आशा शर्मा

माया, कान में रुई डाल रखी है क्या? मेहमानों के लिए पानी क्या उनके जाने के बाद लाओगी?’ अफसर की फटकार सुनकर माया की आंखों में पानी आ गया। उसने गिलास ट्रे में रखे और साहब के केबिन की तरफ जाने लगी। अचानक दीवार पर लगे शीशे में अपनी छवि देखकर ठिठक गई। ठिठकी क्या… डर ही गई। शायद लंबे समय से खुद पर निगाह ही नहीं डाली थी। कुछ आवाजों ने जैसे दिमाग पर कब्जा कर लिया था। कुछ दृश्य आंखों में घूमने लगे।

‘पढ़-लिखकर इसे क्या नौकरी करनी है? अरे यह तो राज करेगी देखना।’ दादी अक्सर उसके रूप को देखकर कहा करती थी। युवावस्था आते-आते यह बात बरगद की जड़ की तरह उसके दिमाग में बैठ चुकी थी। इतनी गहरी कि उसके बाद शिक्षा का बोया बीज उस जमीन पर कभी पल्लवित हो ही नहीं सका। वह किसी तरह दसवीं कक्षा में पहुंची ही थी कि दादी की बात सच साबित हो गई। किसी रिश्तेदार की शादी में महेश की मां ने उसे देखा तो अपने बेटे के लिए मांग लिया।

‘अभी तो लड़की दसवीं में पढ़ रही है, छोटी है।’ मां ने एतराज किया था, लेकिन दादी की त्योरियां चढ़ गई थीं। ‘अठारह की तो होने को आई, अब भी छोटी है क्या? अच्छे लड़के तुम्हारे इंतजार में बैठे नहीं रहेंगे।’ कहकर दादी ने मां की बात को खारिज कर दिया। पिता अभी उसे और पढ़ाना चाहते थे, इसलिए वे भी इस रिश्ते के पक्ष में नहीं थे, लेकिन दादी को लग रहा था मानो यह आखिरी ट्रेन हो और यह छूट गई तो फिर दूसरी गाड़ी मिलना असंभव होगा, इसलिए उन्होंने मध्यम मार्ग निकाला।

‘ठीक है, अभी सगाई कर लेते हैं। जब लड़की की पढ़ाई पूरी हो जाए, तब शादी कर देंगे। अब ठीक?’ कहकर दादी ने सबके मुंह बंद कर दिए और वह महेश की मंगेतर हो गई। महेश उससे लगभग आठ साल बड़ा था और प्रशासनिक अधिकारी के रूप में प्रशिक्षण ले रहा था। वह महेश के खयालों में खोई-खोई रहने लगी। नतीजा यह हुआ कि दसवीं की बोर्ड परीक्षा में फेल हो गई।

महेश से बात हुई तो वह फोन पर रोने लगी। महेश भला उन आंखों में पानी कैसे देख सकता था जिनमें कभी भी आंसू न आने देने का वादा किया था। उसने माया के आंसू पोंछे और अगले साल फिर से मेहनत करने का हौसला दिया। माया ने अब पढ़ाई से ज्यादा अपने चेहरे और शरीर पर ध्यान देना शुरू कर दिया। ‘वहां कौन मेरी डिग्री देखने वाला है। जो भी देखेगा, वह चेहरा ही देखेगा।’ माया सोचती और पति की अफसरी के सपनों में खो जाती।

इधर महेश का प्रशिक्षण पूरा हुई और उधर दादी ने शादी की जल्दी मचाई। ससुराल जाकर पढ़ने के समझौते पर शादी हो गई और वह बिना शिक्षा के गहने पहने ही एक प्रथम श्रेणी अधिकारी की वामांगी बन गई। उसके बाद न किसी को पढ़ाई याद आई और न किसी ने याद दिलाई। शिक्षा कहीं बाधा भी नहीं बनी। माया ठाठ से ‘मेम साब’ बनी घूमने लगी। कितने ही पढ़े-लिखे लोग उसके सामने हाथ बांधे खड़े रहते थे। कहीं भी जाती, अर्दली अदब से झुककर सलाम ठोंकता और गाड़ी का दरवाजा खोलता।

इसी बीच वह एक बच्ची की मां भी बन गई। मगर समय के फेर को कौन समझ सका है। माया का सुनहरा सपना एक दिन चकनाचूर हो गया जब दौरे पर गया महेश सफेद कपड़े में लिपटकर लौटा। माया जमीन पर आ गिरी। गुड़ पर मक्खियों की तरह भिनभिनाने वाले लोग ऐसे गायब हुए जैसे हल्दी के छिड़काव से चींटियां। केवल गिनती भर के शुभचिंतक ही अब उसकी पूंजी थे।

सरकारी नौकरी का ढांचा कहीं-कहीं ऐसा बचा है, जिसमें मुसीबत के समय अपने कर्मचारियों और उनके परिवार का हाथ नहीं छोड़ा जाता। माया की भी पति के स्थान पर विभाग में अनुकम्पा नियुक्ति देने की प्रक्रिया शुरू हो गई। जल्दी ही नियुक्ति पत्र हाथ में आ गया। पद का नाम लिखा था ‘चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी।’

माया की आंखों के सामने सूरती बाई का चेहरा घूम गया। जब कभी घर में काम ज्यादा हो जाता था तब महेश सूरती बाई को मदद के लिए भेजा करते थे। सूरती जूठे बर्तन धो देती थी और साफ-सफाई भी कर देती थी। शाम को जाते समय माया बचा हुआ खाना और पुरानी पड़ी मिठाई उसके साथ बांध कर खुद को महादानी का खिताब देने से नहीं चूकती थी।

‘मेरे पति तो यहां अधिकारी हुआ करते थे।’ माया ने दबी जुबान में प्रतिरोध जताया। ‘नौकरी पति के नाम पर मिली है, स्थान तो आपका आपकी योग्यता के अनुसार ही तय होगा!’ कहते हुए नियोक्ता ने उसे उसकी जगह बता दी थी. मन तो बहुत कलपा, लेकिन इसके अतिरिक्त और कोई चारा भी नहीं था उसके पास। तभी घंटी की कर्कश आवाज ने उसके कानों को चीर दिया। वह हकबका गई और तेजी से साहब के केबिन की तरफ चल पड़ी।

अभी दरवाजे पर ही थी कि साहब का स्वर सुना- ‘पता नहीं सरकार इतने निठल्ले कर्मचारियों को तनख्वाह किस बात की देती है! दिन भर में केवल पानी पिलाने का काम ही होता है… उसमें भी इतनी देर मानो कुएं से बाल्टी भरने गए हों!’ साहब ने अपने मेहमान के सामने भड़ास निकाली।

हर समय ‘मेमसाब-मेमसाब’ कहते आगे-पीछे घूमने वाले महेश के कनिष्ठ को पानी का गिलास थमाते समय कितनी ही अनदेखी किरचें माया की हथेलियों को लहूलुहान कर गई थीं, लेकिन दर्द को पीना उसकी मजबूरी थी। तभी उसका मोबाइल बजा। देखा तो बेटी के स्कूल से फोन था। आवाज आई- ‘आपकी बेटी की पढ़ाई लगातार खराब हो रही है।

आप कल स्कूल आकर मिलिए।’ माया को अपना अतीत याद आने लगा। उसे अपनी छवि में बेटी का अक्स दिख रहा था, लेकिन वह अपनी दादी की गलती को दोहराना नहीं चाहती थी। ‘सूरत भले ही मुझ-सी पाई है, लेकिन नसीब मैं अपने जैसा नहीं होने दूंगी… पढ़ाई से जी नहीं चुराने दूंगी!’ माया ने मन ही मन ठान लिया। एकाएक उसे लगा जैसे हथेली की किरचों पर किसी ने मरहम लगा दिया हो।