अब घरों में अम्मा, माई, बाबूजी और दादा-दादी लोग रहेंगे, तो यह बेडरूम-बाथरूम, स्टोररूम-टैरेस वाला घर बेहद बेचारा नहीं हो जाएगा और उसमें रहने वाले लोग समाज में पिछड़े, बल्कि ‘बैकवर्ड’ नहीं हो जाएंगे! तो फिर अब इसमें मम्मी-डैडी रहने लगे- रमचन्ना की माई हो गई- रामचरन की मम्मी। फिर बेचारे दादी-दादा भी हो गए- ग्रैंड फादर-ग्रैंड मदर।

और अब वह दिन, वह मंजिल दूर नहीं, जब ये लोग माम-पाप और ग्रैनी होने की राह पकड़ लेंगे, जो शहरों में कब के हो चुके हैं! अब तो हमारे नौजवान बड़ी शान से ‘हमारे वन सन वन, वन डाटर’ और नौनिहाल लोग ‘हम टू ब्रदर्स-सिस्टर्स’ कहने लगे हैं। इसमें आई गिनतियों का मामला तो कहने लायक ही नहीं- इसके लिए तो गोया अंग्रेजी को वैधता ही मिल गई है। फिर टू-थ्री-फोर आदि तो उल्लेख्य भी न रहे।

सबसे बुरा हाल हिंदी के सास-ससुर का हुआ है। हमारे यहां ये मां-पिता के स्थानापन्न हुआ करते थे। जंगल में सीता ने अपने पालकों को पिता-माता नहीं, सास-ससुर के समान कहा है- ‘बनदेवी बनदेव उदारा, करिहहिं सास-ससुर सम सारा’। लेकिन अब वे अंग्रेजी की औपचारिक संस्कृति में ‘फादर-इन-ला, मदर-इन-ला’ के रूप में कानूनन मां-पिता हो गए हैं।

फिर संक्षिप्त रूप बनाने की अंग्रेजी प्रवृत्ति के तहत बोलने-कहने में वे ‘इन-लाज’ से सिर्फ ‘लाज’ रह गए। साले-बहनोई की स्थिति हमारे यहां भी अच्छी न थी- मजाक से गाली तक में इस्तेमाल होता रहा। सो, उसके लिए तो ‘ब्रदर-इन-ला’ बन जाना उतना खलने वाला भी नहीं। और ये लोग ‘लाज’ बने नहीं, क्योंकि सास-ससुर बन गए हैं- कोई भाषा अपने को दुहराती नहीं- बदल लेती है।

बदले भोजन-वसन

अब ऐसे घरों में ऐसे रिश्तों के साथ रहने वाले लोग अगर भात-दाल खायेंगे, तो कैसा लगेगा! लिहाजा, वे अब तो राइस-दाल खाते हैं। चावल-दाल तो शरीफ लोग हमारे बचपन से ही खा रहे हैं. यानी चावल-भात का अंतर तभी मिट गया था। सो, खाने वाले चावल को ‘राइस’ बनने में देर न लगी। अब तो ‘चाइनीज’ की बहार है, जिसमें चावल से बनी चीजों के तो ‘इन्हके नाम अनेक-अनूपा’ हो गए हैं, लेकिन ‘हम नृप कहब स्व मति अनुरूपा’ के मुताबिक मैं कुछ थोड़े बता पाऊंगा- मंचूरियन… आदि बन गए। हमारा ‘परौठा’ बस आधुनिक होने में परांठा भर हुआ है।

बचपन में ‘ब्रेड’ का मतलब रोटी पढ़ाया गया था। बाद में पता लगा कि वह ‘पावरोटी’ होना चाहिए था। लेकिन इसीलिए रोटी ‘ब्रेड’ होने से बच गई, क्योंकि तब तक ब्रिटेनिया आदि के ब्रेड बन कर आ गए थे। लेकिन ब्रेड के साथ बटर आ गया और रोटी पर मक्खन लगने बंद हो गए- ब्रेड पर बटर लगने लगा। ‘दाल-रोटी चलना’ मुहावरा तक बदल के ‘यही हमारा ब्रेड-बटर है’ हो गया।

घी जरूर अंग्रेजी में भी बना हुआ है, पर उससे दाल अब छौंकी नहीं, ‘फ्राई’ की जाती है। और अब मशीनी खेती में बैलों की बेजरूरती के चलते गायों पर संकट आया, तो पैकेट में ‘मिल्क’ आने लगे- हालांकि थैली में दूध आ सकते थे। उसमें भी ज्यादा गाढ़ा वाला मिल्क ‘गोल्ड’ हो गया- सामान्य वाला मिल्क जरूर ‘ताजा’ रह गया है।