नागरिकों का एक बड़ा वर्ग इस समय बेचैन दिखता है। यह बेचैनी महंगाई और बेरोजगारी ने ही नहीं, तीखे आरोप-प्रत्यारोप की वर्तमान राजनीति ने भी बढ़ाई है। उधर, आमजन पस्त है। खुशहाली सूचकांक में हम कई पायदान नीचे जा चुके हैं। पांच किलो अनाज देने से गरीबों के चेहरे पर खुशियां नहीं दिख रहीं। आज ज्यादातर घरों में बुजुर्ग असहाय पड़े हैं। नौजवान नौकरियों के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं। बहुसंख्य लोगों की जेबें खाली हैं। गृहणियों के माथे पर चिंता की लकीरें हैं।
नकली चकाचौंध और झूठे आंकड़ों के बूते सच्चाई से आंखें नहीं मूंदी जा सकतीं। मौजूदा राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य निराशाजनक है। चुनाव मुद्दों से भटक चुका है।
ऐसे दौर में पत्रकार एवं लेखक मुकेश भारद्वाज की पुस्तक ‘मनमोदी’ आई है। इसे पढ़ते हुए लगता है कि वे देश के राजनीतिक पटल पर जनता का प्रतिवेदन ही नहीं रख रहे बल्कि भारत में गढ़े जा रहे नए लोकतंत्र की तस्वीर भी प्रस्तुत कर रहे हैं।
लेखक की सत्ता को नसीहत
यह पुस्तक ‘जन-गण-मन’ की पीड़ा का दस्तावेज है। इसमें कई जगह लेखक सत्ता को नसीहत देते नजर आते हैं। वे लिखते हैं- लोकतंत्र में सबसे अहम है आस्था। लेकिन लंबे समय से स्वायत्त संस्थाएं जिस तरह से सत्ता का दूत बनने की रवायत पर चल रही हैं वह लोकतंत्र को अचेत कर रहा है। यह हाल तब है जब लोकतंत्र की उम्र सौ साल भी पूरी नहीं हुई है और अभी तो हम अमृतकाल मनाने की बात कर रहे हैं। इस दौर में हमारे सामने कुछ अमृत है, तो विष भी। लिहाजा करीब डेढ़ अरब की आबादी की ओर बढ़ रहे इस देश को नीलकंठ बनने के साथ अपने लोक कल्याणकारी राज्य के स्वरूप को बचाए रखना है।

पिछले तीन दशकों से मुकेश भारद्वाज भारतीय राजनीति की नब्ज टटोलते रहे हैं। जिस भ्रष्टाचार और महंगाई मुक्त भारत के सपने को लेकर आए नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनने के बाद दूरगामी फैसले कर रहे थे, उसी दौरान भारद्वाज उन निर्णयों से पड़ रहे प्रभावों पर लिख रहे थे। उन्होंने सांस्कृतिक पुनर्जागरण की ओर बढ़ते भारत को एक पत्रकार की दृष्टि से देखा। फिर इस पर नियमित रूप से लिखना शुरू किया और नरेंद्र मोदी के सत्ता संभालने के एक साल बाद लोगों के मन को टटोलना शुरू किया कि क्या उनकी उम्मीदें पूरी हुई? अच्छे दिन के नारे क्या साकार हुए?
‘मोदी मंत्र’ को समझने की कोशिश
पुस्तक ‘मनमोदी’ सत्ता और लोक के बीच बनते बिगड़ते संबंध, मीठी-कड़वी सच्चाइयों और कर्तव्य से डिग रही कार्यपालिका की जमीनी हकीकत से दो-चार होने की कोशिश है। इसी के साथ कोशिश है लोकतंत्र के बरक्स ‘मोदी मंत्र’ को समझने की।
मुकेश भारद्वाज लिखते हैं
केंद्रीय सत्ता में एक साल पूरा करने के बाद 2015 में पत्रकारों को अनुमान नहीं था कि मोदी की सरकार उनके लिए राजनीतिक पत्रकारिता का नया स्कूल साबित होगी। पुराने सभी पाठ्यक्रम धता बता दिए। तब कोई नहीं जानता था कि नरेंद्र मोदी के चेहरे पर भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में प्रचंड बहुमत साबित करेगी। जनता उनके पीछे चल रही थी।
भारतीय लोकतंत्र की एक नई तस्वीर बन रही थी। सत्ता की केंद्रीय शैली सामने दिखने लगी थी। वहीं देश का चौथा स्तंभ मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता की गोद में जा बैठा। इसके प्रतिरोध में हमने वैकल्पिक मीडिया को भी उभरते देखा जो लगातार केंद्रीय सत्ता के कुछ फैसलों का प्रतिरोध कर रहा था। जनसंचार माध्यमों की शक्ति से प्रधानमंत्री वाकिफ थे। इसी दौर में उन्होंने रेडियो को अपनी बात कहने का माध्यम बनाया और जन-जन से संवाद करने लगे।

‘मनमोदी’ पढ़ते हुए आप जान सकते हैं कि इस देश में राष्ट्रवाद की एक नई राजनीति शुरू हुई। नागरिकों ने नोटबंदी का दर्द सहा तो कोरोना काल में बंदिशों की पीड़ा इसलिए झेली क्योंकि उनसे कहा गया कि वे यह सब देश के लिए कर रहे है।
त्याग की राजनीति इसी राष्ट्र भावना के तहत उकेरी गई। मुकेश भारद्वाज लिखते हैं, ‘भारतीय संदर्भ में देखें तो नरेंद्र मोदी ने अपने हिसाब से ठोक पीट कर पहचान की राजनीति को अपना सबसे तेज औजार बना लिया।’
इसी पुस्तक में वे लिखते हैं-‘जनता सिर्फ रोजी-रोटी ही नहीं अपनी संस्कृति, अपने इतिहास के लिए भी लड़ती है। जनता को इतिहास के साथ यह मुठभेड़ पसंद आई। वह इसके सेनापति नरेंद्र मोदी की सेना बनने को तैयार हो गई।’ … तो आज सभाओं में ‘मोदी-मोदी’ के जो नारे लगते हैं, उस पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए।
लेखक ने अपनी पुस्तक में न केवल ‘मन की बात’ करने वाले प्रधानमंत्री के कामकाज की व्याख्या की है बल्कि मौजूदा लोकतांत्रिक राजनीति के सभी पहलुओं को भी सामने रखा।
नोटबंदी से लेकर मणिपुर तक की चर्चा
किसानों-मजदूरों की पीड़ा पर लिखते हुए आरोपों के विमान पर चर्चा करते हुए अगस्ता की उड़ान भी भरी। वहीं नोटबंदी की अथकथा क्रमवार लिखी। मणिपुर की चर्चा करते हुए भारद्वाज यह कहने से नहीं चूके कि मणिपुर में एक बार फिर यह साबित हुआ कि दिल्ली केंद्रित राजनीति के लिए पूर्वोत्तर सिर्फ चुनावी पर्यटन भर है।
पांच साल पहले रोजी-रोटी बनाम राम मुद्दे पर लेखक यह लिखने का साहस कर रहा था-
सरकार ने पिछले तीन सालों में जनता को जिस तरह भक्ति और प्रार्थना में लीन रखा है, जनता की यह तंद्रा जल्द ही टूटेगी। क्योंकि रोजी-रोटी का विकल्प राम भी नहीं हो सकते।
भारद्वाज ने जहां कुछ नीतियों की सकारात्मक आलोचना की है, वहीं कुछ निर्णयों का समर्थन भी किया है।
तीन नए कृषि कानूनों की वापसी पर उन्होंने लिखा- प्रधानमंत्री का माफी मांगना उस जन चेतना का सम्मान है जो किसानों ने अपने एक साल के संघर्ष के बदौलत तैयार किया। वहीं तीन तलाक कानून पर सरकार के फैसले पर लेखक ने माना कि मजबूत सरकार के क्या मायने होते है, इससे साबित हुआ। बेशक नोटबंदी पर प्रश्नचिह्न लगे हों। इस पुस्तक में सम्मिलित हर आलेख लोकतंत्र के लिए एक विमर्श तैयार करता है।
मोदी की दस साल की राजनीति का है दस्तावेज
राजनीति स्वयं में गतिशील होती है। लेखक ने उचित ही लिखा है कि प्रधानमंत्री मोदी की गतिशीलता को नापना, आंकना एक विश्लेषक के तौर पर हमें थका सकता है। लेकिन वे अपनी गति और ऊर्जा को बरकरार रखे हुए हैं। अराजनीतिक रही जनता को अपनी राजनीति के साथ गतिशील बना कर मोदी ने खुद को मुमकिन तो बना दिया है। आगे का अध्याय जो भी हो, लेकिन अभी तक वे इतिहास को चुनौती देते हुए अपने हिस्से का इतिहास वे लिख चुके हैं। लेखक के इस कथन से शायद ही कोई असहमत हो।
मुकेश भारद्वाज की 479 पृष्ठों की यह पुस्तक प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की दस साल की राजनीति का दस्तावेज है। उनका लिखा हर अध्याय सोचने के लिए बाध्य करता है।
राजनीति शास्त्र के विद्यार्थी इस दस साल के कालखंड को इससे आसानी से समझ सकेंगे। ‘मनमोदी’ को इंडिया नेटबुक्स ने प्रकाशित किया है। राजनीति में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है।