कर्नाटक के एक गांव में चार-पांच साल के एक लड़के को अजीब खब्त थी। वह जब भी गाना-बजाना सुनता, सब कुछ भूल जाता। घरद्वार तक याद नहीं रहते। कभी वह किसी मंदिर में कीर्तन-भजन सुनता और वहीं सो जाता। कभी बैंडबाजा वालों के साथ दूर तक चला जाता। उसके पिता शिक्षक थे, उन्होंने तरकीब भिड़ाई और बेटे की कमीज पर लिख दिया ‘जोशी मास्तरांचा मुलगा’ (जोशी मास्टर का लड़का)। तरकीब काम कर गई क्योंकि इसके बाद लोग बच्चे को मास्टर साहब के घर छोड़ जाते। बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ तो एक दिन उस्ताद अब्दुल करीम खां की राग झिंझौटी में बिठाई ठुमरी ‘पिया बिन नाहीं आवत चैन’ सुन कर उस पर दीवाना हो गया। नई खब्त सवार हो गई कि कुछ ऐसे ही गाना चाहिए। लेकिन ऐसा गाना सिखाएगा कौन? बिना गुरु के तो ज्ञान मिलता नहीं। तो गुरु ढूंढ़ने निकल पड़ा। शहर-शहर भटका कि कोई अच्छा गुरु मिल जाए। ग्वालियर, लखनऊ, रामपुर, जलंधर से लेकर कोलकाता तक के गुणी लोगों का गाना सुना। साल भर तो लखनऊ में ठुमरी सीखने में ही लगा दिया। मगर संगीत की प्यास बुझने का नाम नहीं ले रही थी।
घरवालों ने किसी तरह पता ठिकाना ढूंढ़ा और वापस पकड़ लाए। समझ गए कि संगीत के बिना इसे चैन नहीं मिलेगा। जिस करीम खां की ठुमरी ने उसे दीवाना बनाया था, उनका चेला बनना आसान नहीं था। उत्तर प्रदेश के कैराना के करीम खां ने किराना घराने की नींव रखी थी और बड़ौदा से लेकर मैसूर राज के दरबारों में अपने हुनर की झलक दिखाई थी। कहते हैं कि जो खोजने निकलता है, वह पा ही लेता है। तो पता चला कि करीम खां के किराना घराने का गाना सीखने कैराना जाने की जरूरत नहीं है।
कर्नाटक में ही उनके एक चेले हैं रामचंद्र कुंदगोलकर। रामचंद्र करीम खां की भैरवी के दीवाने थे। एक दिन जब खां साहब कर्नाटक आए तो उनके कान में अपनी ही भैरवी-बंदिश ‘जमुना के तीर…’ के सुर पड़े। पूछ-परख की और रामचंद्र को अपना चेला बना लिया। तो किसी तरह कुंदगोलकर से गंडा बंधवाया। कुंदगोलकर भी हरहुन्नरी कलाकार थे। वे मराठी नाटकों में महिला पात्रों का अभिनय करते थे। महाराष्ट्र की जनता उन पर लट्टू थी और उन्हें सवाई गंधर्व कहने लगी थी। मगर उस्ताद लोग ऐसे ही हुनर हथेली पर नहीं रख देते। दो साल तक उस्ताद के घर झाडू-बुहारी से लेकर दूर कुएं से पानी लाने तक का काम किया। आखिर चेले की सेवा से गुरु खुश हुए और एक दिन कहने लगे कि चलो भई अब तुम्हें संगीत सिखा ही देते हैं। तब तालीम शुरू हुई। रोज आठ घंटे की। खयाल, तराना, ठुमरी, भजन।
एकमुद्रा बैठक ऐसी कि मजाल आठ घंटे तक करवट बदल लें। मेहनत रंग लाई और एक दिन संगीत शिक्षा पूरी हुई, तो गुरु का घर छोड़ दिया। फिर अपने ही घर में शुरू हुआ जो ‘सुना उसका दुगुना’ रियाज। नियम से रोज 16 घंटे की स्थिर बैठक लगी। और जब हुनर का सार्वजनिक प्रदर्शन शुरू हुआ, तो सुनकर लोग हैरान रह गए। इतना बढ़िया धीर-गंभीर गायन। कर्नाटक छोटा पड़ गया। देश-विदेश में किराना घराने के सुर गूंजे और इस गूंज के साथ नाम जुड़ गया पंडित भीमसेन जोशी। इन्हीं पंडित भीमसेन जोशी ने ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ तैयार किया, जिसकी खनक आज भी लोगों के कानों में गूंजती है।