प्रेम अंतर्मन का शुद्ध भाव है या यों कहें, वह धागा है जो दो जीवात्माओं को जोड़ता है। प्रेम सभी जीवात्माओं में मूल प्रकृति के रूप में मौजूद रहता है। जरूरत है बस उसे उभारने की, तलाशने की। प्रेम के बिना जीवन का अस्तित्व ही क्या है भला? दंपति का प्रेम दांपत्य प्रेम या प्रणय कहा जाता है, तो ईश्वर से प्रेम को भक्ति। सूफी कवि हों या संत कबीर, परमात्मा के प्रति सर्वस्व अर्पित, सर्वव्यापी, एकनिष्ठ प्रेम की ही वकालत करते हैं। आत्मा रूपी नायिका परमात्मा रूपी नायक से मिलने को बेताब है। प्रेम गली अति सांकरी जामें दोऊ न समाहिं। श्रीमद्भगवदगीता में भक्तियोग के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण ने प्रेम तत्त्व को समझाने की कोशिश की है। उनके अनुसार ईश्वर के प्रति शरणागति ही ईश्वरीय प्रेम की पराकाष्ठा है, जिसे पुष्टिमार्ग में पुष्टि कहा गया है। श्रद्धा, ममता, स्नेह और करुणा- ये सब प्रेम के ही विविध रूप हैं।
सच्चा प्रेम निस्वार्थ होता है। वह देता है, कुछ लेता नहीं। वहां कामनाओं का संसार नहीं, बलिदान की भावना है। अपने प्रेमी के निरंतर उन्नत का सद्विचार है। सच्चा प्रेम आजाद करता है, बांधता नहीं। उस पर अधिकार नहीं जताता। उसे मुक्त करता है। ये जो आजकल ‘पजेसिवनेस’ और क्रोध का मिश्रण फिल्मों या धारावाहिकों में दिखाया जाता है, वह प्रेम को हिंसा की ओर धकेलता है। उसके सात्विक चेहरे को विकृत बना कर प्रस्तुत करता है। दरअसल, यह प्रेम में बाजारीकरण का प्रवेश है। बाजार सनसनी बेचता है। प्रेम कभी आकर्षण है, कभी वात्सल्य है, तो कभी वृहद् सामाजिक चिंता भी। इसलिए वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह लिखते हैं- ‘उसका हाथ/ अपने हाथ में लेते हुए/ मैंने सोचा/ दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए।’
हमारा समाज प्रेमियों को उड़ने की आजादी नहीं देता
आज लोगों ने प्रेम को वासना और कामना तक ही सीमित कर दिया है। उसके एंद्रिक रूप की सर्वत्र चर्चा है। प्रेम के लिए रक्षार्थ लोग हिंसक और हत्यारे हुए जा रहे हैं। कभी घनानंद ने लिखा था- ‘अति सूधो सनेह को मारग है, नैकु सयानप बांक नहीं। कौन सी पाटी पढ़े हो लला कि लेहु पे देहु छंटाक नहीं।…’ लेकिन लगता है आज यह मार्ग इतना सीधा और सरल नहीं रह गया है। उस मार्ग पर बटमार वेश बदल कर आ बैठे हैं। संस्कृति रक्षक और समाज के ठेकेदारों ने अपनी गुमटियां सजा ली हैं। उनकी कुंठाओं का प्रकाशन ‘वैलेंटाइन डे’ जैसे मौकों पर होता रहता है। हमारा समाज प्रेमियों को उड़ने की आजादी नहीं देता। वह उनको ‘पग घुंघरू बांध’ रखना चाहता है। हालांकि समय बदल रहा है। साक्षरता के कारण आज वर-वधू एक दूसरे को देख-समझ कर ही विवाह करना पसंद करते हैं। विवाह नाम की संस्था का हमारे देश में पर्याप्त मान है। फिर चाहे वह प्रेम विवाह हो या सामाजिक रीति से। वैसे हमारे यहां भी महानगरों में विवाह नामक संस्था का मान कम हुआ है, तलाक के मामले बढ़ रहे हैं। सहजीवन नामक नई पद्धति निकाल ली गई है, जहां दायित्व बोध से मुक्ति पाई जा सके।
सही दिशा में किए गए संघर्ष का नतीजा अनुकूल होना जरूरी नहीं
दरअसल, प्रेम एक जिम्मेदारी का अहसास है और यायावरी से दूर एक अनुशासन भी। प्रेम है तो दुख भी होगा और कष्ट भी उठाने होंगे एक दूसरे के लिए। यह एक समर्पण है। दैहिक नहीं, आत्मिक संतुष्टि है। इसे युवा पीढ़ी को समझना होगा। आज प्रेम और संबंधों का टूटना एक ही नदी के दो घाट हो गए हैं। चाहे इधर बैठ जाइए या उधर, कोई फर्क नहीं। आज की पीढ़ी प्रेम को मात्र एकदिवसीय उत्सव मानती है। इस उत्सव में बाजार भी अपना चकाचौंध भरा चेहरा लेकर आ गया है। इस उत्सव में युवा एक दिन साथ हैं और दूसरे दिन जुदा-जुदा। ‘प्लूटोनिक प्रेम’ एक उपहास मात्र है। प्रेम पर विमर्श और निष्कर्ष की गुजांइश नहीं। यह किसी शर्त पर नहीं होता। सोच-समझ कर कहीं शतरंज की चालें चली जाती हैं। प्रेम के रास्ते तय नहीं किए जाते। वहां सहज, निर्विकार होकर जाना होता है। जैसे एक भक्त ईश भक्ति के मार्ग में जाता है निष्कवच।
खत्म होती जा रही है प्रेम की सहजता
आज इससे तैयार हुए खास दिवस का बाजार लगभग बाईस हजार करोड़ रुपए का है। अलग-अलग आनलाइन खरीदारी के मंचों पर कई तरह की रियायतें दी जा रही हैं, प्रस्ताव दिए जा रहे हैं। प्रेम के इजहार के लिए टेडीबियर, ग्रीटिंग कार्ड, चाकलेट, गुलाब, आभूषणों की मांग और खपत बढ़ गई है। नए ‘डेटिंग ऐप’ की तो कहीं भड़ास निकालने वाले ऐप की भरमार होती जा रही है। भावनाओं का सम्मान परस्पर कम हो गया है। प्रेम की सहजता खत्म होती जा रही है। इसलिए कि प्रेम भी बाजार के रंग में रंग गया है। हृदय की जगह शरीर पर अटक गया है।
सामाजिक ताने-बाने के साथ व्यक्तिगत संबंधों को भी नष्ट कर रहा विज्ञान
‘सुबह से शाम तक तुझको प्यार करूं…’ बस इतना ही प्रेम का माद्दा बचा है नई पीढ़ी में। ‘ये प्यार न होगा कम…’, और ‘तुम अगर साथ देने का वादा करो’ जैसे समर्पित गीतों की पुकार अब विचलित नहीं करती। प्रेम भी दो मिनट के सरोकार जैसा हो गया है। ऐसे में रीतिकालीन कवि बोधा की पंक्तियां रह-रह कर याद आती हैं- ‘प्रेम को पंथ कराल महा तरवार की धार पै धावनो हैं।’ जरूरत इस बात की है कि प्यार के मासूम रिश्ते को बदनाम न कर, इसके मर्म को समझा और पहचाना जाए, क्योंकि यही वह परम तत्त्व है, जो राजनीति हो या परिवार या देश को एकजुट रख सकता है।