अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रुपए कमाने गए हैं। बहुत सी थैलियां लेकर आएंगे। अम्मीजान अल्लाह मियां के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पांव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है।’

प्रेमचंद की कहानी ‘ईदगाह’ के उद्धृत अंश में हामिद साहित्य का वह अमर किरदार बन चुका है जो उत्सवी माहौल में इंसानी रिश्तों को करुणा के साथ जोड़ता है। ‘ईदगाह’ 1933 में चांद पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। मूल रूप से उर्दू में लिखी इस कहानी का नायक एक छोटा बच्चा हामिद है, जिसके माता-पिता गुजर चुके हैं। गरीब दादी अमीना उसका पालन-पोषण करती है।

अभाव में पल रहे हामिद के पास उम्मीदों का आसमान है। बकौल दादी उसके अब्बा पैसे कमाने गए हैं और मां भी अल्लाह मियां के यहां गई हुई हैं।
दादी के प्यार और मां-बाप के लौटने के इंतजार ने हामिद को एक संवेदनशील बच्चा बना दिया है। इस कहानी में ईद जैसे त्योहार के वर्णन के जरिए प्रेमचंद आम लोगों की उत्सवधर्मिता के साथ बाल मनोविज्ञान को भी बखूबी सामने रखते हैं। हामिद को उसकी दादी ने तीन पैसे दिए हैं। इसी तीन पैसों का खर्च हामिद को साहित्य के संवेदनशील किरदारों में खड़ा कर देता है।

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ईदगाह के मेले में हामिद झूले पर नहीं चढ़ता है, यह सोच कर कि महज कुछ चक्कर लेने के लिए अपने पैसे का एक तिहाई क्यों खर्च कर दे। जब उसके साथी मिट्टी के रंग-बिरंगे खिलौने खरीद रहे थे, तब हामिद ने खुद के साथ तर्क किया कि खिलौना हाथ से गिरे तो चूर-चूर हो जाए। मिठाई की दुकानों के सामने जाकर उसे किताब में लिखी सलाह याद आने लगी कि अपनी जुबान को चटोरी होने से बचानी चाहिए। इस तरह बचपन के हर आकर्षण पर विजय पा कर हामिद अपने तीन पैसे बचा लेता है।

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हामिद की नजर पड़ती है लोहे की दुकान पर रखे चिमटे पर। हामिद को ध्यान आता है कि उसकी दादी के पास चिमटा नहीं है, जिस वजह से अक्सर उनके हाथ जल जाते हैं। चिमटा खरीदने की सोचते हुए हामिद महसूस करने लगता है कि उसकी दादी, इसे लेकर उसे कितनी दुआएं देंगी।

हामिद न सिर्फ चिमटा खरीदता है, बल्कि अपने दोस्तों को यह समझाने में भी कामयाब हो जाता है कि उन सबकी खरीद बेकार है। कहानी में नाटकीय तरीके से सभी बच्चों के मिट्टी के खिलौने टूट जाते हैं और बचा रह जाता है हामिद का ‘रुस्तम-ए-हिंद’ यानी चिमटा। ‘ईदगाह’ कहानी बालमन की कोमल भावनाओं का उत्सव है। अभाव से जूझ रहा हामिद उत्सवधर्मिता का प्रतीक बन जाता है। उत्सव, संवेदनाओं को समृद्ध करने का।