। शंकित हूं कि लक्ष्मण रेखा टूटते ही तुम पढ़ाई के प्रति उदासीन न हो जाओ। छह महीने बाद ही सीए की परीक्षा होने वाली है।…’
‘हा हा हा…’ महेंद्र ठहाका लगा उठा- ‘क्या दूर की कौड़ी लाई हो यार! तुम्हारी शंका को एक नियम भी मान लिया जाए तो निवेदन है कि हर नियम के अपवाद भी होते हैं। मुख्य बात है व्यक्ति का आत्मविश्वास और प्रतिबद्धता! तुम्हारा प्यार तो लक्ष्य हासिल करने की नई प्रेरणा ही देगा मुझे, भटकाव नहीं।’
अगले महीने दोनों विवाह सूत्र में बंध गए। शादी के बाद दो-तीन महीने मौज-मस्ती में गुजर गए। कभी कश्मीर की डल झील में तैरते शिकारे पर, तो कभी शिमला की वादियों में! रोमांच और मादकता से भरे दिन थे वे! एक दो बार दबी जुबान से सुरंजना ने परीक्षा की जिम्मेदारियों से महेंद्र को अवगत कराने की चेष्टा की, तो वह उसकी बातों को फाख्ता की तरह उड़ाते हुए हंस पड़ता। जब-जब वह उससे परीक्षा को लेकर गंभीर होने की बात करती, वह बहाने करके अगले दिन पर टाल देता।
सुरंजना की आंखें छलछला उठीं। शादी के बाद की सारी स्मृतियां जेहन में अभी भी डाल्फिन-सी नाच रहीं थी। वह पलंग पर लेट गई। बाहर वातावरण पर रात का काला नकाब पड़ा हुआ था। दूर तक फैली नीरवता की धुंध में झींगुरों की टीम सूराख बनाने में जुटी हुई थी। पलंग की दूसरी ओर महेंद्र शिशु-सा बेसुध नींद में निमग्न था। सुरंजना के मस्तिष्क में भयंकर द्वंद्व चल रहा था। तो क्या सचमुच नारी की देह और उसका संसर्ग एक अध्यवसायी और जिम्मेदार व्यक्ति के लिए अभिशाप साबित होता है? विवाह के पहले की महेंद्र के अंतर की दृढ़ता और उसका आत्मविश्वास विवाह के बाद कहां बिला गया भला?
सुरंजना उठी, एक गिलास पानी पिया तो चित्त कुछ शांत हुआ। इस तरह कुंठा और पराजय के एहसास को शह देने से काम नहीं चलेगा। उसका मस्तिष्क तेजी से एक योजना की रूपरेखा बनाने में लगा था। सुबह किसी के झकझोरने पर महेंद्र की नींद टूटी। सामने सुरंजना खड़ी थी। सद्यस्रात बदन से गुलाब की खुशबू लिपटी थी। हाथ में भाप उड़ाती काफी का प्याला था। ‘तुम…! इतनी सुबह!’ महेंद्र चौंक कर उठ बैठा।
‘हां, मैं… इतनी सुबह!’ सुरंजना खिलखिलाई तो जैसे पायल के घुंघरू बज उठे हों। ‘सुबह का समय अध्ययन के लिए सबसे उपयुक्त होता है माही! काफी लो, सारा आलस्य दूर हो जाएगा। फिर फटाफट तैयार होकर पढ़ने पहुंचो। नाश्ता वहीं मिलेगा, ठीक?’ महेंद्र को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। सचमुच काफी पीने पर महेंद्र को ताजगी का अनुभव हुआ। अपेक्षाकृत दो घंटे जल्दी उठ जाने पर झुंझलाहट नहीं हुई।
कुछ देर बाद वह तैयार होकर पढ़ने चला आया। बड़ी मेज पर के फूलदान में ताजे गुलाबों का गुलदस्ता महक रहा था। रैकों में किताबें-कापियां करीने से सजा दी गई थीं। तभी सुरंजना नाश्ते की प्लेट लिए आई। महेंद्र का मनपसंद नाश्ता! खिले कमल-सा स्रिग्ध चेहरा देख कर महेंद्र से रहा नहीं गया। आगे बढ़ कर उसे आलिंगन में भर लिया। ‘बस बस… अभी लाड़ का समय नहीं है हुजूर! नाश्ता कीजिए और फिर चार घंटे बिल्कुल एकाग्र होकर पढ़ाई में लग जाइए। अभी छह बजे हैं, दस बजे तक बिना मन को इधर उधर भटकाए! आपको मेरी कसम!’
न जाने कैसा सम्मोहन था सुरंजना के आदेश में, महेंद्र पूरा तरह तन्मय होकर पढ़ाई में जुट गया। दस कब बज गए, पता ही नहीं चला। ठीक दस बजे सुरंजना किसी यक्षिणी की तरह प्रकट हुई। चाय की प्याली और उस दिन का ताजा अखबार लिए! ‘जब तक तुम चाय की चुस्कियां लोगे, मैं आज की खबरें पढ़ कर सुना रही हूं।’ आधे घंटे बाद सुरंजना चली गई।
इस आधे घंटे की उसकी उपस्थिति और चुहल ने महेंद्र के भीतर नई ताजगी और स्फूर्ति भर दी। वह दुगुने जोश से पढ़ाई में लग गया। इस एकाग्रता का फल भी उसे मिला। पिछले कई माह से अधूरे पड़े नोट्स सब पूरे हो गए। आज के अध्ययन से उसका मन अद्भुत आत्मविश्वास से भर गया। दो बजे तक वह सब कुछ भुला कर मोटी-मोटी किताबों में उलझा रहा। दो बजे सुरंजना उसे प्यार से डाइनिंग टेबल पर ले आई और दोनों ने साथ भोजन किया।
‘अब दो घंटे तुम्हें मेरी सौत से दूर रहना होगा।’‘सौत…?’ महेंद्र अकबका गया।
‘ये भारी भरकम किताबें सौत ही तो हैं।’ सुरंजना खिलखिलाई तो होंठों की फांक के भीतर करीने से सजे मुक्ता दाने चिलक उठे- ‘दो घंटे मैं होऊंगी, तुम होगे और हमारे बीच कोई नहीं होगा, समझ रहे हो न!’ चार बजे से फिर पढ़ाई की दिनचर्या शुरू हुई। अब तक महेंद्र के चेहरे पर आत्मविश्वास खूब गहरा उठा था। शाम को सुरंजना आग्रह करके उसे झील पर ले आई। वहां पुटुश की घनी झाड़ियों के पीछे महेंद्र उसकी गोद मे सिर रख कर लेट गया।
रात के आठ बजे महेंद्र तरोताजा होकर फिर पढ़ाई में लग गया। धुन ऐसी जमी कि मोबाइल, सोशल मीडिया, टीवी सब छूट गए। सुरंजना रसोई का काम खत्म करके जब कमरे में आई तो ग्यारह बजे रहे थे। महेंद्र मोटी-मोटी किताबों में उलझा हुआ था। उसे सुरंजना के आने का आभास भी नहीं हुआ। सुरंजना दबे पांव लौट गई और एक प्याला गर्म काफी बना लाई। उसके वापस आने तक महेंद्र को झपकी आ गई। ‘माही…’ सुरंजना ने हल्के से उसे कंधे से हिलाया- ‘बहुत थक गए हो, अब बंद कर दो।’ उनींदा-सा महेंद्र मुस्कुराया- ‘सचमुच, इस वक्त काफी की तलब हो रही थी।’
समय तेजी से बीतता रहा। महेंद्र अब पूरे विश्वास, संयम और धैर्य के साथ एकाग्र होकर पढाई में लग गया था। परीक्षा के पंद्रह दिन पहले से ही महेंद्र सब कुछ भुला कर बस अध्ययन कक्ष में कैद होकर रह गया। सुरंजना अध्ययन कक्ष, रसोई और बेडरूम के बीच तितली की तरह उड़ती रहती। इन दिनों दोनों की थकावट चरम पर पहुंचने लगी थी।
नियत समय पर परीक्षाएं हुर्इं। फिर परिणाम घोषित हुए। महेंद्र को प्रथम श्रेणी मिली थी और उसे गोल्ड मैडल से सम्मानित किया गया। स्थानीय न्यूज चैनल पर उसका संक्षिप्त इंटरव्यू प्रसारित हुआ, जिसमें रिपोर्टर के प्रश्न पर महेंद्र ने बेबाकी से उत्तर दिया- ‘नारी का रूप और सौंदर्य पुरुष को लक्ष्य से भटकाता नहीं है, जैसी कि आम धारणा बनी हुई है। वह लक्ष्य के प्रति समर्पण का भाव भरता है।…