पारस का प्रत्यय न जाने कब से मनुष्य जाति की स्मृति में बसा है। स्मृति की सत्ता सजीव सत्ता है। स्मृति में पड़ी हुई चीजें स्मृति से स्मृति में चलती चली आती रहती हैं। स्मृति में किसी भी रूप में सुरक्षित चीजों के जीवित होने में कोई संदेह नहीं किया जा सकता। मनुष्य जीवन के काम की न रह जाने वाली चीजें तो विस्मृति के विशाल गर्भ में हमेशा के लिए विलीन हो जाती हैं।
जो विलीन हो जाने से बचा हुआ है, वह सब किसी न किसी तरह से मनुष्य के भविष्य के लिए अवश्य ही मूल्यवान है। हमारी सुदीर्ध जीवन यात्रा में जो विश्वास है, वे विचार ही हैं। परीक्षित होकर सामूहिक जीवन में अपने सहायक होने को सिद्ध कर चुके विचार विश्वास की पदवी प्राप्त कर लेते हैं।
पारस यथार्थ से ज्यादा मिथक है। सृष्टि में सारी चीजें स्थिर नहीं हैं। सब कुछ गतिशील है। यथार्थ, कल्पना, मिथक- इन सबकी एक दूसरे में आने-जाने की अंतर्यात्रा चलती रहती है। मनुष्य जीवन की मूल्यवान चीजें सतही नहीं होतीं। केवल सबसे ऊपरी सतह पर स्थित दिखाई देने वाली चीजें ही जीवन के लिए जरूरी नहीं होतीं। जीवन की सच्चाई बहुत व्यापक होती है। मनुष्य की चेतना की भी अनेक सतहें हैं।
पारस की परिकल्पना मनुष्य के मस्तिष्क में पत्थर के रूप में है। अधिक मूर्त, अधिक ठोस और अधिक जड़ स्वरूप में। वैसे जड़ और चेतन की धारणा भी एक सापेक्षिक धारणा ही है। समूचा सृजन चेतना की, परम चेतन की ही अभिव्यक्ति है। मनुष्य के मन में महत्तम चीजों को पकड़ कर रखने की लालसा हमेशा से ही बलवती रही है।
हो सकता है, इसी वजह से पारस को ठोस, अचल और आसानी से हाथों में पकड़ रखने के योग्य पत्थर के छोटे सुघड़ टुकड़े के रूप में देखने का अपना आग्रह कल्पित कर रखा हो। शायद किसी ने पारस को नहीं देखा हो। अजीब है, देखा किसी ने नहीं है, मगर पारस है हर किसी के जेहन में।
हमारा समय शब्दों के पत्थर हो जाने के अभूतपूर्व दुर्भाग्य का समय बन गया है। न जाने क्यों, न जाने कैसे आदमी के देखते-देखते हमारे समय में आदमी पत्थर बन गया है। सब कुछ देख-सुन रहा है, मगर कुछ भी नहीं देख-सुन रहा है। हमारे समय के शब्द पत्थर बन गए हैं। हम पत्थर बन चुके शब्दों के अभिमानी समय के आदमी हैं। हमारे समय में पत्थर की जबान से आदमी पत्थर बन चुके शब्दों को आदमी के ऊपर फेंक रहा है।
बड़ा गजब है, आदमी का सिर नहीं फूट रहा है। हाथ-पांव नहीं टूट रहा है। आदमी शब्दों की चोट खाकर भौंचक देखता रह जाता है। वह देखता रह जा रहा है कि उसके भीतर का आदमी मामूली-सी चोट से मर गया है। जीवन रस को जगाने वाले शब्दों का अकाल पड़ गया है हमारे समय में। आदमी के भीतर की पुलक को सहलाने वाले शब्द हमारे समय में नहीं है।
पत्थर का किसी को छूकर बदलने की अभिक्रिया का वाचक पारस बन जाना समय का परम सौभाग्य है। पारस के स्पर्श से रूपांतरण की सामर्थ्य को खोकर पत्थर बन जाना समय का दुर्वह अभिशाप है। वरदान और अभिशाप के दो सुदूर छोरों के बीच फैले मनुष्य जाति के जीवन का मार्मिक सत्य मिथक के प्राणों में समाहित है।
जब तक मनुष्य जाति की जीवन-यात्रा जय-पराजय, उत्थान-पतन, उत्कर्ष-अपकर्ष, दुख-सुख और वीरता-कायरता के विचारों के बीच प्रवाहित रहेगी, मिथक मरेंगे नहीं। मनुष्य की जिजीविषा का गौरवरगान मिथक में गूंजता रहेगा। मिथक मनुष्य जाति की अंतर्चेतना में अमृत जिजीविषा के आलोक और वैभव के जीवित साक्ष्य हैं।
पारस मनुष्य की वह प्रकृति है, जिसमें आत्मा की गहराई प्रतिबिंब है। पारस मनुष्य का वह व्यवहार है, जिसमें उसका हृदय प्रवाहित है। पारस हमारे वे शब्द हैं, जिनमें हमारे अस्तित्व के मूल का रस समाहित है। शब्दों में अर्थ पहले से मौजूद नहीं होते। शब्दों में रस पहले से उपलब्ध नहीं रहता। शब्दों में आकर्षण की शक्ति पहले से समाहित नहीं रहती।
शब्दों में अर्थ, रस और आकर्षण की अमिट शक्ति भरता है अपने जीवन रस से, अपनी जीवन संपदा से, अपनी जीवन शक्ति से शब्दों का प्रयोक्ता। जिन शब्दों में मनुष्य का समूचा मन समाहित होकर संपुटित हो जाता है, शब्द मंत्र बन जाते हैं। जिन शब्दों में हमारी संवेदना समाकर उनको समावेशित कर लेती है, वे शब्द अपने स्पर्श से अंत:करण का पूरा स्वरूप बदल देते हैं।
हर मनुष्य के भीतर कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में पारस के अनगिनत प्रकल्पों में से कोई न कोई प्रकल्प अवश्य स्थित है। पारस के अनेक प्रकल्पों के बीच साहित्य भी एक उत्कृष्ट प्रकल्प है। वह स्पर्श की अद्भुत महिमा का अथक उद्गाता है। वह स्वयं तो प्रकाशित है ही, दूसरे स्वरूपों में स्थित पारस को पहचान के लिए प्रकाश का प्रदाता भी है।
साहित्य नाम, रूप और रस के स्पर्श के चमत्कार के वैभव का अमिट अभिलेख है। साहित्य कह रहा है कि मनुष्य जाति के पास अनमोल पारसमणि है। साहित्य जब तक रहेगा, पुकार-पुकार कर कहता रहेगा, पारस को पत्थर नहीं होना चाहिए।